तीसरे दिन राजा भोज ने राजदरबार में उपस्थित गणमान्य व्यक्तियों के समक्ष जैसे ही सिंहासन पर बैठने के लिए अपने कदम आगे बढाए तभी सिंहासन से चंद्रकला नाम की तीसरी पुतली प्रकट होकर उनके सामने आ खड़ी हुई और उनका रास्ता रोकते हुए बोली-'अपने शारीरिक लक्षणों या सुन्दरता से ही कोई महान नहीं होता, राजा भोज! कर्म और ज्ञान की उपलब्धि भी जरूरी होती है।
तुम राजा तो हो ही लेकिन इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी तभी होंगे जब तुम्हें अपने कर्म और ज्ञान के बारे में पूरी जानकारी हो।
मैं तुमसे यही कहना चाहता हूँ कि पहले अपने को इस योग्य बना लो।
तुम्हें यदि मेरी बात का विश्वास नहीं है, तो सुनो मैं तुम्हें आंखो देखी एक कथा सुनाती हूं।"
यह कहकर पुतली ने कथा सुनानी आरंभ कर दी'-
एक बार विक्रमादित्य के सैनिक एक साधारण-सी वेशभूषा वाले एक युवक को पकड़ कर राजदरबार में ले आए।
वह युवक रात में बहुत सारे धन के साथ संदिग्ध हालत में कहीं जा रहा था।
उसकी वेशभूषा से नहीं लग रहा था कि वह इस धन का मालिक है।
इसलिए सैनिकों को लगा शायद यह कोई चोर है और चोरी के धन के साथ कहीं चंपत होने की फिराक में है। यहीं सोचकर वे उसे राजा के पास ले आये थे।
विक्रमादित्य ने उस युवक से पूछा-"तुम कौन हो और इतना सारा धन तुम्हारे पास कहां से आया?"
युवक बोला-"महाराज, मैं एक धनाढ्य स्त्री के यहां नौकरी करता हूँ। यह सारा धन उसी ने मुझे दिया है।' यह सुनकर विक्रमादित्य की जिज्ञासा बढ गई। उन्होंने कहा- "उस स्त्री ने यह धन तुम्हें क्यों दिया है और इसे लेकर तुम कहां जा रहे हो?"
युवक बोला-'महाराज, उस स्त्री ने मुझे धन देकर अमुक जगह प्रतीक्षा करने को कहा था। दरअसल बात यह है कि मेरा उस स्त्री के साथ अनैतिक संबंध है। उसने मुझसे कहा कि मैं अपने पति की हत्या करके जल्दी ही तुमसे मिलूंगी। फिर दोनों सारा धन लेकर कहीं दूर चले जाएंगे और आराम की जिंदगी व्यतीत करेंगे।"
यह सुनकर विक्रमादित्य ने युवक की बातों की सत्यता जानने के लिए तुरंत उसके बताये पते पर अपने सैनिको को भेज दिया। सैनिकों ने आकर राजा को खबर दी कि उस कुलटा स्त्री को इस युवक के पकड़े जाने की खबर मिल चुकी है। अब वह इस बात के लिए विलाप करते हुए लोगों से सहानुभूति प्राप्त कर रही है कि लुटेरों ने सारा धन लूटकर उसके पति की हत्या कर दी है। अब वह अपने पति की चिता पर खुद को पतिव्रता साबित करन के लिए सती होने की योजना बना रही है।
यह सुनकर विक्रमादित्य को त्रिया-चरित्र पर बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने उस युवक को कारागार भेजने की बजाय अपने ही महल में रख लिया अगले दिन सुबह विक्रमादित्य अपने कुछ सैनिकों व उस युवक को लेकर उस स्त्री के घर पहुंचे। वहां का दृश्य देखकर विक्रमादित्य चकित रह गए। वह स्त्री अपने पति की चिता पर बैठ चुकी थी और चिता को अग्नि लगने वाली ही थी कि तभी विक्रमादित्य ने चिता में अग्नि देने वाले ब्राह्मण को रोक लिया और बंदी बनाए गए युवक के साथ आगे बढ कर स्त्री से बोले-"इस युवक को पहचानो।" फिर उन्होंने धन की थैली उसे दिखाते हुए कहा-"यह युवक इस धन के साथ पकड़ा गया था इसने हमें सब कुछ बता दिया है। अब चिता से नीचे उतरो और सजा पाने के लिए तैयार हो जाओ।'
