पुतली इन्दुमती की कथा

बारहवें दिन जैसे ही राजा भोज सिंहासन पर बैठने के लिए उद्यत हुए तभी सिंहासन पर इन्दुमती नाम की बारहवीं पुतली राजा भोज के सामने प्रकट हो गई और राजा भोज को रोकते हुए बोली-'ठहरो राजा भोज! सिंहासन पर बैठने से पहले मेरी भी एक कथा सुन लो। मैं तुम्हें यह बताना आवश्यक समझती हूँ कि अगर तुम मेरी कथा सुने बगैर इस सिंहासन पर बैठोगे तो तुम्हारा और तुम्हारे राज्य का अनिष्ट होगा। इस अनिष्ट के जिम्मेदार तुम स्वयं होंगे। अतः मेरी कथा ध्यान से सुनों।"

यह कहकर वह राजा भोज को कथा सुनाने लगी-'एक बार पुरुषार्थ और भाग्य आपस में इस बात पर झगड़ रहे थे कि उनमें कौन बड़ा है। पुरुषार्थ कहता कि बिना मेहनत के कुछ भी संभव नहीं है जबकि भाग्य का कहना था कि जिसको जो भी मिलता है भाग्य से ही मिलता है इसमें परिश्रम की कोई भूमिका नहीं होती। उनके विवाद ने ऎसा उग्ररुप धारण कर लिया कि दोनों को देवराज इंद्र के पास जाना पड़ा। देवराज इंद्र ने भाग्य और पुरुषार्थ की बातें सुनी। झगड़ा बहुत ही पेचीदा था इसलिए इंद्र भी चकरा गए। पुरुषार्थ को वे नहीं मानते जिन्हें भाग्य से ही सब कुछ प्राप्त हो जाता है। दूसरी तरफ अगर भाग्य को बड़ा बताते हैं तो पुरुषार्थ उनका उदाहरण प्रस्तुत करता जिन्होंने मेहनत से सब कुछ अर्जित किया था। इंद्र असमंजस में पड़ गए और किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे। काफी सोच-विचार करने के बाद उन्हें विक्रमादित्य की याद आई। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि अपना निर्णय देने के बजाय वे उन्हें राजा विक्रमादित्य के पास भेज दें। वे अवश्य कोई हल निकाल सकते हैं।

यह विचार कर इंद्र ने दोनों को विक्रमादित्य के पास जाने को कहा। इंद्र की बात मानकर दोनों ब्राह्मण का भेष बनाकर विक्रमादित्य के राजदरबार चल पड़े। विक्रमादित्य के पास पहुंचकर उन्होंने अपना प्रश्न रखा। बोले-'राजन, आप पृथ्वी पर सबसे बढकर ज्ञानी हैं। कृपया आप बताएं, भाग्य बड़ा है या पुरुषार्थ?

यह सुनकर राजा विक्रमादित्य सोच में पड़ गए। कुछ देर सोच-विचार करने के बाद उन्होंने कहा-"इस समय तुम दोनों यहां से जाओ। ठीक छः माह के बाद फिर आना तब मैं बताऊंगा।"

विक्रमादित्य की बात सुनकर दोनों ब्राह्मण उन्हें प्रणाम करके वहां से लौट आए। उनके जाने के बाद विक्रमादित्य ने काफी सोच-विचार किया लेकिन वे किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके। विक्रमादित्य को यह प्रश्न हल करना था क्योंकि वे दोनों ब्राह्मणों को उत्तर देने का वचन दे चुके थे। तब उन्होंने मन ही मन विचार किया कि इस समस्या का समाधान देश के नागरिकों के बीच घूम-घूम कर निकालना चाहिए। वे अपना राज-काज मंत्रियों को सौंप कर सामान्य नागरिक के वेश में लोगों के बीच घूमने लगे।

घूमते-घूमते राजा विक्रमादित्य एक नगर में, एक बहुत बड़े व्यापारी के पास गए और व्यापारी से प्रार्थना कि की वह उन्हें नौकरी पर रख ले। व्यापारी बोला-"कौन-सा काम करोगे और कितना वेतन लोगे?'

