अगले दिन प्रातः उठते ही राजा भोज को देवताओं के सिंहासन पर विरामान होने का लोभ सताने लगा । वे राजसी पोशाक धारण करके सिंहासन के पास पहुंचे। अन्य दिनों की तरह उन्होंने जैसे ही सिंहासन पर बैठने के लिए अपने कदम आगे बढाए, सिंहासन से निकल कर छठीं पुतली रविभामा उनके सामने प्रकट होकर बोली-'राजा भोज! तुम इस सिंहासन पर बैठने के लिए जितने लालायित हो, अगर इतना ध्यान तुम विक्रमादित्य के कारनामों को सुनकर अपने व्यवहार को बदलने में लगाते तो सिंहासन स्वयं तुम्हारे पास चलकर आता लेकिन तुम्हें विक्रमादित्य जैसा बनने में कई जन्म लग जाएंगे। खैर, मेरी इस कथा को ध्यान से सुनो। उसके बाद ही निर्णय करना कि तुम इस सिंहासन पर बैठने के काबिल हो कि नहीं।"
पुतली ने राजा को विक्रमादित्य की एक कथा सुनाई- एक बार राजा विक्रमादित्य अपनी राजसभा में बैठे अपने सभासदों से विचार-विमर्श कर रहे थे कि तभी एक ब्राह्मण राजसभा में आया और राजा विक्रमादित्य की जय-जयकार करने लगा। विक्रमादित्य ने ब्राह्मण को प्रणाम करते हुए कहा-"क्या बात है ब्राह्मण श्रेष्ठ! आप मेरी जय-जयकार क्यों कर रहे हैं?"
ब्राह्मण बोला-"महाराज, आप एक प्रतापी पुरूष हैं। मैं चाहता हूं कि आपका प्रताप और अधिक फैले। यदि आप मेरे कहे अनुसार कार्य करें तो आपके प्रताप का सूर्य सारे संसार में चमक उठेगा।"
ब्राह्मण की बात सुनकर विक्रमादित्य बोले-"ब्राह्मण श्रेष्ठ, मुझे इस बात की बिल्कुल इच्छा नहीं है कि मेरे प्रताप का सूर्य सारे संसार में चमके लेकिन फिर भी मैं आपकी प्रसन्नता के लिए आपके कहे अनुसार काम करने के लिए तैयार हूँ। बताइए मुझे क्या करना होगा?"
ब्राह्मण बोला-"राजन् मैंने आपके नाम और यश की गणना करके आपके लिए लग्न मुहूर्त निकाला है, जिसके अनुसार यदि आप तुला लग्न में कोई महल अपने लिए बनवाएं तो वह आपके लिए बहुत सौभाग्यशाली रहेगा। इससे आपकी कीर्ति चारों दिशाओं में और भी बढेगी। उस महल में लक्ष्मी का वास रहेगा, राज्य की जनता धन -धान्य से परिपूर्ण होगी।"
विक्रमादित्य बोले-'ब्राह्मण श्रेष्ठ! यदि ऎसा है तो अपने लिए न सही, मैं जनता के धन-धान्य से परिपूर्ण होने का विचार करके ऎसा महल बनवाऊंगा जो जनता के लिए होगा।" यह कहकर ब्राह्मण को दान-दक्षिणा देकर विदा किया और अपने मंत्री को बुलवाकर तुला-लग्न में सुन्दर महल बनवाने की आज्ञा दी।
राजा विक्रमादित्य की आज्ञानुसार तुला लग्न में महल की नींव डाली गई, पर नींव धरते ही तुला-लग्न बीत गई। काम बंद हो गया। जब फिर तुला-लग्न आई, तो फिर काम शुरू हूआ। इसी तरह तुला-लग्न आने पर काम शुरू होता, और खत्म होने पर काम बंद हो जाता था। तुला-लग्न लगने पर हजारों लाखों मजदूर काम में लग जाते थे। फिर भी महल को तैयार होने में बहुत दिन लग गए, क्योंकि तुला लग्न जब भी आती थी, थोड़े ही समय तक रहती थी।
बहुत दिनों बाद महल बन कर तैयार हुआ। महल क्या था, पूरा इंद्र भवन था। उसमें संगमरमर के पत्थर और सोने चांदी के किवाड़ लगे थे। दीवारॊं में हीरे-जवाहरात लगे थे। सूर्य की किरणों से महल ऎसा चमकता था, मानो पूरा सोने-चांदी का बना हो।
जब महल बनकर पूरी तरह तैयार हो गया तो मंत्री ने राजा विक्रमादित्य से निवेदन किया-'महाराज, महल बन कर तैयार है। अब आप उसमें रहना आरंभ करें।'
विक्रमादित्य एक शुभ मुहूर्त में रहने के लिए महल के भीतर गए। उनके साथ उनका ब्राह्मण पुरोहित भी था। विक्रमादित्य महल को देखकर बहुत प्रसन्न हुए लेकिन पुरोहित के भीतर से आह की सांस निकल पड़ी। यह देखकर विक्रमादित्य ने पुरोहित की ओर देखते हुए पूछा-"पुरोहित जी, इस सुन्दर महल को देखकर आपको भी मेरी तरह प्रसन्न होना चाहिए था लेकिन आपके भीतर से आह की सांस क्यों निकली?'