यह सुनकर स्त्री कुछ क्षणों के लिए भयभीत हो गई लेकिन दूसरे ही पल उसने निडरता से कहा-"महाराज! मेरे चरित्र पर उंगली उठाने से पहले अपनी छोटी रानी के चरित्र की जांच कर लो।" इतना कह कर वह बिजली की सी फुर्ती से चिता में कूदी और ब्राह्मण के हाथ से जलती हुई लकड़ी छीन कर चिता में आग लगा ली और स्वयं चिता में कूद कर सती हो गई।
उस स्त्री की ऎसी करतूत देखकर विक्रमादित्य एकदम स्तब्ध रह गए।
उन्होंने सोचा अब उसे राजदण्ड तो दिया नहीं जा सकता, इसलिए वे अपने सैनिकों सहित वापस अपने महल लौट आए। महल में आकर वे अपने शयन कक्ष में लेट गए। उस स्त्री का कथन बार-बार उनके दिमाग में कौंध रहा था। उन्हें नींद नहीं आ रही थी। उन्हें बेचैनी हो रही थी।
उन्होंने रानी पर निगाह रखनी आरंभ कर दी। उन्होंने उसी रात देखा कि आधी रात के बाद उन्हें सोता हुआ समझ कर छोटी रानी उठी और महल के चोर दरवाजे से बाहर जाने लगी।
विक्रमादित्य भी दबे पांव उसका पीछा करने लगे। कुछ दूर चल कर रानी एक योगी के पास जाकर रुक गई जो धूनी रमाए बैठा था। रानी को देखते ही योगी उठ कर कुटिया के अंदर चला गया।
रानी भी पीछे-पीछे उसकी कुटीया में चली गई।
इस घटना से उनके मन को बेहद धक्का लगा। उनकी मानसिक शांति जा चुकी थी। वे हर समय बेचैन व खिन्न रहने लगे। सांसारिक सुखों से उनका मन उचाट हो गया तथा मन में वैराग्य की भावना ने जन्म ले लिया।
उन्होंने मन ही मन सोचा कि उनके धर्म-कर्म में कोई कमी रह गई है जिस कारण उनको अपनी छोटी रानी के छल और विश्वासघात को अपनी आंखों से देखना पड़ा।
उन्होंने राजपाट का भार अपने मंत्रियों को सौंप दिया और समुद्रतट पर तपस्या करने चल पड़े।
समुद्र तट पर पहुंच कर उन्होंने विनती के स्वर में कहा-"हे समुद्र देवता! मैं आपके तट पर कुटिया बनाकर तपस्या करना चाहता हूँ।
आप मुझे आशीर्वाद दें कि मेरी तपस्या में किसी भी प्रकार का कोई विघ्न उत्पन्न न हो।' विक्रमादित्य के विनती भरे शब्द सुनकर समुद्र देवता बहुत प्रसन्न हुए।
उन्होंने विक्रमादित्य को एक शंख देते हुए कहा-"विक्रमादित्य! मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।
मैं तुम्हें यह शंख दे रहा हूँ। जब भी तुम पर कोई विपत्ति आएगी, इस शंख की ध्वनि से दूर हो जाएगी।" समुद्र देवता से उपहार लेकर विक्रमादित्य ने वहीं समुद्र के किनारे एक कुटिया बनाई और वहां बैठकर साधना लगे। साधना करते-करते समय बीत गया। उनकी साधना इतनी कठिन थी कि देवलोक में हड़कम्प मच गया।
देवराज इंद्र ने महसूस किया कि यदि विक्रमादित्य इसी प्रकार साधना में लीन रहे तो वे उनके सिंहासन पर अधिकार कर लेंगे।
यह सोचकर देवराज इंद्र ने अपने सेवकों को बुलाकर आदेश दिया-"जाओ और विक्रमादित्य के साधना-स्थल पर इतनी वर्षा करो कि वह स्थान पूरी तरह जलमग्न हो जाए।"
आदेश पाते ही इंद्र के सेवक मेघों ने विक्रमादित्य के साधना-स्थल पर इतने जोरों की वर्षा की कि हर ओर जल ही जल नजर आने लगा।
लेकिन विक्रमादित्य की कुटिया के आस-पास बिल्कुल सूखा था। क्योंकि समुद्र देवता उन्हें निर्विघ्न साधना करने का वचन दे चुके थे। उनके पास का सम्पूर्ण जल वे अपने आप में समाते चले गए। यह अद्भुत दृश्य देखकर इंद्र की चिन्ता और बढ गई।
उन्होंने अपने सेवकों को बुलाकर आंधी-तूफान का सहारा लेने का आदेश दिया। आदेश पाते ही सेवकों ने विक्रमादित्य की कुटिया पर भयंकर आंधी तूफान से आक्रमण कर दिया।