विक्रमादित्य बोले-"मैं एक लाख रुपए मासिक लूंगा और जो काम कोई नहीं कर सकेगा, मैं उसे करुंगा।"

यह सुनकर व्यापारी ने विक्रमादित्य को अपना नौकर रख लिया। विक्रमादित्य को जब पहले मास का वेतन मिला तो उन्होंने कुछ धन खाने-पीने के लिए रख कर, बाकी सब दान पुण्य में खर्च कर दिया। इसी तरह कई मास बीत गए। विक्रमादित्य को हर महीने लाख रुपये मिलते। वे अपने निर्वाह के लिए रखकर, शेष सब रुपये दान पुण्य में खर्च कर दिया करते थे। काम उन्हें कुछ भी नहीं करना पड़ता था। वे बड़े प्रसन्न थे। उन्होंने सोचा, भाग्य का कैसा चमत्कार है। काम कुछ नहीं, पर वेतन में मिलते है लाख रुपए।

कुछ दिनों बाद व्यापारी समुद्री जहाज पर अपना माल लाद कर दूसरे देश में व्यापार के लिए जाने की तैयारी कर बैठा। अपने अन्य सेवकों के साथ उसने विक्रमादित्य को भी अपने साथ रख लिया। कुछ समय तक विदेशों में व्यापार करने के बाद जब वे जहाज पर सामान लाद कर अपने देश लौट रहे थे सहसा उनका जहाज बीच समुद्र में फंस गया। व्यापारी ने बड़ी मन्नतें मांगी, भगवान से बहुत प्रार्थनाएं की, लेकिन जहाज टस से मस नहीं हुआ।

तब व्यापारी ने विक्रमादित्य से कहा-"तुमने कहा था, जो काम कोई नहीं कर सकता, उसे तुम करोगे। मेरा जहाज समुद्र में फंस गया है। तुम किसी तरह जहाज को बाहर निकालो।'

विक्रमादित्य ने शीघ्र ही जहाज की रस्सी पकड़ी और हाथ में तलवार लेकर समुद्र में उतर पड़े। समुद्र के नीचे उन्होंने देखा कि जहाज समुद्री झाड़ियों में फंसा हुआ था। उन्होंने तलवार से समुद्री झाड़ियां काट डाली। जहाज चल पड़ा, लेकिन विक्रमादित्य की हाथ की रस्सी छूट गई वह समुद्र में बहते चले गए। तैरते-तैरते वे एक ऎसे द्वीप में पहुंचे, जहां स्त्रियों का राज था, वहां कोई पुरुष नहीं था।

उस राज्य की रानी का नाम अम्बावती था। वह कुंवारी थी। उसे किसी योगी ने बताया था कि एक दिन उज्जैन के राजा विक्रमादित्य यहां आएंगे। वही तुम्हारे पति होंगे। अम्बावती बड़ी उत्सुकता से विक्रमादित्य का रास्ता देख रही थी। विक्रमादित्य जब तैरकर अम्बावती के नगर में पहुंचे, तो उनकी सेविकाओ ने एक तेजस्वी पुरुष के आने की सूचना उसे दी। अम्बावती बड़े आदर से विक्रमादित्य को अपने महल ले आई। वह उन्हें देखते ही पहचान गई, क्योंकि योगी के कहा अनुसार विक्रमादित्य को छोड़कर उसके नगर में कोई दूसरा पुरुष नहीं आ सकता था।

अम्बावती ने विक्रमादित्य के साथ विवाह कर लिया। अम्बावती तंत्र-मंत्र जानती थी। उसने तंत्र-मंत्र से विक्रमादित्य को अपने वश में कर लिया। वे अपने राज्य और प्रजा को बिल्कुल भूल गए। यह भी भूल गये कि वे किस उद्देश्य से निकले हैं।

अम्बावती की दासी सुधर्मा विक्रमादित्य के लिए रोज पान के बीड़े लगाया करती थी। विक्रमादित्य जब खाना खाकर आराम करने लगते तो वह उनके पास पान के बीड़े लेकर आ जाती थी। वह जब भी उसके पास पान के बीड़े लेकर जाती थी, उसकी आंखों में आंसू होते थे। एक दिन विक्रमादित्य ने उनसे पूछ ही लिया-"सुधर्मा, जब भी तू मेरे पास पान के बीड़े लेकर आती है, तेरी आंखों में आंसू रहते हैं। बताओ तुम्हारे आंखों में आंसू क्यों रहते हैं?"