पुरोहित ने हाथ जोड़कर निवेदन किया-"महाराज, आप और हम दोनों मनुष्य हैं लेकिन एक आपका भाग्य है, जो इतने सुन्दर महल में रहेंगे, और मेरा एक भाग्य है जो मुझे टूटी खाट पर सोना पड़ता है।"
पुरोहित की बात सुनकर विक्रमादित्य ने मन में विचार किया। कुछ देर विचार करने के बाद उन्होंने शीघ्र ही एक सेवक को गंगाजल और तुलसीदल लाने की आज्ञा दी। सेवक जल्दी ही गंगाजल और तुलसीदल ले आया। तब विक्रमादित्य ने गंगाजल और तुलसीदल लेकर कहा-"पुरोहित जी आप दुःखी न हों। मैं यह महल आपको दान कर रहा हूँ। आज से यह महल आपका है।"
यह सुनकर पुरोहित की प्रसन्नता को ठिकाना न था। वह अपने परिवार के साथ उस महल में रहने लगा। आधी रात को अपने शयन कक्ष में पुरोहित गहरी नींद सो रहा था तभी लक्ष्मी ने प्रकट होकर आवाज दी-"पुरोहित तुम तुला लग्न में बने महल के मालिक हो। मैं तुमसे बहुत खुश हूँ। बोलो मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकती हूँ?
यह सुनकर पुरोहित की नींद खुल गई। उसने देखा, उसके सामने एक बूढी औरत खड़ी है। लक्ष्मी बूढी स्त्री के वेश में थी। यह देख पुरोहित डर गया। उसने चादर से अपना मुंह ढक लिया। यह देख लक्ष्मी चली गई। एक-दो घण्टे बाद लक्ष्मी पुनः आई और वही बात दोहराई। इस बार भी पुरोहित डर के मारे थर-थर कांपने लगा। उन्होंने सोचा चूकिं इंसान घर आई लक्ष्मी को ठुकरा रहा है, इसलिए वह रुठ कर वहां से चली गई।
किसी तरह वह रात बीती। सवेरा होते ही पुरोहित अपने परिवार सहित अपनी कुटिया पर आ गया। फिर वह विक्रमादित्य की सेवा में उपस्थित हुआ और हाथ जोड़कर बोला-"महराज, हम उस महल में नहीं रहेंगे। मैं अपनी खुशी से आपके दान को लौटा रहा हूँ।"
पुरोहित की बात सुनकर विक्रमादित्य को बहुत आश्चर्य हुआ । उन्होंने पूछा- "आखिर क्यों? आप इतने सुन्दर महल में क्यों नहीं रहेंगे? क्या परेशानी है आप हमें बताओ ।"
पुरोहित हाथ जोड़कर बोला- "महराज उस महल में भूत रहते हैं । हम उस महल में नहीं रहेंगे ।"
यह सुनकर विक्रमादित्य ने मंत्री को बुलाकर हुक्म दिया- "मंत्री जी, मैंने पुरोहित को जो नया महल दान दिया था, उसने उसे लेने से इनकार कर दिया है वह कहता है उसमे भूत रहते हैं । महल बनबाने में जितना रुपया लगा है, उतना रुपया पुरोहित को दे दिया जाए ।"
पुरोहित को महल की पुरी लागत दे दी गई । अब राजा विक्रमादित्य स्वर्ण महल में आकर निवास करने और अपना राज दरबार लगाने लगे । एक दिन जब राजा विक्रमादित्य अपने नए महल में गहरी नींद में सोए थे कि एक बार फिर लक्ष्मी ने कक्ष को प्रकाश से आलोकित कर अपनी बात रखी। यह देख विक्रमादित्य उठ बैठे। उन्होंने लक्ष्मी का अभिवादन किया और बोले-"आपकी कृपा से मेरे पास सब कुछ है देवी! फिर भी यदि आप धन की वर्षा करना चाहती हैं तो मेरे शयन कक्ष को छोड़कर शेष महल और पूरे राज्य में जहां-जहां नागरिक रहते हों वहां-वहां धन की वर्षा कर दें।"
लक्ष्मी जी ने विक्रमादित्य की इच्छा पूरी की। उनके सम्पूर्ण राज्य में धन वर्षा हुई। राजा विक्रमादित्य के बड़े-बड़े कर्मचारी उनके पास उपस्थित हुए और उन्हें यह खबर सुनाई। विक्रमादित्य ने शांत भाव से कहा-"राज्य में चारों ओर ढिढोरा पिटवा दो, जिसकी सीमा में जितना धन बरषा है वह उसे ले लें कोई किसी दूसरे का धन न लें।
राजा विक्रमादित्य की घोषणा सुनते ही राज्य की जनता में खुशी की लहर छा गई। सब लोग अपनी-अपनी सीमा में बरसे धन को बटोरने लगे कहीं किसी तरह का झगड़ा-फसाद नहीं हुआ। किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं थी। राज्य की सारी जनता विक्रमादित्य को आशीर्वाद एवं धन्यवाद देने लगी लेकिन विक्रमादित्य को यश, वरदान और आशीर्वाद से कोई मतलब नहीं था। उन्हें मतलब था सिर्फ प्रजा की भलाई से। उन्हें प्रजा की भलाई से जितना सुख मिलता था, उतना यश, वरदान और गुणगान से नहीं मिलता था।'
यह कहानी सुनाकर पुतली बोली-"राजा भोज! ऎसॆ थे हमारे महाराजा विक्रमादित्य। अगर तुममें भी ऎसी योग्यता है तो तुम इस सिंहासन पर बैठने के हकदार हो अन्यथा नहीं। " यह कहकर पुतली अदृश्य हो गई।
इस प्रकार आज भी सिंहासन पर बैठने का शुभ मुहूर्त निकल गया और राजा भोज वापस अपने महल में लौट गए।