कुटिया एक ही झटके में हवा में उड़कर तिनके-तिनके होकर बिखर गई। तूफान पूरे वेग से विक्रमादित्य को हवा में उड़ा लेना चाहता था। तभी विक्रमादित्य को समुद्र देवता द्वारा दिया गया शंख याद आ गया। उन्होंने जोर से शंख को फूंका। शंख से एक तेज ध्वनि के साथ ही आंधी-तूफान बंद हो गया।
वहां ऎसी शांति छा गई मानो कभी आंधी आई ही न हो। अब तो इंद्रदेव और भी चिंतित हो गए। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि विक्रमादित्य की साधना कैसे रोकी जाए। तभी उन्हें तिलोत्तमा अप्सरा की याद आई।
वह अनुपम सुन्दरी थी। उन्होंने सोचा अब तिलोत्तमा ही विक्रमादित्य को अपने प्रेम जाल में फंसा कर उनकी तपस्या भंग कर सकती है। उन्होंने तिलोत्तमा को बुलाया और उससे कहा-"पृथ्वी लोक का यशस्वी राजा विक्रमादित्य अपनी अखण्ड साधना से हमारा राज सिंहासन छीनना चाहता है।
तुम जाकर उनकी तपस्या भंग करो।" तिलोत्तमा का रुप देखकर कोई भी कामदेव के वाणों से घायल हुए बिना नहीं रह सकता था।
साधना स्थल पर उतरते ही उसने मनमोहक गायन और नृत्य द्वारा विक्रमादित्य की साधना में विघ्न डालने की कोशिश की। यह देखकर विक्रमादित्य ने शंख में फूंकमारी।
शंख की ध्वनि फूटते ही तिलोत्तमा को ऎसा महसूस हुआ मानों उसके शरीर को भीषण लपटों ने छू लिया हो। वह घबराकर वहां से भाग गई और इंद्रदेव को सारी बात बता दी।
अपनी सारी योजनाएं फेल होते देख इंद्रदेव ने अब स्वयं विक्रमादित्य की साधना भंग करने का निश्चय किया ।
वे एक व्राह्मण के वेश में विक्रमादित्य के पास पहुंचे ।
वे जानते थे कि विक्रमादित्य याचकों कॊ कभी निराश नहीं करते तथा सामर्थ्यनुसार दान देते हैं । उन्होंने विक्रमादित्य से दान की याचना की ।
विक्रमादित्य ने आंखें खोलीं और पूछा- "हुक्म करो ब्राह्मण देवता! आपको क्या चाहिए? जो मांगोगे अवश्य दूंगा।" इंद्ररुपी ब्राह्मण बोला- "महराज, अगर आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो अपनी सारी साधना का फल मुझे दे दें ।
यह सुनकर विक्रमादित्य ने प्रसन्न होकर कहा- "ब्राह्मण देवता, मैं अपनी साधना का सम्पूर्ण फल आपको अर्पित करता हूँ। " इंद्र को और क्या चाहिए था । उन्हें अभयदान मिल गया था ।
उन्होंने तुरंत ब्राह्मण का वेश त्यागकर अपने वास्तविक रुप में आकर विक्रमादित्य को आशीर्वाद देते हुए कहा- "विक्रमादित्य! मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि तुम्हारे राज्य में अतिबृष्टि और अनावृष्टि नहीं होगी।
कभी तुम्हारे राज्य में सूखा नहीं पड़ेगा।" यह आशीर्वाद देकर देवराज इंद्र अंतर्ध्यान हो गए।'
यह कथा सुनाकर पुतली बोली-"सुना तुमने राजा भोज, ऎसे दानी और तपस्वी थे हमारे राजा विक्रमादित्य। उन्होंने अपनी तप और तपस्या से इंद्र का सिंहासन भी हिला दिया था और अंत में इंद्र को अपनी तपस्या का सारा फल भी दे दिया था।
क्या तुमने कभी इतनी उदारता से अपनी साधना का फल किसी को दान में दिया है? अच्छी तरह सोच- विचार कर लो, यदि हां तो तुम इस सिंहासन पर बैठ सकते हो अन्यथा नहीं।"
यह कहकर पुतली अदृश्य होकर सिंहासन पर अपने स्थान पर समा गई।
पुतली के इस प्रश्न का राजा भोज के पास कोई जवाब नहीं था।
इसलिए वह उस दिन भी उदास होकर अपने महल में लौट आए।