अपने आज्ञाकारी शिष्य आरुणि को धौम्य ऋषि बहुत प्यार करते थे।
एक दिन बारिश हो रही थी।
आश्रम के चारों ओर जल इकट्ठा हो गया था।
धौम्य ऋषि ने आरुणि को बुलाकर कहा, “वत्स, यहाँ जल बढ़ रहा है...
जाकर देखो कहीं बाँध में कोई दरार तो नहीं आ गई है...।"
आरुणि ने तटबंध पर जाकर देखा कि उसका एक किनारा टूट गया था और पानी खेतों में आ रहा था।
आरुणि ने सोचा, “यह तो बहुत खतरनाक है... हमारी सारी फसल बर्बाद हो जाएगी...
इसे मिट्टी से बंद कर देता हूँ...।
" जब उसकी चेष्टा व्यर्थ गई तब उसने उस बहाव को लेटकर रोकने का प्रयत्न किया।
उसे लगा कि लोटने से वह पानी के बहाव को रोकने में सफल हो जाएगा।
आरुणि के वापस नहीं लौटने पर धौम्य ऋषि अन्य शिष्यों के साथ वहाँ पहुँचे।
उन्होंने जल के बहाव को अपने शरीर से रोकने का प्रयत्न करते हुए आरुणि को देखा।
आरुणि की निष्ठा देखकर ऋषि धौम्य ने कहा,
“वत्स, तुमने आज्ञाकारिता की मिसाल दी है।
आज से तुम 'उद्दालक' कहलाओगे।”