सप्तर्षियों में ऋषि भारद्वाज अपने वैदिक ज्ञान के लिए विख्यात थे।
बचपन से ही उनमें ज्ञान-पिपासा थी।
उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर एक बार इन्द्र भगवान ने उनसे पूछा, “
भारद्वाज, मैं तुम्हारी भक्ति से अभिभूत हूँ... मुझसे वर माँगो...”
“मेरा अहोभाग्य इन्द्रदेव... मुझे भौतिकता या आध्यात्मिकता में कोई रुचि नहीं है...।
अपनी ज्ञान की पिपासा को शांत करने
के लिए मैं आपका आशीर्वाद चाहता हूँ...
यदि आप मुझे सौ वर्षों की अवधि दें तो आपकी अति कृपा होगी।”
“हूँऽऽ... मैं तुम्हारी भावना को समझता हूँ...।
वेदों की ज्ञान प्राप्ति के लिए मैं तुम्हें सौ वर्ष का समय देता हूँ...।”
सौ वर्ष बीत जाने के बाद इन्द्र ने पुनः भारद्वाज से पूछा कि अब वह संतुष्ट है या नहीं।
विनम्रतापूर्वक भारद्वाज ने कहा, “इन्द्र, मुझे और समय चाहिए...।"
इस बार इन्द्रदेव ने उन्हें दो सौ वर्षों का समय दिया।
अंततः भारद्वाज ने वेद पर पाण्डित्य प्राप्त कर लिया।
फिर भी उनकी ज्ञान पिपासा समाप्त नहीं हुई।
उन्होंने इन्द्र को अपने मन की बात बताई तो इन्द्र ने दूर खड़े पर्वत को दिखाते हुए कहा,
" वत्स, ज्ञान उस पर्वत की तरह है... उसकी कोई सीमा नहीं है...
तुम कितना भी ज्ञान प्राप्त कर लो वह मुट्ठी भर ही होगा...।
यह समय प्राप्त किए हुए ज्ञान के प्रसार का है... "
तत्पश्चात् भारद्वाज ने कई हिन्दू शास्त्रों की रचना की ।