तेरहवें दिन भी वैसा ही उपक्रम चला। राजा भोज सिंहासन पर बैठने को तत्पर हुए तो सिंहासन की तेरहवीं पुतली ने सिंहासन से निकल कर उनका मार्ग रोक लिया और बोली-'ठहरो राजा भोज! सिंहासन पर बैठने से पहले मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक कथा सुनाती हूँ, जिसे सुनकर तुम समझ जाओगे कि विक्रमादित्य ने इस संसार में किस प्रकार यश कमाया है।" यह कहकर पुतली ने कथा सुनानी आरंभ कर दी-
'एक बार राजा विक्रमादित्य के राजदरबार में संसार के बड़े-बड़े पुरुषों के संबंध में चर्चाएं चल रहीं थीं। कोई किसी के साहस की प्रशंसा कर रहा था, तो कोई किसी के ऊंचे विचारों के लिए प्रसंशा के पुल बांध रहा था। तभी एक सभासद् ने उठ कर निवेदन किया-'महाराज, पाताल पुरी का राजा बलि बहुत बड़ा दानी है। तीनों लोकों में उनके समान दानी कोई नहीं है।'
यह सुनकर विक्रमादित्य ने मन ही मन बलि के दर्शन का निश्चय कर लिया। अगले दिन उन्होंने देवी द्वारा दिए बेतालों को याद किया। दोनों बेताल शीघ्र ही उपस्थित होकर बोले-'क्या हुक्म है हमारे लिए मालिक?"
विक्रमादित्य बोले-'मैं पाताल के राजा बलि के पास जाना चाहता हूँ। क्या तुम मुझे वहां ले जा सकते हो?"
"मालिक! आपकी आज्ञानुसार आपको कहीं भी ले जा सकते हैं।"- यह कहकर बेतालों ने उन्हें अपने कंधों पर बिठाया और पलक झपकते ही पातालपुरी पहुंचा दिया। वहां पहुंचकर विक्रमादित्य घूम-घूमकर पाताल पुरी के सौंदर्य को देखने लगे। वहां के भवन बड़े सुन्दर बने हुए थे। सभी लोग अपने-अपने कामों में व्यस्त थे। कहीं धर्म-चर्चाएं हो रही थी, तो कहीं वेद-पाठ हो रहा था। चारों ओर चहल-पहल थी।
विक्रमादित्य पाताल पुरी की शोभा को देखकर मोहित हो उठे। वे मन ही मन बलि के भाग्य और प्रबंध की प्रशंसा करने लगे। पाताल पुरी के द्वार पर पहुंच कर उन्होंने द्वारपालों से कहा-'मैं उज्जैन का राजा विक्रमादित्य हूँ और बलि के दर्शन करने के लिए यहां आया हूँ।
यह सुनकर द्वारपाल महल के अन्दर गया और बोला-'महाराज, द्वार पर उज्जैन का राजा विक्रमादित्य आया हुआ है। वह आपके दर्शन करना चाहता है।'
बलि ने कहा-'उनसे कहो, लौट जाएं। मैं पृथ्वी के किसी भी निवासी को अपने पास नहीं बुला सकता, क्योंकि पृथ्वी पर अच्छे से अच्छा आदमी भी अपने भीतर छ्ल छिपाए रहता है।'
द्वारपाल ने वापस आकर विक्रमादित्य को यह संदेश सुना दिया कि बलि उनसे नहीं मिलना चाहते लेकिन विक्रमादित्य बलि के भवन के द्वार पर खड़े रहे। उन्होंने द्वारपालों से कई बार निवेदन किया कि मैं बड़ी लालसा से बलि के दर्शन करने के लिए आया हूँ। मैं उनके दर्शन किए बगैर यहां से नही जाऊंगा लेकिन बलि ने हर बार द्वारपालों से यही कहा कि उनसे कहो, मैं उनसे नहीं मिलूंगा। वे यहां से चले जाएं।
बार-बार बलि का यह संदेश सुनकर विक्रमादित्य बहुत दुःखी हुए। उन्होंने इसे अपना अपमान समझा और निराश होकर अपनी तलवार से अपनी गर्दन काट दी। यह देखकर द्वारपाल दौड़े-दौड़े बलि के पास गए और उनसे निवेदन किया-'महाराज, आपके दर्शन न पाने के कारण विक्रमादित्य ने अपने हाथों से ही अपना सिर काट डाला है।'
