दूसरे दिन राजा भोज की फिर सिंहासन पर बैठने की इच्छा बलवती हो उठी। जैसे ही उन्होंने सिंहासन पर बैठने के लिए अपने अदम आगे बढाया तभी सिंहासन से चित्रलेखा नाम की दूसरी पुतली उनके सामने प्रकट होकर खड़ी हो गई और उन्हें रोकते हुए बोली-'ठहरो राजा भोज! सिंहासन पर बैठने से पहले राजा विक्रमादित्य की यह कथा सुन लो उसके बाद तुम खुद निर्णय करना कि तुम सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो या नहीं।"
यह कह कर चित्रलेखा राजा भोज को कथा सुनाने लगी-'एक बार राजा विक्रमादित्य शिकार खेलते-खेलते एक ऊंचे पहाड़ पर आए। वहां उन्होंने एक साधू को तपस्या करते देखा। साधू की तपस्या में विघ्न न पड़े यह सोचकर वे उन्हें श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके लौटने लगे। जैसे ही वह वापस जाने लगे, अचानक साधू ने रोकते हुए कहा- "ठहरो विक्रमादित्य! मैं तुम्हारी शिष्टता से प्रसन्न हूँ।' यह कहकर साधू ने विक्रमादित्य को एक फल देते हुए कहा-"जो भी इस फल को खाएगा वह तेजस्वी और गुणवान पुत्र प्राप्त करेगा।" राजा विक्रमादित्य ने वह फल सहर्ष स्वीकार कर लिया और साधू से आशीर्वाद लेकर अपने महल की ओर लौट पड़े। चलते-चलते मार्ग में अचानक उन्होंने देखा कि एक स्त्री घबराई हुई-सी दौड़ी चली जा रही है।
विक्रमादित्य भी उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। उन्होंने देखा कि वह औरत एक कुएं के पास जाकर रुक गई। जैसे ही उसने कुएं में छलांग लगानी चाही, विक्रमादित्य ने उसे पकड़ लिया। उन्होंने उस स्त्री से पूछा-'बहन, तुम आत्महत्या क्यों करना चाहती हो? मुझे बताओ, मैं तुम्हारी मदद करुंगा।'
वह स्त्री रुदन स्वर में बोली-'मैं बहुत दुखी हूँ। मेरा पति मुझे मारता-पीटता है और कहता है कि मेरा एक भी पुत्र नहीं है, सारी लड़कियां हैं।" उस स्त्री की दास्तान सुन कर राजा विक्रमादित्य को उस पर दया आ गई। उन्होंने वह फल उसे देते हुए कहा-'बहन तुम चिंता मत करो इस फल को खाकर तुम्हें यशस्वी पुत्र पैदा होगा।' फल पाकर वह स्त्री विक्रमादित्य का धन्यवाद कर अपने घर लौट गई।"
इतनी कहानी सुनाने के बाद पुतली ने राजा भोज से कहा-'राजा भोज, अब मैं तुम्हें एक चमत्कार की घटना सुनाती हूँ। सुनो-एक दिन राजा विक्रमादित्य के राजदरबार में एक ब्राह्मण आया। उसने द्वारपालों से कहा-'मैं राजा विक्रमादित्य को एक अनमोल भेंट देना चाहता हूँ।
ब्राह्मण की बात सुनकर एक द्वारपाल अंदर गया और राजा विक्रमादित्य से बोला-'महाराज द्वार पर कोई ब्राह्मण आया है। वह कहता है कि मैं राजा को एक अनमोल भेंट देना चाहता हूँ।'
यह कहकर राजा विक्रमादित्य ने कहा-'ठीक है, उसे अंदर भेज दो।'
ब्राह्मण राजदरबार में गया और राजा विक्रमादित्य को वही फल देते हुए बोला-"महाराज, इस फल को अपनी रानी को खिला देना। इससे उन्हें एक यशस्वी पुत्र पैदा होगा।"
यह सुनकर राजा विक्रमादित्य को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने ब्राह्मण से पूछा-"यह फल आपके पास कहां से आया?" ब्राह्मण बोला-"महाराज यह मुझे मेरी पत्नी ने दिया है। "कुएं वाली स्त्री की बेवफाई पर उन्हें बहुत दुख हुआ। उन्होंने वह फल ब्राह्मण से ले लिए और उसे अपनी रानी को दे दिया। कुछ समय बाद राजा विक्रमादित्य के दरबार में एक रोज नर्तकी आई और विक्रमादित्य से बोली-"महाराज आप तो जानते ही हैं कि मैं एक पापिन हूँ और कई सालों से आपके राज्य में रह रही हूँ इसलिए मैं आपको एक अनमोल फल भेंट करना चाहती हूँ, जिससे आपका वंश चले। अगर आप बुरा न मानें तो मेरी यह भेंट स्वीकार करें।'
फल देखकर राजा विक्रमादित्य चौंक गए। उन्होंने पूछा-यह फल तुम्हारे पास कहां से आया?
