मणिकुंडल और गौतम

भुवन नामक शहर में गौतम नामक एक ब्राह्मण तथा मणिकुंडल नामक वैश्य रहता था।

दोनों मित्र थे ।

गौतम मणिकुंडल के धन से ईर्ष्या करता था।

उसने मणिकुंडल से कहा, “तुम अपने पिता के धन से मज़े करो...

दुनिया को अपनी आँखों से देखो और धन कमाओ।

” मणिकुंडल मान गया।

यात्रा करते समय गौतम ने कहा, “क्या तुमने कभी ध्यान दिया है कि गलत मार्ग पर चलने वाले लोग समृद्ध हैं

जबकि धर्म पर चलने वाले कष्ट भोगते हैं।

” मणिकुंडल सहमत नहीं हुआ।

दोनों में बहस होने लगी।

गौतम ने कहा, “चलो, लोगों से इसके बारे में पूछते हैं।

यदि वे नहीं माने तो तुम्हें अपना सारा धन देना होगा... मैं भी तुम्हें अंधा और लंगड़ा बना दूँगा।”

दोनों ने लोगों से पूछा, वे सभी गौतम की बात से सहमत थे।

मणिकुंडल का सारा धन गौतम के पास चला गया।

उसने उसे अंधा और लंगड़ा भी बना दिया तथा गौतमी गंगा नदी के किनारे उसे छोड़ दिया।

मणिकुंडल अपने हालात पर विचारने लगा।

शीघ्र ही विभीषण का पुत्र विभीषणी, विष्णु की प्रतिमा के पास प्रातः की पूजा-अर्चना करने आ गया।

मणिकुंडल की अवस्था का पता चलने पर उसने पिता विभीषण से उसकी चर्चा की।

विभीषण ने कहा, “पुत्र, हनुमान के द्वारा गिरे हुए विशाल्यकरणी और मृतसंजीवनी जड़ी-बूटी के कुछ टुकड़े अब बड़े वृक्ष बन गए हैं।

उनसे मणिकुंडल ठीक हो जाएगा।"

उन जड़ी-बूटियों के प्रभाव से मणिकुंडल पुनः स्वस्थ हो गया।