पुतली इंद्रसेना की कथा

ग्यारहवें दिन सोच-विचार के बाद, भाग्य के सहारे खुद को छोड़कर राजा भोज सिंहासन की ओर बढे। उन्होंने सोच लिया कि आज वे हर हाल में सिंहासन में बैठेंगे। उन्होंने सिंहासन की ओर कदम बढाए, तभी अचानक सिंहासन से प्रकट होकर इंद्रसेना नाम की पुतली खिलखिलाती हुई उनके सामने प्रकट हो गई और उनका रास्ता रोकते हुए बोली-'राजा भोज तुम्हारी हिम्मत की मैं प्रशंसा करती हूँ और मैं कामना करती हूँ कि तुम इस सिंहासन पर बैठ सको। मगर क्या करुं, यह सिंहासन ही कुछ इस प्रकार बना है कि जब तक राजा विक्रमादित्य का एक भी गुण तुममें न होगा तब तक इस सिंहासन पर नहीं बैठ सकते। सुनों मैं राजा विक्रमादित्य की एक कथा सुनाती हूँ।' यह कहकर पुतली ने कथा सुनानी आरंभ कर दी-

एक बार राजा विक्रमादित्य अपने शयन कक्ष में गहरी नींद में सोए हुए थे। उन्होंने एक विचित्र सपना देखा। उन्होंने देखा कि वे एक शानदार महल में टहल रहे हैं जिसकी दीवारों पर तरह-तरह के मणि-माणिक्य और वेश कीमती रत्न जड़े हुए हैं। महल मे बड़े-बड़े कमरे है जिनमें सजावट की आलौकिक चीजें हैं। महल के चारों तरफ उद्यान हैं, जिनमें रंग-बिरंगे बिभिन्न प्रकार के फूल खिले हैं उन पर भौंरे गुनगुना रहे हैं। चारों तरफ स्वच्छ और शीतल हवा बह रही हैं। महल से कुछ दुरी पर एक योगी साधना में रत हैं। योगी का चेहरा गौर से देखने पर विक्रमादित्य को वह अपना हमशक्ल मालूम पड़ा। यह सब देखते ही उनकी आंखे खुल गई और वे उठ बैठे ।

अगले दिन उन्होंने सपने की सत्यता जानने का विचार किया। उन्होंने पंडितों और ज्योतिषियों से अपने सपने की चर्चा और उन्हें इसकी व्याख्या करने को कहा। ज्योतिषियों ने गणना करके बताया-'महाराज, ऎसा महल तो पृथ्वी लोक पर नहीं हो सकता। अवश्य ही वह इंद्रदेव का महल है। उस महल में वही प्रवेश कर सकता है जो ईश्वर का सच्चा भक्त हो और हर समय ईश्वर आराधना में निमग्न रहता हो।'

यह सुनकर विक्रमादित्य असमंजस में पड़ गए। वह तो हरदम प्रजा की भलाई और अपने राजकर्मों में ही लगे रहते हैं। उनको ईश्वर का नाम लेने का अवसर ही कहां मिलता है। विक्रमादित्य को सोच-विचारों में डूबा देख महामंत्री उनके मन की बात समझ गया। वह बोला-"महाराज, मैं आपकी चिंता समझ रहा हूँ। आप कृपया राजपुरोहित को अपने साथ ले जाए। वह हर समय भगवान का नाम जपते रहते हैं। उनको साथ रखने पर आप वहां कदाचित प्रवेश कर सकते हैं।

