नौवें दिन राजा भोज सिंहासन पर बैठने ले लिए उद्यत हुए। जैसे ही उन्होंने सिंहासन पर बैठने के लिए अपने कदम आगे बढाए। तभी सिंहासन से मधुमालती नामक नौवीं पुतली उनके सामने प्रकट हो गई और उन्हें रोकते हुए चेतावनी दी-"खबरदार! राजा भोज, आगे मत बढना। पहले मेरी कहानी ध्यान से सुनो उसके बाद ही तुम निर्णय करना।'
पुतली ने राजा भोज को यह कथा सुनाई-"एक बार राजा विक्रमादित्य अपने राजदरबार में बैठे अपने दरबारियों से विचार-विमर्श कर रहे थे कि तभी एक द्वारपाल ने खबर भेजी कि कोई ब्राह्मण उनसे मिलना चाहता है। विक्रमादित्य ने ब्राह्मण को आदरपूर्वक अंदर बुलवाया और उनसे आने का प्रयोजन पूछा-'कहिए ब्राह्मण श्रेष्ठ, आपको क्या चाहिए?"
ब्राह्मण बोला-'महाराज, मैं किसी दान की इच्छा से नहीं आया हूँ बल्कि आपको कुछ बताने आया हूँ।"
यह सुनकर राजा विक्रमादित्य उत्सुकता से बोले-'कहिए, क्या कहना चाहते हैं आप?"
ब्राह्मण बोला-"महाराज, हिमालय की तराई में कमलों का एक तालाब है। उसमें सोने का एक स्तम्भ है। वह सूर्योदय होने पर पानी से ऊपर उठता है। ज्यों-ज्यों सूर्य ऊपर उठता है। त्यों-त्यों वह स्तम्भ भी ऊपर उठता है। इतना ऊपर उठता है कि सूर्य के पास पहुंच जाता है। फिर ज्यों-ज्यों सूर्य ढलने लगता है, स्तम्भ भी घटने लगता है। संध्या होते-होते वह फिर पानी में समा जाता है।'
यह सुनकर राजा के मन में जिज्ञासा हुई कि ब्राह्मण का इससे क्या अभिप्राय है। ब्राह्मण उनकी जिज्ञासा को भांप गया। उसने विक्रमादित्य से कहा- महाराज, मैं भगवान इंद्र का दूत बनकर आपके पास आया हूँ ताकि उनके आत्मविश्वास की रक्षा हो सके। सूर्य देवता को घमण्ड है कि समुद्र देवता को छोड़कर पूरे ब्राह्माण्ड में कोई भी उनकी गर्मी को सहन नहीं कर सकता। देवराज इंद्र उनकी इस बात से सहमत नहीं है। उनका मानना है कि उनकी अनुकम्पा प्राप्त मृत्य लोक का राजा सूर्य की गर्मी की परवाह न करके उनके निकट जा सकता है। वह राजा आप हैं।"
ब्राह्मण की बात सुनकर विक्रमादित्य को सारी बात समझ में आ गई। उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे अपनी जान जोखिम में डाल कर भी सूर्य भगवान के निकट जाकर उन्हें नमस्कार करेंगे तथा देवराज इंद्र के आत्मविश्वास की रक्षा करेंगे। ब्राह्मण को ऎसा वचन देकर राजा विक्रमादित्य ने उन्हें बहुत सा धन देकर विदा किया।
अगले दिन वे मानसरोवर की ओर जाने के इरादे से महल से बाहर आए। उज्जैन नगर की सीमा से बाहर आते ही उन्होंने राजसी पोशाक, साथ आए सेवकों को दे दी, और साधारण वस्त्रों में अकेले चल पड़े। एकांत स्थान पर पहुंचकर उन्होंने मां काली द्वारा दिए गए दोनों बेतालों को याद किया। याद करते ही दोनों बेताल उनके सामने उपस्थित हो गए। उन्होंने विक्रमादित्य से पूछा-'महाराज, आपने हमें क्यों याद किया? कहिए हम आपके लिए कौन सा कार्य करें?"
