पुरुरवा के शासन काल में, नैमिषारण्य में रहने वाले कुछ ऋषि एक यज्ञ कर रहे थे।
उस यज्ञ की विशेषता यह थी कि यज्ञ की संपूर्ण वेदी दिव्य वास्तुकार विश्वकर्मा के
आशीर्वाद स्वरूप सोने की बनी थी।
यज्ञ होते समय पुरुरवा वहाँ आया। वह शिकार करने निकला था।
यज्ञ की सुनहरी वेदी से आकृष्ट होकर वह ठिठका और ऋषियों से बोला, " हे ज्ञानियों! मैं यहाँ का राजा हूँ...
यहाँ क्या हो रहा है? यह सुनहरी वेदी किसलिए?
राजा होने के कारण इसे मेरे पास होना चाहिए था...
इसे मुझे ले जाने दो..." एक ऋषि ने उसे रोका और कहा,
“पुरुरवा, तुम भले ही राजा हो पर यह एक विशेष यज्ञ वेदी है, इसे विश्वकर्मा ने हमें आशीर्वाद स्वरूप दिया है...
इसका लाभ आपके लिए उचित नहीं है।”
“मैं राजा हूँ... ऋषि ! मुझे सिखाने की तुम्हारी हिम्मत?
यह कहकर क्रोधित पुरुरवा अपनी तलवार लेकर ऋषियों से भिड़ गया।
पलक झपकते ही ऋषि ने मन्त्रसिद्ध कुशा लेकर पुरुरवा पर आक्रमण कर दिया।
ऋषि के तप से तुरंत ही पुरुरवा भस्म हो गया।
बाद में उसका पुत्र आयुष राजगद्दी पर बैठा।