पांचवे दिन राजा भोज सिंहासन के निकट पहुंचे तो सिंहासन से लीलावती नाम की पांचवी पुतली प्रकट हुई और उन्हें रोकती हुई बोली-'ठहरो राजा भोज! पहले मेरे मुख से इस सिंहासन के स्वामी राजा विक्रमादित्य के न्याय और दान की कथा सुनो। उसे सुनने के बाद ही तुम इस सिंहासन पर बैठने का निर्णय ले सकते हो।" पुतली ने राजा भोज को यह कथा सुनाई-
राजा विक्रमादित्य को शिकार खेलने का बहुत शौक था। एक बार वे शिकार खेलने जंगल में गए। शिकार की तलाश में वे इधर-उधर भागने लगे। तभी उनकी नजर एक हिरण पर पड़ी। उन्होंने हिरण के पीछे अपना घोड़ा दौड़ा दिया । तभी अचानक दौड़ते घोड़े पर एक हिंसक शेर ने हमला कर दिया । घोड़ा घायल होकर गिर पड़ा उसके साथ ही विक्रमादित्य भी नीचे गिर पड़े लेकिन वे फुर्ती से उठे और अपनी तलवार से शेर पर वार कर दिया । शेर जख्मी होकर दहाड़ता हुआ वहाँ से भाग गया । विक्रमादित्य ने काफी दूर तक शेर का पीछा किया लेकिन घायल शेर उनकी आंखो से ओझल हो गया ।
अब विक्रमादित्य को अपने घोड़े की चिन्ता हुई । वे घोड़े के पास वापस आए । घोड़ा काफी जख्मी हो गए था । उसके शरीर से काफी खून बह चुका था । उन्होने घोड़े को सहलाया और उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे । भूख प्यास से उनका बुरा हाल था । पानी की तलाश करते-करते वे नदी तट पर पहुंच गये । तभी उन्हे नदी की धारा मे एक कोलाहल सुनाई दिया उन्होने उस दिशा मे दृष्टि दौड़ाई तो दो लोगों को झगड़ते देखा । जल मे किसी मानव का शव तैर रहा था, जिसे एक ओर से एक ने पकड़ रखा था, दूसरी ओर से दूसरे ने । उनमे से एक योगी था दूसरा राक्षस ।
योगी राक्षस से कह रहा था - "मूर्ख, छोड़ दे इस शव को । मैं इसकी बली देकर तंत्र साधना करूंगा ।"
राक्षस बोला-"नहीं, इस शव को मैंने पहले देखा है। इसे मैं तुम्हें नहीं दे सकता। इस पर मेरा अधिकार है। इसे खाकर मैं अपनी भूख मिटाऊंगा।"
दोनों आपस में रह-रहकर उलझ रहे थे, लेकिन दोनों में किसी तरह भी समझौता होता नहीं दिख पड़ रहा था। उन दोनों का झगड़ा देख कर विक्रमादित्य की उत्सुकता बढ गई। वे उनके पास गए और बोले-'तुम दोनों इस शव के लिए आपस में क्यों झगड़ रहे हो?"
योगी ने विक्रमादित्य की तरफ देखा और उनसे निवेदन किया- आप बड़े तेजस्वी जान पड़ते हैं । अगर आप हम दोनो के विवाद का निपटारा कर दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी ।
विक्रमादित्य बोले - ठीक है, मैं तुम दोनो के विवाद का निपटारा कर दूंगा , लेकिन यह तो बताओ, तुम दोनो मे विवाद किस बात के लिए है ?