राजनर्तकी बोली-'महाराज, यह फल मुझे आपके महामंत्री के पुत्र ने दिया है। यह फल उसको उसकी प्रेमिका ने दिया था।'
नर्तकी की बात सुनकर राजा विक्रमादित्य का माथा ठनका। उन्होंने महामंत्री के पुत्र को बुलवाया। उसने विक्रमादित्य को बताया कि वह फल महारानी ने उसे दिया था । वह और महारानी...।' इतना कहते-कहते वह रुक गया। यह सुनकर राजा विक्रमादित्य को बड़ा धक्का लगा। तब वह अपनी रानी के पास गए और उससे अमर फल के बारे में पूछा। रानी ने नाटक करते हुए बताया-'महाराज, मैंने तो वह फल आपसे लेते ही खा लिया था।'
यह सुनकर विक्रमादित्य ने वह फल रानी को दिखाते हुए कहा- "झूठ मत बोलो, तुमने वह फल नहीं खाया। यह फल मुझे राजनर्तकी ने दिया है।"
यह सुनकर रानी के होश गुम हो गए। उसकी चोरी पकड़े जाने पर वह भय से थर-थर कांपने लगी। और मूर्च्छित होकर नीचे गिर पड़ी । विक्रमादित्य को इस बात का गहरा सदमा पहुंचा और वह राजपाट त्याग कर जंगल में जाकर साधना करने लगे। इसकी सूचना तुरंत इंद्रदेव को लग गयी। वे उनके परम भक्त थे। इस तरह विक्रमादित्य को जंगल में तपस्या करते देख देवराज इंद्र को उनके राज्य की चिंता हुई। उन्हें लगा कहीं ऎसा न हो कि कोई विक्रमादित्य की अनुपस्थिति का फायदा उठा कर उनके राज्य पर हमला कर दे। यह सोचकर इंद्र ने अपना एक दूत राजा विक्रमादित्य का रुप धर कर उनके राज्य में भेज दिया। कई वर्षों तक तपस्या करने के बाद राजा विक्रमादित्य के मन में आया कि एक बार अपने राज्य में वापस जाकर अपनी प्रजा का हाल देखे। यह विचार कर वह अपनी राजधानी वापस लौट आए। जैसे ही वह अपने महल के द्वार पर पहुंचे देव दूत ने उन्हें रोक कर पूछा-"कौन हो तुम?"
राजा विक्रमादित्य ने कहा-'मैं इस राज्य का राजा विक्रमादित्य हूँ, लेकिन तू कौन है?'
देवदूत बोला-"मैं यहां का राजा अगियाबेताल हूँ।"
यह सुनकर राजा विक्रमादित्य बोले-'अगर तू इस राज्य का राजा है तो मुझे युद्ध में परास्त करके दिखा।'
देवदूत ने राजा विक्रमादित्य की चुनौती स्वीकार कर ली। इस युद्ध में विक्रमादित्य ने देवदूत को पराजित कर दिया। तब पराजित देवदूत ने कहा-'मैं मान गया हूँ महाराज, आप ही राजा विक्रमादित्य हो, क्योंकि मुझे पराजित करना आम मनुष्यों की वश की बात नहीं है। आज से मैं आपके अधीन हूँ। जब भी आपको मेरी आवश्यकता पड़े, मुझे याद कर लेना। मैं फौरन आपके सामने हाजिर हो जाऊंगा लेकिन जाने से पहले मैं आपको एक बात से सावधान करना चाहता हूँ।'
विक्रमादित्य ने पूछा-"ऎसी कौन-सी बात है बेताल?" बेताल बोला-"राजन, तुम्हारा एक दुश्मन तुम्हारे राज्य में आ पहुंचा है। वह आपका पिछले जन्म का शत्रु है। इस समय वह योग और सिद्धि के द्वारा अपनी शक्ति को बढा रहा है और आपको मारने की योजना बना रहा है। अगर उससे पहले आपने उसे मार दिया तो वर्षो तक आप पर कोई विपत्ति नहीं आएगी।" यह कह कर वह देव-दूत आकाश मार्ग से उड़ गया।
राजा विक्रमादित्य के वापस आते ही राज्य में खुशियां मनाई गई। जब विक्रमादित्य ने अपनी रानी के बारे में जानना चाहा तो उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी बेवफा रानी ने आत्महत्या कर ली है। पत्नी को भुलाकर विक्रमादित्य ने पुनः राजपाट संभाला और राज्य का सभी काम सुचारु रुप से चलने लगा। कुछ दिनों के बाद विक्रमादित्य के दरबार में एक योगी आया। उसने राजा को एक फल दिया। उसे हाथ में लेते ही उस फल के दो टुकड़े हो गए। उस फल के दो टुकड़ो के बीच से एक वेशकीमती लाल निकला। राजा विक्रमादित्य ने योगी से उस लाल का कारण पूछा तो उसने बताया-'राजन, यह हमारी संस्कृति है कि राजा, वैद्य और सन्यासी के द्वार पर कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए ।"
यह सुनकर विक्रमादित्य बोले - "योगीराज, मैं इस भेंट के बदले में आपको क्या दूं ?"
