दो वर

गरुड़ अपने सर्प भाइयों की बात मानकर स्वर्ग गए।

देवताओं से युद्ध किया और अंततः अमृत कलश को लेकर आ गए।

एक बार भी अमृत चखने की उनकी इच्छा नहीं हुई।

गरुड़ की निःस्वार्थता और बुद्धिमानी देखकर विष्णु भगवान बहुत प्रसन्न हुए।

उन्होंने गरुड़ से कहा, "हे विशाल पक्षी, तुम बहुत साहसी हो।

अपनी माता को दासता से मुक्त करवा लिया।

लालच तो तुममें ज़रा भी नहीं है।

यदि तुम स्वार्थी और लालची होते तो तुमने अमृत पान कर लिया होता,

पर तुमने उस ओर देखा भी नहीं।

मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ।

तुममें एक नेता के गुण हैं। तुम पक्षियों के राजा बनोगे और खगेन्द्र कहलाओगे।”

गरुड़ ने कहा, “हे प्रभु! मैं आपके समक्ष नतमस्तक हूँ।

यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो मेरी इच्छा पूरी करने की कृपा करें।

मैं आपसे वर माँगता हूँ; पहला, मैं सदा आपके साथ रहते हुए आपकी सेवा में रत रहूँ।

दूसरा, आपके आशीर्वाद से सर्पों पर मैं सदा विजय प्राप्त करूँ।

” विष्णु ने गरुड़ को अपना वाहन नियुक्त कर लिया और वे

सदा विष्णु की सेवा में रत रहे। दूसरे वरदान के कारण ही

गरुड़ के सामने सर्पों की सदा पराजय होती है।