पुतली पुष्पवती की कथा

आठवें दिन राजा भोज सिंहासन के निकट पहुंचे ही थे कि आठवीं पुतली अपने स्थान से निकल कर उनके मार्ग में आकर खड़ी हो गई और बोली- "ठहरो, राजा भोज! सिंहासन पर बैठने से पहले मैं अपने स्वामी महाराजा विक्रमादित्य के अद्वितीय पुरुषार्थ और जनकल्याण भावना से भरी कथा सुनाती हूँ। कथा सुनने के बाद ही तुम विचार करना कि तुम इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो या नहीं।"

पुतली ने राजा भोज को विक्रमादित्य की कथा सुनाई-राजा विक्रमादित्य एक अद्भुत कला पारखी थे। उन्हें श्रेष्ठ कलाकृतियों से अपने महल को सजाने का बहुत शौक था। कलाकृतियों का मूल्य आंक कर बेचने वाले को वे मुंह मांगा दाम देते थे।

एक दिन उनके राजदरबार में एक बढई एक सुन्दर काठ का घोड़ा लेकर उपस्थित हुआ जिसकी कारीगरी देखते ही बनती थी। वह एकदम जीवित मालूम पड़ता था। काफी गौर से देखने के बाद ही पता चलता था कि वह काठ का है। यह देख राजा विक्रमादित्य ने बढई से घोड़े की विशेषता के बारे में पूछा। बढई ने कहा-"महाराज, इस घोड़े की खासियत यह है कि यह तीव्र गति से जल-थल और आकाश तीनों में विचरण कर सकता है।'

घोड़े की विलक्षण खूबियां सुनकर राजा विक्रमादित्य उस पर मोहित हो गए। उन्होंने बढई से उसकी कीमत पूछी तो वह बोला-"महाराज, मैं क्या बताऊं। आप तो कला पारखी हैं आप जो भी उचित समझें वह दे देना।'

विक्रमादित्य के कोषाध्यक्ष को एक लाख स्वर्ण मुद्राएं अदा करने का आदेश देकर घोड़ा प्राप्त कर लिया। बढई एक लाख स्वर्ण मुद्राएं लेकर खुशी-खुशी वहां से चला गया। कुछ दिनों बाद राजा का मन शिकार पर जाने का हुआ। उन्होंने कुछ सैनिक साथ लिए और काठ के घोड़े पर सवार होकर चल दिए । वह घोड़ा कल-पुर्जो को दबाने पर संचालित होता था। उसकी तेज रफ्तार पर मुग्ध हुए राजा को इस बात का होश भी नहीं रहा कि घोड़े की तेज रफ्तार उन्हें सैनिकों से बहुत आगे ले आई है । राजा ने सोचा कि अब घोड़े को उड़ाकर देखा जाए । कलपुर्जो को दबाते ही घोड़ा आकाश में उड़ने लगा। वह इतनी तेजी से उड़ रहा था कि राजा को उसे संभालना मुश्किल हो गया था। उन्होंने घोड़े को नीचे उतारने के लिए कलपुर्जे दबाये घोड़ा तेजी से नीचे उतरने लगा । अचानक घोड़े का संतुलन बिगड़ गया और वह एक पेड़ से टकराकर चूरचूर हो गया। राजा तो बच गया लेकिन घोड़े से हाथ धो बैठे।

घोड़ाविहीन राजा विक्रमादित्य जंगल में भटकने लगे। तभी उनकी नजर एक संन्यासी की कुटिया पर पड़ी। वे उधर ही चल पड़े। तभी एक बंदरिया उनके सामने कूदी और अपने हाव-भाव से कुछ बताने की कोशिश करने लगी लेकिन विक्रमादित्य कुछ नहीं समझ पाए। भूख और थकान के कारण उनका बुरा हाल था। वे एक वृक्ष पर चढ गए और उसके फलों को खाकर अपनी भूख शांत की। फिर वे उसी वृक्ष की एक मोटी शाखा का सहारा लेकर विश्राम करने लगे।

