एक बार की बात है- बहुत सारे ऋषि सरस्वती नदी के किनारे महायज्ञ के लिए एकत्रित हुए।
सफलतापूर्वक यज्ञ को पूरा करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश में से किसका
आहवान किया जाए... इसका निर्धारण वे नहीं कर पा रहे थे।
सभी ऋषियों
ने मिलकर इस कार्य का भार ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु ऋषि को सौंपा।
भृगु ऋषि सबसे पहले अपने पिता ब्रह्मा जी के पास पहुँचे।
ब्रह्मा जी सरस्वती के साथ वार्ता में व्यस्त थे।
उन्होंने भृगु पर कोई ध्यान नहीं दिया।
इसे अपना अनादर समझकर भृगु शिव के घर कैलाश पर्वत गए पर उन्होंने भी भृगु को नज़रअंदाज कर दिया।
क्रोधित भृगु सीधे वैकुन्ठ गए।
विष्णु आदिशेष पर विश्राम कर रहे थे।
उन्होंने भी भृगु पर कोई ध्यान नहीं दिया।
भृगु के क्रोध की सीमा न रही।
विष्णु को जगाने के लिए भृगु ने उनकी छाती पर एक लात मारी।
विष्णु ने अपनी आँखें खोलीं और भृगु का अभिवादन कर बोले, “भगवन्!
मेरे वक्ष से आपके पैर में चोट तो नहीं लगी, “यह कहकर विष्णु भृगु का पैर सहलाने लगे।
भृगु अपनी भूल तुरंत समझ गए। उन्होंने
कहा,
"हे प्रभु! मेरे कृत्य के लिए मुझे क्षमा कर दें।" भृगु
ने त्रिदेवों में विष्णु को सबसे ऊँचा स्थान दिया।