विक्रमादित्य बोले-'हिमालय की तराई में कमलों का एक सुन्दर सरोवर है। तुम मुझे उस सरोवर के पास पहुचा दो।"
विक्रमादित्य से आदेश पाते ही बेतालों ने उन्हें अपने कंधों पर बिठाया और हिमालय की तराई में कमलों के सरोवर के पास पहुंचा दिया। दोपहर का समय था। सरोवर में रंग-बिरंगे कमल खिले हुए थे। रह-रहकर भौंरे गुंजन कर रहे थे, रह-रहकर सुगंध उठ रहीं थी। सोने का स्तंम्भ ऊपर उठकर सूर्य के पास पहुंच चुका था। विक्रमादित्य उस अनोखे दृश्य को देखकर आश्चर्य में डूब गए। वह टकटकी लगाकर सोने के स्तम्भ की ओर देखने लगे। उन्होंने बड़े आश्चर्य के साथ उस दृश्य को भी देखा, जब सूर्य के ढलने के साथ स्तम्भ भी घटने लगा, और घटते-घटते संध्या समय सरोवर के पानी में समा गया।
दूसरे दिन प्रातः काल सूर्योदय होने पर सोने का स्तम्भ फिर जल के ऊपर उठा। विक्रमादित्य ने बेतालों से कहा-'तुम हमें उस स्तम्भ के ऊपर बिठाकर लौट जाओ। जब जसूरत होगी तब मैं तुम्हें बुला लूंगा।'
बेतालों ने विक्रमादित्य की आज्ञा का पालन किया। वे उन्हें सोने के स्तम्भ के ऊपर बिठाकर लौट गए। सूर्य भगवान धीरे-धीरे ऊपर उठने लगे। उनके ऊपर उठने के साथ ही साथ सोने का स्तम्भ भी ऊपर उठने लगा। ज्यों-ज्यों सोने का स्तम्भ ऊपर उठता गया त्यों-त्यों गर्मी भी बढने लगी। सोने का स्तम्भ जब सूर्य के पास पहुंचा, तो भयानक गर्मी से विक्रमादित्य का शरीर जल गया। वह निष्प्राण हो गए। मध्य दोपहर तक सोने का स्तम्भ सूर्य भगवान के रथ से टकराया। सूर्य भगवान ने अपना रथ रोक दिया। वह रोज दोपहर में, इसी तरह अपना रथ रोक कर स्तम्भ पर बैठ कर खाना खाया करते थे। उस दिन जब सूर्य भगवान अपना रथ रोक कर खाना खाने के लिए सोने के स्तम्भ पर उतरे, तो वहां एक मनुष्य के शव को देखकर आश्चर्य में डूब गए। वे मन ही सोचने लगे, यह मनुष्य इस स्तम्भ पर कैसे आया? यह अवश्य कोई महान तेजस्वी और प्रतापी मनुष्य है, क्योंकि किसी भी साधारण मनुष्य की इस स्तम्भ तक पहुंच नहीं हो सकती। यह सोचकर उनके मन में दया पैदा हो उठी। उन्होंने अपने कमण्डल में से अमृत लेकर विक्रमादित्य पर छिड़क दिया। अमृत की बूंदे पड़ते ही विक्रमादित्य जीवित हो, उठ बैठे। उन्होंने भगवान सूर्य को नमस्कार किया और अपना परिचय दिया। विक्रमादित्य का परिचय जानकर भगवान सूर्य ने मुस्कराकर कहा-'देवराज इंद्र ने जैसा कहा था, मेरे सामने वह बात वैसे ही सत्य होकर आ गई।' यह कहकर उन्होंने अपने कानों से स्वर्ण कुण्डल निकालकर विक्रमादित्य को उपहार स्वरुप भेंट करते हुए कहा-'राजन, जब भी आप इन कुण्डलों को पहनकर राजसिंहासन पर बैठोगे, तो मेरे समान ही प्रकाशवान बनोगे।'यह कहकर सूर्य देवता ने अपना रथ आगे बढा दिया। जैसे ही रथ आगे बढा। स्तम्भ भी घटने लगा। सूर्यास्त के साथ ही स्तम्भ पूरी तरह से नीचे आ गया।
नीचे आते ही विक्रमादित्य ने बेतालों को याद किया । बेतालो ने उन्हे स्तम्भ से उतार कर उसी स्थान पर लाकर छोड़ा, जहां से वे रवाना हुए थे । बेतालो को विदा कर वे अपने गन्तव्य की ओर पैदल ही चल पड़े । अभी वे कुछ ही दूर गये थे कि ब्राह्मण सन्यासी उनके सामने आ खड़ा हुआ और बोला - आपके पास जो कुण्डल है वह मुझे दे दो ।"
यह सुनकर विक्रमादित्य बोले - आपको कैसे पता चला कि मेरे पास कुण्डल है ?
संन्यासी बोला - अपनी योग शक्ति द्वारा मैने पता लगाया कि यह कुण्डल आपको भगवान सूर्य ने दिए हैं और मुझे मालूम है आप उन्हे मुझे दे देंगे । मैने आपकी दान वीरता के बारे मे काफी सुन रखा है ।
विक्रमादित्य ने वह कुण्डल संन्यासी को दे दिए । सन्यासी उन्हे आशीर्वाद देता हुआ चला गया और विक्रमादित्य खाली हाथ वापस अपने महल आ गए । यह कथा सुनाकर पुतली बोली - "राजा भोज, क्या कभी तुमने इस प्रकार कष्ट उठाकर मिली अमुल्य वस्तु को दान मे दिया है ? यदि दिया हो तो तुम इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो ।" यह कहकर पुतली अदृश्य होकर सिंहासन मे समा गई । राजा भोज के पास इस प्रश्न का कोई जबाब नहीं था । इसलिए उस दिन भी वह उस सिंहासन पर नहीं बैठ सके ।