मंत्री की बात से सहमत होकर विक्रमादित्य राजपुरोहित को साथ लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े। ज्योतिषियों के कथन के अनुसार उन्हें यात्रा के दौरान दो पुण्य के काम भी करने थे। अब वह राजा के रुप में नहीं, एक साधारण यात्री के रुप में थे। कई सप्ताह की यात्रा के बाद राजा विक्रमादित्य ने एक बस्ती में डेरा डाला और वहां एक घर में ठहर गए। जिस घर में वे ठहरे थे उस घर में एक बूढी औरत रो रही थी। विक्रमादित्य ने उससे रोने का कारण पूछा तो वह बोली-'मैं बहुत गरीब हूँ। मेरा इकलौता बेटा आज सुबह जंगल में लकड़िया काटने गया था लेकिन अभी तक लौट कर नहीं आया। मुझे डर है कि कोई जंगली जानवर उसे खा न गया हो।'

यह सुनकर विक्रमादित्य बोले-'मां, आप चिंता न करें मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं आपके बेटे को ढूंढ लाउंगा।' यह कहकर विक्रमादित्य उसी रात बुढिया के लड़के की तलाश में जंगल की ओर चल पड़े। जंगल में पहुंच कर उन्होंने बुढिया के लड़के की तलाश शुरू कर दी। काफी खोजबीन के बाद उन्होंने देखा कि बुढिया का लड़का एक पेड़ पर दुबककर बैठा है और पेड़ के नीचे एक शेर घात लगाए बैठा है। उन्होंने शेर को भगा कर बुढिया के लड़के को नीचे उतारा और उसे अपने साथ लाकर बुढिया को सौंप दिया। बुढिया ने उन्हें आशीर्वाद दिया। इस प्रकार बुढिया को चिंतामुक्त करके उन्होंने एक पुण्य का काम किया।

अगले दिन सुबह होते ही पुनः अपनी यात्रा शुरू कर दी। चलते-चलते वे समुद्र तट पर आए तो उन्होंने वहां एक स्त्री को रोते हुए देखा। पास ही एक मालवाहक जहाज खड़ा था और कुछ लोग उस जहाज पर सामान लाद रहे थे। विक्रमादित्य ने उस स्त्री के पास जाकर रोने का कारण पूछा तो वह बोली-"मेरे पति इस जहाज के कर्मचारी हैं। जहाज का माल लेकर दूर देश जा रहे हैं। मैं गर्भवती हूँ। मैंने कल रात को एक सपना देखा कि समुद्र में एक भंयकर तुफान आया और वह जहाज तूफान में फंस कर डूब गया। मैं इसलिए रो रही हूँ कि अगर मेरा सपना सच निकला तो मेरा क्या होगा। मैं खुद तो किसी प्रकार जी लूंगी लेकिन मेरे होने वाले बच्चे की परवरिश कैसे होगी?"

यह सुनकर विक्रमादित्य को उस स्त्री पर तरस आ गया। उन्होंने समुद्र देवता द्वारा प्रदान किया गया शंख उसे देते हुए कहा-"बहन, इस शंख को अपने पति को दे देना और उन्हें कहना कि जब भी तुम पर तूफान या अन्य कोई प्राकृतिक विपदा आए तो इसे फूंक देना। इसकी ध्वनि से उनकी सारी विपदाएं दूर हो जाएंगी।

शंख पाकर वह स्त्री बहुत प्रसन्न हुई। वह विक्रमादित्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने लगी। विक्रमादित्य वहां से पुनः अपनी यात्रा पर निकल पड़े। काफी दूर चलने पर अचानक उन्हें एक स्थान पर रुकना पड़ा। उन्होंने देखा कि आकाश में काली घटाएं छा गई हैं। रह-रहकर आकाश में बिजली चमक रही है। उन बिजलियों के बीच उन्हें एक सफेद घोड़ा जमीन की ओर उतरता दिखा। तभी एक आकाशवाणी उन्हें सुनाई दी-"विक्रमादित्य तुम्हारे जैसा गुणात्मा शायद ही कोई हो। तुमने रास्ते में दो पुण्य किए।मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। मैंने तुम्हारे वाहन हेतु अपना घोड़ा भेज दिया है। तुम उस पर बैठ जाओ वह तुम्हें इंद्रलोक पहुंचा देगा।"