कुछ देर बाद उन्होंने देखा कि एक संन्यास उस बंदरिया को इशारा कर अपने साथ कुटिया पर ले गए। यह देख विक्रमादित्य चुपचाप पेड़ से उतरे और दबे पांव कुटिया की ओर चल पड़े। झरोखे से देखने पर विक्रमादित्य ने देखा कि संन्यासी के सामने दो घड़े रखे थे। बंदरिया भी उसके पास बैठी थी। संन्यासी ने एक घड़े में हाथ डालकर चुल्लु भर पानी हाथ में लिया और बंदरिया पर छिड़क दिया। पानी छिड़कते ही वह बंदरिया एक सुन्दर राजकुमारी के रुप में परिवर्तित हो गई। फिर उसने संन्यासी के लिए खाना बनाया और उन्हें खाना खिलाकर उनके हाथ पैर दबाने लगी। कुछ ही देर में संन्यासी सो गया।

राजा विक्रमादित्य यह दृश्य देखकर चकित रह गए। वे विचार करने लगे कि यह कैसा चमत्कार है। इसी सोच विचार में उन्होंने वहीं पर बैठकर सारी रात बिता दी। सुबह होते ही उन्होंने देखा संन्यासी ने दूसरे घड़े में हाथ डालकर चुल्लू भर जल लिया और राजकुमारी पर छिड़क दिया। राजकुमारी फिर से बंदरिया बन गई। फिर संन्यासी बंदरिया को लेकर बाहर आ गया और उसे आजाद करके अपनी राह पर चल पड़ा।

यह दृश्य देखकर विक्रमादित्य के मन में विचार आया कि अवश्य ही यह राजकुमारी अभिशप्त है। इसे अभिशाप से मुक्ति दिलाने का प्रयास करना चाहिए। यह विचार कर वे बंदरिया को पकड़कर संन्यासी की कुटिया पर ले आए और घड़े में से पानी निकाल कर उस पर छिड़क दिया। बंदरिया फिर से राजकुमारी बन गई और हाथ जोड़कर बोली- 'मैं महान यशस्वी राजा विक्रमादित्य का स्वागत करती हूँ।' यह सुनकर विक्रमादित्य बोले-"तुमने कैसे जाना कि मैं विक्रमादित्य हूँ।"

राजकुमारी बोली-"राजन, मैं अपने विषय में आपको बताती हूँ। सुनो-मैं कामदेव और पुष्पवती की संतान कामिनी हूँ। एक बार मैं वन में शिकार करने गई। मैंने एक हिरण का पीछा करते-करते उस पर वाण चला दिया लेकिन वाण हिरण को न लगकर पास ही तपस्या कर रहे संन्यासी की भुजा में जा घुसा। संन्यासी ने क्रोधित होकर मुझे शाप दिया कि मैं आधा समय बंदरिया बनकर और आधा समय एक तपस्वी की सेवा कर अपना जीवन बिताऊंगी।

शाप की बात सुनकर मैं उनके सामने रोई-गिड़गिड़ाई कि यह सब अनजाने में हुआ है तो उन्होंने मुझ पर दया करके शाप से मुक्ति का रास्ता बताया। उन्होंने कहा कि राजा विक्रमादित्य आकर तुम्हें शाप से मुक्ति दिलाएंगे तथा तुम्हारा पत्नी के रुप में वरण करेंगे लेकिन जब तक संन्यासी तुम्हें कोई उपहार न दें तब तक मेरे शाप से मुक्ति नहीं मिलेगी। इसलिए मैं आपको देखते ही पहचान गई थी कि आप ही राजा विक्रमादित्य हैं और मुझे शाप से मुक्ति दिलाने आए हैं।"

