सातवें दिन जैसे ही राजा भोज ने सिंहासन पर बैठने के लिए अपना दांया पैर बढ़ाया तभी सिंहासन से प्रकट होकर सातवीं पुतली ने राजा भोज के बढते कदम को रोकते हुए कहा - ठहरो राजा भोज ! सिंहासन पर बैठने से पहले मैं तुम्हे राजा विक्रमादित्य के ज्ञानियों के सम्मान की एक कथा सुनाती हूँ । कथा सुनकर तुम खुद निर्णय करना कि क्या तुममे राजा विक्रमादित्यजैसे गुण हैं?
यह सुनकर राजा भोज ने अपने कदम पीछे हटा लिए और चुपचाप एक स्थान पर बैठ गए । तब पुतली ने कथा सुनानी आरंभ की - राजा विक्रमादित्य ज्ञानियो का बहुत सम्मान करते थे । चापलूसी जैसे दुर्गुण की उनके यहाँ कद्र नही थी । उनके राज्य मे शिवदत्त नाम का एक मेधावी और सर्वकला मे पारंगत युवक था । वह कला पारखी भी था । संसार का कोइ भी विषय शायद ही उससे अछूता था । इस कारण वह जहां भी जाता था, आदर सम्मान पाता था लेकिन कुछ समय बाद स्पष्टवादिता के कारण निकाल दिया जाता था । वह कभी एक जगह टिक कर काम नही कर पाता था ।
अंत मे निराश होकर उसने राजा विक्रमादित्य के राज दरबार मे जाने का निर्णय लिया । वह इस बात को सुन चुका था कि विक्रमादित्य ज्ञानियों का बहुत सम्मान करते हैं एक दिन उसके दरबार मे जा पहुंचा । उस समय दरबार मे महफिल सजी हुई थी और संगीत का दौर चल रहा था । द्वार पर पहुचकर उसने द्वारपाल से कहा- मुझे राजा विक्रमादित्य से मिलना है ।
द्वारपाल बोला - अभी आपको कुछ देर प्रतिक्षा करनी पड़ेगी । दरबार मे संगीत का कार्यक्रम चल रहा है । यह सुनकर शिवदत्त वहीं प्रतिक्षा करने लगा । काफी देर प्रतिक्षा करने के बाद शिवदत्त से रहा नहीं गया । वह अचानक उठा और क्रोधित होकर बोला - कैसे मुर्ख और अज्ञानी लोग हैं यहां । संगीत का आनंद उठा रहे हैं , मगर संगीत का जरा भी ज्ञान नही है । साजिन्दा गलत राग बजाए जा रहा है लेकिन कोई भी उसे मना नहीं कर रहा है । यह सुनकर द्वारपाल चौंक गया । उसने उसे घूरकर देखा और डांटते हुए बोला - क्या अनाप-सनाप बक रहा है तू । महफिल मे हमारे राजा भी बैठे हुए हैं । तुम उसके सम्मान मे भी अपशब्द कह रहे हो ।
शिवदत्त बोला - मैं बक नही रहा , सत्य कह रहा हूं । इस सभा मे एक भी कला का पारखी नही बैठा है, सभी मुर्ख हैं ।
द्वारपाल कड़ककर बोला - बकवास मत करो नही तो तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा । हमारे राजा विक्रमादित्य के बराबर कला के पारखी दूसरा कोई नही है ।
द्वारपाल की बात सुनकर शिवदत्त तमतमा कर बोला - खाक कला के पारखी हैं । साजिन्दे का दोष तो पकड़ नहीं पा रहे हैं । सोलह साजिन्दे चार-चार टुकड़ी में बैठे हैं । पूर्व दिशा मे जो टुकड़ी बैठी हुई है । उसी मे एक साजिन्दा दोषपूर्ण वादन कर रहा है ।
यह सुनकर द्वारपाल को बड़ा आश्चर्य हुआ वह उसे हैरानी से देखने लगा । वह सोचने लगा जिस स्थान पर खड़ा है वहां से महफिल की एक झलक भी नहीं दिखाई पड़ रही है । बिना एक झलक देखे, मात्र सुनाई देते संगीत की स्वर लहरी के आधार पर इसने कैसे इस बात को कह दिया । यह सोचकर द्वारपाल ने उससे कहा- "अगर तुम्हारी बात गलत सिद्ध हुई तो तुम्हें राजदण्ड भोगना पड़ेगा ।"
शिवदत्त बोला- "राजदण्ड कैसे पाऊंगा । मैं जो कह रहा हूँ वह बिल्कुल ठीक है।"
"ठीक है, अगर तेरी बात सही है तो मैं अभी महाराज को बता कर आता हूँ।" यह कहकर द्वारपाल राजदरबार में गया और सारी बात राजा विक्रमादित्य को बता दी । विक्रमादित्य ने फौरन उस युवक को राजदरबार में हाजिर होने का आदेश दिया । द्वारपाल शिवदत्त को महाफिल में ले गया । विक्रमादित्य ने महाफिल स्थगित कर दी और उस युवक से पूछा-"क्यो क्या बोल रहे थे तुम?"
