नीलकंठ शिव

दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण देवताओं की शक्ति क्षीण हो गई थी।

इन्द्र तथा देवताओं ने विष्णु भगवान से प्रार्थना की, “कृपया हमारी सहायता करें...

यदि हमारी शक्ति क्षीण हो गई तो हम असुरों से जीत नहीं सकेंगे और हमारा सब कुछ समाप्त हो जाएगा।”

विष्णु ने उन्हें असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने के लिए कहा तथा अमृत पान की सलाह दी।

असुरों के साथ मिलकर देवताओं ने क्षीर सागर का मंथन किया।

एक ओर सभी देवता थे तो दूसरी ओर असुर। मंदार पर्वत को मथानी बनाया गया।

वासुकी ने रस्सी का काम किया।

पर्वत अपनी जगह स्थिर नहीं रह पा रहा था।

तब देवताओं के अनुरोध पर विष्णु भगवान ने कूर्म अवतार लेकर अपनी पीठ पर पर्वत को सँभाला।

सागर मंथन शुरु हुआ। सागर से कामधेनु, कल्पवृक्ष,

धन्वंतरि और कई अमूल्य चीजें मिलीं, जिन्हें ऋषियों को बाँट दिया गया।

फिर हलाहल विष निकला।

विष के ताप से सभी घबरा उठे और शिव से प्रार्थना करने लगे।

शिव ने उन्हें सान्त्वना दी और स्वयं सारा विष पीने लगे।

तभी माता पार्वती ने उनका गला पकड़ लिया जिससे

विष नीचे न जा सके।

गले में ही विष रह जाने के कारण महादेव का गला नीला हो गया

और तभी से शिव भगवान 'नील कंठ' के नाम से जाने गए।