यह सुनकर बलि ने द्वारपालों को एक अमृत कलश देकर कहा - 'विक्रमादित्य के शरीर पर अमृत छिड़क कर उन्हे जीवित कर दो ।'
बलि की आज्ञा पाकर द्वारपालो ने विक्रमादित्य के शव पर अमृत छिड़क कर उन्हे पुनः जीवित कर दिया । जीवित होते ही उन्होने पुनः द्वारपालो से कहा--'जाकर बलि से कहो, मैं उनके दर्शन किए विना यहां से कदापि नही जाऊंगा ।' द्वारपालों जाकर ने यह सूचना बलि को दी । इसबार भी बलि ने द्वारपालों को यह कहकर वापस भेज दिया कि वे हठ न करें । मैं उनसे नहीं मिल सकता लेकिन विक्रमादित्य अपनी जिद पर अड़े थे । उन्होने फिर अपना सिर काट दिया । इस बार भी बलि की आज्ञा से उनपर अमृत छिड़ककर उन्हे पुनः जीवित कर दिया । यह क्रम कई बार चला ।
विक्रमादित्य के बार-बार सिर काटने से आखिर बलि के मन मे हलचल मच गई । वे मन ही मन सोचने लगे, विक्रमादित्य तो अद्भूत साहसी है । ऎसे साहसी व्यक्ति से अवश्य मिलना चाहिए । वे अपने सिंहासन से उठे और विक्रमादित्य से मिलने द्वार पर पहुंच गए । उन्होने विक्रमादित्य से कहा - नर श्रेष्ठ ! मैं पृथ्वी के बड़े-बड़े दानियों और धर्मात्माओ से भी मिला लेकिन तुमने मुझे अपने त्याग से विवश कर दिया । कहो तुम क्या चाहते हो ?'
विक्रमादित्य बोले - 'महाराज, मुझे कुछ नही चाहिए । मेरे पास सब कुछ है । मुझे आपके दर्शन हो गए मानो सब-कुछ मिल गया । मैं आपके दर्शन से धन्य हो गया।'
विक्रमादित्य के विनम्र व्यवहार से राजा बलि बहूत प्रभावित हुए । उन्होने प्रशन्न होकर विक्रमादित्य को एक कवच देते हुए कहा - राजन् मैं तुम्हे खाली हाथ नही जाने दूंगा । मेरी ओर से यह कवच स्वीकार करो । इसकी विशेषता यह है कि इससे जो भी मांगोगे, वही तुम्हे मिल जाएगा ।'
विक्रमादित्य कवच लेकर, बलि को प्रणाम करके वहां से चल पड़े । उन्होने वेतालों को याद किया । वेतालो ने उन्हे अपने कंधो पर बैठा कर उज्जैन नगरी की सीमा पर छोड़ दिया । विक्रमादित्य पैदल ही वहां से अपने महल की ओर बढ रहे थे कि एक स्त्री के रोने की आवाज सूनकर वे रुक गए । उन्होने लोगों से पूछा - 'यह स्त्री इस प्रकार को क्यो रो रही है ?'
लोगों ने कहा - 'महाराज इस स्त्री के पति का स्वर्गवास हो गया है । लोग उसे श्मशान ले जा रहे हैं ।'
यह सुनकर विक्रमादित्य के हृदय मे उस स्त्री के प्रति दया उमड़ पड़ी । वे तुरंत उसके पास गए और बोले - 'देखो बहन, जीवन-मृत्यु पर किसी का कोई वश नहीं चलता । जो इस संसार मे जन्मा है, उसकी मृत्यु एक न एक दिन निश्चित है । तुम धैर्य धारण करो । लो यह कवच अपने पास रखो यह तुम्हारी हर आवश्यकता पूरी करेगा। अब रोना-धोना बंद करो और अपना शेष जीवन आनंदपूर्वक व्यतीत करो।'
यह कथा सुनाकर पुतली बोली-'सुना तुमने राजा भोज! ऎसे परोपकारी और त्यागी थे हमारे राजा विक्रमादित्य। अगर तुममे ऎसे गुण हैं तभी तुम इस सिंहासन पर बैठने का विचार करना।' यह कह कर पुतली अदृश्य हो गई।
राजा भोज ने मन ही मन विक्रमादित्य के उपकार और त्याग की बात स्वीकार कर ली। उस दिन भी वे निराश होकर अपने महल लौट आए।