योगी ने कहा - "राजन, अगर आप मुझे कुछ देना चाहते हैं तो मेरे निवास पर अकेले आकर मुझसे मिलें ।"
राजा विक्रमादित्य ने योगी को वचन दे दिया । वचन पाकर योगी राजा को अपना पता-ठिकाना बताकर वहां से चल गया । अगले दिन अपने वायदे के अनुसार राजा विक्रमादित्य योगी के निवास स्थान पर पहुंच गए । उस समय योगी एक मंत्र को सिद्ध कर रहा था । राजा विक्रमादित्य के पुछने पर योगी बोला - "राजन मैं जो मंत्र सिद्ध कर रहा हूँ उसे सिद्ध करने मे एक ऎसे शव की आवश्यक्ता पड़ेगी जो यहां से बहुत दूर एक श्माशान पर एक पेड़ पर उल्टा लटका हुआ है । बेताल नामक उस मुर्दे को लाना कोई हंसी खेल नहीं है । अगर आप उस शव को यहां मेरे पास ले आओ तो मेरे ये सिद्धि पूर्ण हो जाएगी ।"
विक्रमादित्य योगी को वचन देकर शव को लाने के लिए श्माशान की ओर चल पड़े । श्मशान मे पहुंच कर विक्रमादित्य ने पेड़ पर उल्टे लटके वेताल को बड़ी मुश्किल से नीचे उतारा और कंधे पर लादकर योगी के पास ले जाने कि कोशिश की लेकि बार-बार उनकी असावधानी का फायदा उठाकर वह उड़ जाता और श्मशान मे उसी पेड़ पर उल्टा लटक जाता । ऎसा चौबीस बार हुआ । हर बार बेताल रास्ते मे विक्रमादित्य को एक कहानी सुनाता । पच्चीसवें दिन बेताल ने राजा विक्रमादित्य से कहा- "राजन, तू मुझे जिसके पास ले जा रहा है वह कपटी और धूर्त है । वास्तव में उसे मेरी नहीं, तेरी जरुरत है क्योकि आज उसकी सिद्धि का अन्तिम दिन है । तू जैसे ही मुझे उसके पास ले जाएगा तो वह देवी के चरणो मे तुझे सिर झुकाने के लिए कहेगा । तभी मौका पाकर वह तेरी गर्दन काटकर देवी मां को बलि चढा देगा और तेरी मौत के बाद उसे सिद्धि मिल जाएगी ।"
बेताल की बात को सुनकर राजा विक्रमादित्य को इंद्रदेव को चेतावनी याद आ गई । उन्होने वेताल को धन्यवाद किया और उसे कंधे पर लादकर योगी के पास चल पड़े । यह देखकर योगी बहुत प्रसन्न हुआ और विक्रमादित्य को देवी के चरणो मे सिर झुकाने को कहा । तब विक्रमादित्य बोले- "योगीराज, मै एक राजा हूँ । मुझे सिर झुकाना नही आता आप मुझे सिर झुकाने की विधि बता दो ।"
योगी ने जैसे ही विधि बताने के लिए अपना सिर देवी के चरणो मे झुकाया, विक्रमादित्य ने तलवार से उसकी गर्दन धड़ से अलग कर दी । देवी बली पाकर बहुत प्रसन्न हुई । उन्होने विक्रमादित्य को दो बेताल सेवक दिए और कहा - "विक्रमादित्य जब भी तुम इन्हे याद करोगे ये तुम्हारी सेवा मे उपस्थित हो जाएगें ।"
राजा विक्रमादित्य की तीक्ष्ण बुद्धि से प्रसन्न होकर देवताओ ने भी पुष्प वर्षा की । विक्रमादित्य देवी का आशीर्वाद पाकर अपने महल को वापस लौट आए । यह कथा सुनाकर पुतली बोली - "राजा भोज यह थी विक्रमादित्य की शौर्य गाथा । अब तुम खुद निर्णय करो अगर तुममे राजा विक्रमादित्य जैसे गुण है तो तुम इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो अन्यथा नहीं ।''
यह कहकर दूसरी पुतली भी वहां से अदृश्य होकर सिंहासन पर जाकर अपने स्थान में समा गई। राजा भोज को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। इसलिए उन्होंने दूसरे दिन भी सिंहासन पर बैठने का विचार त्याग दिया और वापस अपने शयनकक्ष में लेट गए।