दोनो ने अपनी-अपनी बात विक्रमादित्य को बता दी । दोनो की बात सूनकर विक्रमादित्य बोले - ठीक है मैं तुम दोनो का न्याय करुंगा, लेकिन न्याय का शुल्क मैं तुम दोनो से लूंगा, तभी मैं न्याय करूंगा ।
विक्रमादित्य की बात सुनकर योगी ने अपने थैले से वटुआ निकाला और विक्रमादित्य को देते हुए बोला - यह बटुआ मुझे एक सिद्धि से प्राप्त हुआ है, यह बड़ा चमत्कारी है । इससे आप जो भी मांगोगे वह मिल जाएगा । यह कभी खाली नही होगा ।
विक्रमादित्य ने वह वटुआ ले लिया । तब राक्षस ने एक मोहिनी काष्ट का टुकड़ा विक्रमादित्य को देते हुए कहा - इसे घिसकर तिलक करने से आदमी अदृश्य हो जाता है अगर शत्रुओ के बीच इसका तिलक करके जाए तो सारे शत्रुओ की गर्दन उड़ा डाले तब भी को देख न सके ।
विक्रमादित्य ने बटुआ और मोहिनी तिलक अपने पास रख ली फिर उन्होने राक्षस से कहा - तुम दोनो व्यर्थ ही आपस मे झगड़ रहे हो। शव एक है और तुम दो । योगी की आवश्यक्ता यह है कि वह शव से अपनी यंत्र-साधना की सिद्धि करेगा । फिर कुछ देर रुक कर उन्होने कहा - तुम्हारी भूख तो किसी मुर्दा पशु का मांस खाने से भी मिट सकती है । अगर मै तुम्हारे लिए मानव शरीर से भी बड़ी चीज भोजन के लिए ला दूं तो क्या तुम इस शव पर अपना अधिकार छोड़ दोगे ?
यह सुनकर राक्षस ने उच्च स्वर मे कहा - अवश्य क्यों नहीं, मुझे तो अपनी भूख शांत करनी है ।
विक्रमादित्य बोले - ठीक है । यह कहकर उन्होने अपने घोड़े की ओर इशारा किया । इशारा पाते ही राक्षस घोड़े के पास गया और उसे खाने लगा । तब विक्रमादित्य ने योगी से कहा - योगीराज तुम्हारी तंत्र-साधना निश्चय ही राक्षस की भूख से अधीक महत्वपूर्ण है । तुम इस शव को ले जाओ और अपनी मंत्र साधना करो ।
इस प्रकार दोनो का फैसला करके विक्रमादित्य पैदल ही अपने महल की ओर चल पड़े अंधेरी रात, जंगली रास्ते मे कंकड़-पत्थर , कंटीली झाड़ियां लेकिन इन सबसे वे निर्भीक चलते रहे । सवेरे होते ही वे अपनी राजधानी पहुंच गए । तभी नगर की ओर से एक भिखारी आ रहा था । वह बहुत दुखी था । विक्रमादित्य को देखकर उसने उसे आदर से प्रणाम किया । विक्रमादित्य ने पूछा - तुम कौन हो, और सवेरे-सवेरे कहां जा रहे हो ?
वृद्ध ने कहा - महाराज, मैं उज्जैन नगरी का एक गरीब नागरिक हूँ । आज मेरी कन्या का विवाह है, लेकिन कन्या को देने के लिए मेरे पास कुछ नही है । अतः मैं भिक्षा मांगने जा रहा हूँ । भिक्षा मे जो कुछ मिलेगा, उसी से मैं अपनी कन्या का विवाह करुंगा ।
यह सुनकर विक्रमादित्य को भिखारी पर दया आ गई । उन्होने योगी का दिया हुआ बटुआ निकाल कर उस वृद्ध भिखारी को दे दिया और कहा- बाबा तुम इस बटुए से चाहे जितना धन , जितनी बार चाहो निकाल सकते हो । यह कभी खाली नही होगा ।
वृद्ध भिखारी बटुआ पाकर बहुत प्रशन्न हुआ और विक्रमादित्य को आशीर्वाद देता हुआ वहां से चला गया ।
इतनी कथा सुनकर पुतली बोली - सुना तुमने राजा भोज , ऎसे दानी और न्यायी थे महाराज विक्रमादित्य । क्या कभी तुमने ऎसा दान और न्याय किया है । अगर हां तो तुम इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो अन्यथा नही । यह कहकर पुतली सिंहासन पर अपने स्थान पर समा गई । पुतली की कथा सुनकर राजा भोज निराश होकर अपने महल मे लौट आए ।