शिवदत्त ने कहा- "महाराज, मैंने जो कहा अपने ज्ञान के आधार पर कहा। आपकी महफिल में एक तबला वादक का अंगूठा दोषपूर्ण है।"
यह सुनकर विक्रमादित्य ने पूर्व दिशा में बैठे सारे वादकों की उंगलियों का निरीक्षण करवाया तो सचमुच एक वादक के अंगूठे का ऊपरी भाग कटा हुआ था और उसने उस पर पतली खाल चढा रखी थी। यह देखकर विक्रमादित्य उस युवक के संगीत ज्ञान के कायल हो गए। उन्होंने उस युवक से उसका परिचय पूछा उसका परिचय सुनकर विक्रमादित्य उस पर बहुत प्रसन्न हुए और उसे अपने दरबार में उचित सम्मान देकर रख लिया। एक दिन राजदरबार में एक अत्यंत रुपवती नर्तकी आई। उसके नृत्य का आयोजन किया गया। महफिल सज गई। उस महफिल में शिवदत्त भी था। वह उस नर्तकी पर मोहित हो गया। नृत्य करते-करते न जाने एक भंवरा कहां से आकर नर्तकी के वक्ष स्थल पर बैठ गया। यह देख नर्तकी घबरा गई लेकिन उसने अपना नृत्य जारी रखा। नृत्य करते-करते उसने पूरी सांस खींच कर अपनी नाक से इस प्रकार छोड़ी कि भंवरा उड़ गया।शिवदत्त के अलावा अन्य कोई भी इस बात को न देख पाया। तभी अचानक शिवदत्त उठ खड़ा हुआ और बोला-'वाह! वाह! यह कहकर उसने अपने गले में पड़ी मोतियों की माला उतारकर नर्तकी के गले में डाल दी। यह देख कर सारे दरबारी स्तब्ध रह गए। यह बात महफिल के अनुशासन के विरुद्ध थी। राजा की उपस्थिति में दरबार में किसी और के द्वारा कोई पुरस्कार दिया जाना राजा का अपमान माना जाता था। शिवदत्त की आशिष्टता और धृष्टता देखकर विक्रमादित्य क्रोधित होकर बोले-"शिवदत्त, तुमने पहले इस नर्तकी को उपहार देने की हिम्मत कैसे की?"
शिवदत्त हाथ जोड़कर बोला-"महाराज, यदि मैं ऎसा न करता तो नर्तकी की नृत्य कला का सम्मान अधूरा रह जाता। मैंने जो बात देखी वह न तो आप देख सके, न ही अन्य दरबारी।" यह कहकर उसने विक्रमादित्य को भौंरे वाली सारी घटना बता कर कहा-"महाराज, बगैर एक भी लय ताल तोड़े, नर्तकी ने जिस बुद्धिमत्ता से भंवरा उड़ाया, वह इसकी कला का परिचायक है, उसकी इस कला का पुरस्कार मिलना ही चाहिए था।"
शिवदत्त की बात सुनकर विक्रमादित्य ने नर्तकी से पूछा तो नर्तक ने शिवदत्त की बातों का समर्थन किया। यह सुनकर विक्रमादित्य का क्रोध शांत हो गया। अब उनकी नजर में शिवदत्त का महत्व और बढ गया। उन्होंने शिवदत्त और नर्तकी को एक-एक लाख स्वर्ण मुद्राएं ईनाम में दी और शिवदत्त को अपने राजदरबार में एक विशेष पद पर नियुक्त कर दिया। जब भी विक्रमादित्य को कोई भी समाधान ढूंढना होता तो वे शिवदत्त की बातों को ध्यान से सुनते थे तथा उसके परामर्श पर गंभीरता पूर्वक निर्णय लेते थे।" यह कहानी सुनाने के बाद पुतली बोली-"सुना राजा भोज! ऎसे थे हमारे महाराज। वे गुणी व्यक्तियों की बात बड़े ध्यानपूर्वक सुनते थे और उसे सत्य की कसौटी पर कस कर देखते थे। जैसे तबला वादक के बारे में उन्होंने शिवदत्त का कथन कसकर देखा था। अगर तुममें ऎसे गुण हैं तो तुम सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो अन्यथा नहीं। यह कहकर पुतली अदृश्य होकर अपने स्थान पर समा गई। पुतली के प्रश्न पर निरुत्तर होकर राजा भोज उस दिन भी निराश होकर अपने महल में लौट आए।