त्रिशंकु का स्वर्ग

इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न सत्यव्रत महर्षि वशिष्ठ का शिष्य था।

एक बार उसने वशिष्ठ ऋषि से अनुरोध किया, " हे गुरुदेव!

कृपया स्वर्ग जाने की शास्त्रविधि मुझे सिखाएँ।

" वशिष्ठ ने उसे मना करते हुए कहा, “वत्स, मात्र शास्त्र-विधि के द्वारा स्वर्ग नहीं जाया जा सकता है।"

अपने इसी अनुरोध के साथ सत्यव्रत विश्वामित्र ऋषि के पास गया।

विश्वामित्र सहमत हो गए और उन्होंने यज्ञ करवाया।

इधर देवताओं को सत्यव्रत की इस करतूत का पता चला और उन्होंने उसे स्वर्ग के द्वार पर ही रोकने का निश्चय किया।

विश्वामित्र ने नाराज होकर प्रतिज्ञा की, “सत्यव्रत, मैं अपनी शक्तियों से तुम्हें अवश्य स्वर्ग भेजूँगा ।

" सत्यव्रत ऊपर उठने लगा।

वह लगभग स्वर्ग के द्वार तक पहुँच ही चुका था तभी देवताओं ने उसे रोककर कहा, “तुम वापस धरती पर जाओ ।"

सत्यव्रत ऊपर से नीचे उल्टा गिरने

लगा तब पुनः विश्वामित्र ने उसे निर्देश दिया, “सत्यव्रत नीचे मत आओ, वहीं

रुको। मैं तुम्हारे लिए दूसरा स्वर्ग बनाऊँगा ।"

इन्द्र ने बीच-बचाव करते हुए विश्वामित्र से ऐसा नहीं करने के लिए कहा।

विश्वामित्र ने कहा, “सत्यव्रत ने मुझे यह कार्य दिया है उसे अंतरिक्ष में ही रहने दिया जाए...

इस प्रकार सत्यव्रत उल्टा अंतरिक्ष में लटका रहा, जो कि 'त्रिशंकु का स्वर्ग' कहलाया।

सत्यव्रत का तभी से त्रिशंकु नाम पड़ गया।