पाण्डवों को वनवास हो चुका था।
वे किसी तरह अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे।
वनवास की अवधि में उनके लिए जीवनयापन करना, भोजन जुटाना, कठिन हो रहा था
पर अतिथियों का सत्कार करना भी आवश्यक था जो कि और भी कठिन था।
द्रौपदी को कुछ सूझ नहीं रहा था।
उसने परेशान होकर कृष्ण से कहा, “हे वासुदेव!
यदि मैंने अतिथियों का सत्कार नहीं किया तो पाप की भागी बनूँगी।"
कृष्ण ने उपाय सुझाते हुए कहा, "द्रौपदी, सूर्य देव की प्रार्थना करो...
वही तुम्हें आशीर्वाद देंगे।
” कृष्ण की सलाह मानकर द्रौपदी ने सूर्य देव की आराधना की।
सूर्यदेव प्रसन्न होकर प्रकट हुए।
द्रौपदी ने उनके समक्ष अपनी समस्या रखी।
सूर्यदेव "यह ने उसे आशीर्वाद देते हुए अक्षय पात्र दिया और कहा,
एक दिव्य पात्र है।
इससे तुम जितने लोगों को चाहो भोजन करा सकती हो।”
यह तुम्हें तबतक भोजन देता रहेगा जबतक सबको
भोजन कराकर तुम स्वयं न खा लो।
इस प्रकार इसी अक्षय पात्र के सहारे द्रौपदी पाण्डवों और अतिथियों की क्षुधा शांत किया करती थी।
एक बार पाण्डवों को अपमानित करने के लिए दुर्योधन ने दुर्वासा ऋषि को उनके शिष्यों के साथ भेजा।
उनका अतिथि सत्कार इसी अक्षय पात्र के सहारे द्रौपदी ने
किया और श्रापित होने से बच गई थी।
कृष्ण ने ही उसकी रक्षा की थी।