सुधर्मा बोली-'महाराज, ये मेरे आंसू आपके लिए हैं। आप एक धार्मिक एवं प्रतापी राजा हैं। आपकी प्रजा आपके लिए बैचेन है लेकिन आप यहां अम्बावती के जाल में फंसकर, अपना कर्त्तव्य भूल गए हैं। अम्बावती तंत्र-मंत्र जानती हैं। अब आपका यहां से छूटना मुश्किल है।"

सुधर्मा की बात सुनकर राजा विक्रमादित्य के मन में ज्ञान पैदा हो गया। उन्होंने सुधर्मा से पूछा-'सुधर्मा, तुम्हारे पास कोई ऎसा उपाय है, जिससे मैं यहां से आजाद हो सकूं ?"

सुधर्मा बोली-'हां, महाराज एक उपाय है अम्बावती की घुड़साल में एक श्यामकर्ण घोड़ा है। उसका सारा शरीर तो सफेद है, लेकिन दोनों कान काले हैं। आप उसकी पीठ पर बैठकर कहना-'चल श्यामकर्ण, उज्जैन चल।' यह कहते ही वह आपको उज्जैन पहुंचा देगा।'

एक दिन विक्रमादित्य ने अम्बावती से कहा- 'आओ हम दोनों श्यामकर्ण की सवारी करें।'

अम्बावती इसके लिए तैयार हो गई क्योंकि वह इस बारे में बिल्कुल निश्चिंत थी कि श्यामकर्ण घोड़े का भेद विक्रमादित्य को मालूम नहीं है। वह विक्रमादित्य के साथ घोड़े की पीठ पर बैठ गई। विक्रमादित्य ने घोड़े को एड़ लगाई और कहा-'चल बेटा श्यामकर्ण, उज्जैन चल।'

यह कहते ही घोड़ा आकाश मार्ग से उड़ चला। अम्बावती ने बाधा डालने का प्रयत्न किया। विक्रमादित्य ने साहस से काम लिया और उन्होंने उसे समुद्र में गिरा दिया। श्यामकर्ण विक्रमादित्य को लेकर उज्जैन पहुंचा। अपने राजा को वापस लौटा देख सारे नगर वासियों में खुशी की लहर दौड़ उठी। विक्रमादित्य अपने सिंहासन पर बैठकर फिर से राजकार्य चलाने लगे।

जब छः महीने की अवधि पूरी हुई तो दोनों ब्राह्मण पुरुषार्थ और भाग्य अपने फैसले के लिए उनके दरबार में आए। उन्होंने विक्रमादित्य से कहा-'महाराज, अब आप बताएं, भाग्य और पुरुषार्थ में से कौन बड़ा है?'

विक्रमादित्य बोले-'दोनों में कोई बड़ा-छोटा नहीं, दोनों बराबर हैं।' यह कहकर उन्होंने प्रमाण में अपनी पूरी कहानी ब्राह्मणों को सुना दी और कहा-'इस कहानी में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों का चमत्कार है।'

विक्रमादित्य का निर्णय सुनकर दोनों ब्राह्मण संतुष्ट होकर लौट गए।

कहानी सुनाकर पुतली बोली-'राजा भोज! यदि तुममें विक्रमादित्य जैसी दानवीरता और बुद्धिमता है तो इस सिंहासन पर बैठो अन्यथा लौट जाओ।' यह कहकर पुतली सिंहासन में अपनी जगह समा गई और राजा भोज उदास मन से अपने महल में लौट आए।