राजकुमारी की सारी बातें सुनने के बाद विक्रमादित्य ने दूसरे घड़े से चुल्लू भर पानी निकाल कर राजकुमारी पर छिड़का राजकुमारी फिर से बंदरिया बन गई । शाम को जब तपस्वी कुटिया में आया तो उसने बंदरिया पर पानी छिड़का । बंदरिया पुनः राजकुमारी में परिवर्तित हो गई। फिर उसने संन्यासी के लिए भोजन बनाया । भोजन खिलाने के बाद सन्यासी के हाथ-पांव दबाते हुए उपहार देने को कहा ।

संन्यासी ने हवा में हाथ लहराया। देखते ही देखते उनके हाथ में से एक सुन्दर कमल का फूल प्रकट हो गया। उन्होंने वह फूल राजकुमारी को देते हुए कहा- "यह चमत्कारी फूल है यह हमेशा खिला रहेगा और हर दिन तुम्हें एक रत्न देगा। "कुछ देर रुककर उन्होंने कहा-"मैं यह भी जान गया हूँ कि तुम्हारे जीवन में तुम्हारा वांच्छित वर राजा विक्रमादित्य यहां आ पहुँचा है। आज से तुम शाप से मुक्त हो।' यह कहकर संन्यासी ने राजकुमारी को अपनी कुटिया से विदा किया।

विक्रमादित्य ने जब राजकुमारी को हाथ में पुष्प लिए कुटिया से बाहर निकलते देखा तो पेड़ से नीचे उतर गए। राजकुमारी ने वह फूल विक्रमादित्य को दे दिया और उन्हें सारी वृतांत सुनाकर कहा कि अब वह पूरी तरह शाप से मुक्त हो चुकी है। यह सुनकर विक्रमादित्य बहुत प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने देवी द्वारा दिए बेतालों का स्मरण किया। उन्होंने दोनों को अपने-अपने कंधे पर बिठाया और आकाश मार्ग में उड़ते हुए उनके राज्य में पहुंचा दिया। अभी वह अपने महल में प्रवेश कर ही रहे थे कि तभी एक लड़के ने आकर उनसे वह कमल पुष्प मांग लिया। राजा ने फूल उस लड़के को दे दिया।

राजमहल पहुंचकर राजा विक्रमादित्य ने कामिनी से बड़ी धूम-धाम से विवाह किया और आराम से जीवन व्यतीत करने लगे। एक दिन राज्य का एक दीवान एक गरीब व्यक्ति को पकरकर राजदरबार में लाया और बोला-'महाराज! यह व्यक्ति बहुत गरीब है किंतु इसके पास बहुमूल्य रत्न हैं और यह उन्हें बेचना चाहता है। मुझे तो लगता है यह चोर है।"

वह व्यक्ति बोला-"महाराज मैं चोर नहीं हूँ। मेरे बेटे के पास एक कमल का फूल है। उस फूल के द्वारा हर रोज हमें एक रत्न प्राप्त होता है।"

यह सुनकर विक्रमादित्य को संन्यासी द्वारा दिए गए उस पुष्प की याद आ गई जो बाद में उन्होंने एक लड़के के मांगने पर उसे दे दिया था। राजा ने उस गरीब व्यक्ति से वे रत्न खरीद लिए उसे नकद धन देकर विदा किया। फिर बोले-'दीवान जी, तुम कभी भी बिना किसी ठोस सबूत के केवल शक के आधार पर किसी को परेशान मत किया करो।'

यह कहानी सुनाकर पुतली बोली-"सुना राजा भोज ऎसे थे हमारे राजा विक्रमादित्य। अगर तुमने भी ऎसा कार्य किया है तो तुम इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो अन्यथा नहीं।" यह कहकर पुतली अदृश्य होकर सिंहासन पर अपनी जगह पर समा गई।

राजा भोज कुछ न कह सके और उस दिन भी सिंहासन पर बैठने का विचार त्याग कर अपने शयन कक्ष में जाकर लेट गए।