आकाशवाणी सुनकर विक्रमादित्य बोले-"लेकिन मेरे साथ राजपुरोहित भी हैं। उनके लिए भी कोई व्यवस्था करो।"

यह सुनकर राजपुरोहित बोले-'महाराज, मुझे क्षमा करें मैं सशरीर स्वर्ग जाने से डरता हूँ। आपका सानिध्य रहा तो मरने पर स्वर्ग जाऊंगा और अपने को धन्य समझूंगा।"

राजपुरोहित की इच्छा जानकर विक्रमादित्य ने उन्हें वहीं से विदा कर दिया और स्वयं घोड़े पर सवार हो गए। घोड़े ने उन्हें कुछ ही देर में इंद्रपुरी पहुंचा दिया। वहां उन्हें वही स्वर्ग दिखाई दिया, जो उन्होंने सपने में देखा था। चलते-चलते वे इंद्र की सभा में पहुंच गए। इंद्र की सभा में सारे देवता विराजमान थे। विक्रमादित्य को देखते ही सभा में खलबली मच गई। वहां मौजूद सभी देवतागण सोचने लगे कि इंद्रलोक में एक मनुष्य सशरीर कैसे आ गया?

विक्रमादित्य को देखकर देवराज इंद्र खुद उनकी आगवनी करने के लिए आए और उन्हें सिंहासन पर बैठने को कहा लेकिन विक्रमादित्य ने सिंहासन पर बैठने से इनकार कर दिया। उन्होंने मुस्करा कर कहा-"भगवन्, भला मैं आपकी बराबरी कैसे कर सकता हूँ? इतने पुण्य मेरे नहीं हैं-यदि मैं इस सिंहासन पर बैठता हूँ तो मेरा पुण्य क्षीण हो जाएगा।'

यह सुनकर देवराज इंद्र उनकी नम्रता और सरलता से प्रसन्न होकर बोले-'विक्रमादित्य, मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। तुम इस परीक्षा में सफल रहे। तुमने स्वप्न में जिस योगी को यहां देखा था, वह और कॊई नहीं तुम खुद ही थे। तुम्हारा स्थान इस सिंहासन पर न सही लेकिन इंद्रलोक के महल में अवश्य है।" यह कह कर उन्होने विक्रमादित्य को एक मुकुट उपहार स्वरुप भेंट किया।

कुछ दिन इंद्रलोक में बिताकर राजा विक्रमादित्य मुकुट लेकर अपने राज्य लौट पड़े।'

यह कथा सुनकर पुतली बोली-"अब बताओ राजा भोज! क्या तुममें इतनी विनम्रता है कि इंद्र अपना सिंहासन देते तो तुम बैठने से इनकार कर देते? क्या तुमने इस तरह किसी की मदद करके पुण्य प्राप्त किया है? राजा तो प्रजा का सेवक होता है। जो राजा इस प्रकार का होगा, वही इस सिंहासन पर बैठ सकता है। यह सिंहासन उसके लिए ही बना है।'

यह सुनकर राजा भोज बोले-'क्या मुझमें इस सिंहासन पर बैठने की बिल्कुल भी योग्यता नहीं है?"

पुतली बोली-'तुम्हारे इस प्रश्न का मैं क्या उत्तर दे सकती हूँ। यह तो तुम्हें सोचना है कि तुम राजा का धर्म निभा रहे हो या नहीं। यह कहकर पुतली अदृश्य होकर अपने स्थान पर समा गई।

उस दिन भी राजा भोज निराश होकर अपने महल में आकर अपने शयन कक्ष में लेट गए। सारी रात वे सो न सके। किसी भी पुतली के प्रश्न का वे उत्तर न दे पा रहे थे और न ही किसी भी पुतली को संतुष्ट कर पा रहे थे। फिर भी उस सिंहासन पर बैठने की लालसा मिटी नहीं।