अदृश्य आत्मा

श्वकेतु अत्यंत जिज्ञासु बालक था।

कई वर्षों तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी उसे अपना ज्ञान अधूरा लगता था।

उसने अपने पिता आरुणि ऋषि से पूछा, “आत्मा क्या है?

यह कहाँ से प्रकट होती है?”

आरुणि ने श्वकेतु से बरगद का एक फल तोड़ने के लिए कहा।

उसने पिता की आज्ञा का पालन किया।

‘भीतर क्या देखा' पूछने पर उसने कहा, 'कुछ नहीं'।

तब आरुणि ने समझाया, 'इस फल के सूक्ष्म बीज में तुम्हें कुछ नहीं दिख रहा है पर उसी से विशाल बरगद का वृक्ष उत्पन्न होता है...

ठीक उसी प्रकार आत्मा भी सबका मूल है।

” श्वकेतु ने पूछा, “मुझमें, आपमें या सभी में।

मैं उसकी उपस्थिति कैसे अनुभव करूँ?”

आरुणि ने कहा, “जल से भरे एक कटोरे में थोड़ा नमक डाल दो

और कल सुबह उसे लेकर मेरे पास आना।” अगले दिन आरुणि ने कहा, “वत्स, रात में जो नमक

डाला था वह मुझे दो।"

"नमक तो पानी में घुल गया है, वह मैं कैसे दे सकता हूँ?"

“अच्छा वत्स, जल का स्वाद चखो... कैसा स्वाद है?"

"अत्यधिक नमकीन.....'अब तुम क्या समझे?"

" "नमक पानी में है, हालांकि मैं उसे देख नहीं पा रहा हूँ..." “हूँऽऽ...

जैसे तुम नमक का स्वाद ले सकते हो पर देख नहीं सकते उसी तरह

आत्मा तुम्हारे भीतर है जिसे तुम देख नहीं सकते... ध्यान के द्वारा तुम उसे अनुभव कर सकते हो।”