पुतली प्रबोधवती की कथा

चौदहवें दिन फिर नया उत्साह संजोकर राजा भोज सिंहासन के निकट पहुंचे। जैसे ही वे सिंहासन की ओर बढे, सिंहासन की चौदहवीं पुतली हंसती हुई उनके सामने प्रकट हुई और उनका रास्ता रोकते हुए बोली-"राजा भोज! आगे मत बढना। पहले मेरी भी एक कथा सुन लो उसे सुनने के बाद ही तुम सिंहासन की तरफ कदम बढाना।' यह कहकर पुतली ने राजा भोज को कथा सुनाई-

'राजा विक्रमादित्य राज्य की व्यवस्था देखने के लिए अक्सर रात को वेश बदलकर राज्य के किसी न किसी हिस्से में पहुंच जाया करते थे। वे इस बात को देखने के लिए अपनी आखें खुली रखते थे कि प्रजा पीड़ित तो नहीं, राज्य के अधिकारीगण उन्हें सताते तो नहीं। कोई भूखा तो नहीं सोया, कहीं कोई चोरी-चकारी की घटना तो नहीं हो रही?

एक रात वे नगर में भ्रमण कर रहे थे। नगर भ्रमण करते-करते अचानक उनकी नजर गली के एक नुक्कड़ पर बैठ चार व्यक्तियों पर पड़ी जो आपस में राय-सलाह कर रहे थे। वे चारों व्यक्ति चोर थे। वे चारों किसी के घर में चोरी करने का प्लान बना रहे थे। विक्रमादित्य को समझने में देर नहीं लगी कि वे चारों आदमी कौन हैं और यहां एकान्त में बैठकर क्या कर रहे हैं? वे चुपचाप जाकर उनके सामने खड़े हो गए। यह देख चोरों के सरदार ने उनसे पूछा-'कौन हो तुम और इस अंधेरी रात में अकेले क्यों घूम रहे हो?'

विक्रमादित्य बोले - 'भाई, जो तुम लोग हो, मैं भी वही हूँ । जो तुम सब करना चाहते हो वही मै भी करना चाहता हूंँ ।'

यह सुनकर चोरो का सरदार विक्रमादित्य की बात का मतलब समझ गया । उसने भी उसे अपनी ही तरह चोर समझा । तब उसने कहा - 'मैं अपने दल मे सामिल कर सकता हूँ लेकिन पहले तुम यह बताओ कि तुममे कौन सा गुण है ?'

विक्रमादित्य बोले - 'पहले तुम चारों बताओ कि तुममे कौन से गुण है उसके बाद ही मै तुम्हे अपने गुण बताऊंगा ।'

चोरों का सरदार बोला - 'ठीक है, पहले मैं ही अपना गुण बता देता हूँ - मैं सगुन निकालने मे बड़ा चतुर हूँ । मेरे द्वारा निकाले गये सगुन के अनुसार कार्य करने से अवश्य कार्य पूरा होता है ।'

दुसरा चोर बोला - 'मैं जानवरों और चिड़ियों की बोलियों का मतलव अच्छी तरह समझ सकता हूँ ।

तीसरा बोला - मैं किसी जगह घुस सकता हूँ । न तो मुझे कोई देख सकता है , न पकड़ सकता है ।

चौथे ने कहा - मुझे चाहे कितनी ही कड़ी से कड़ी सजा दी जाए लेकिन उस सजा का मुझ पर कोई भी प्रभाव नहीं पर सकता ।

चारों चोरों के गुणों की बात सुनकर विक्रमादित्य ने कहा - 'अच्छा ठीक हैं । अब मैं तुम्हे अपने गुण बताता हूँ । मैं ऎसे स्थानो की जानकारी प्राप्त कर लेता हूँ, जहां धन गड़ा रहता है ।

यह सुनकर चोरो का सरदार खुशी से उछल पड़ा । वह प्रशन्न होकर बोला 'भाई तब तो तुम बडे काम के आदमी हो । चलो हमारे साथ और हमे वह स्थान बताओ जहां धन गड़ा है ।

विक्रमादित्य बोले-"ठीक है, चलो मेरे साथ।" यह कहकर विक्रमादित्य चोरों को अपने साथ ले गए। अभी वे कुछ ही दूर गए थे कि एक चिड़ियां बोल पड़ी-'चाकू-चूं, चाकू-चूं।'

चिड़ियां की बोली सुनकर दूसरा चोर जो पशु-पक्षियों की बोलियों का मतलब समझता था, बोला-" यह चिड़ियां हमें सावधान कर रही है कि आगे जाना ठीक नहीं है।'

लेकिन सरदार ने उसकी बात नहीं मानी। उसने कहा-"तुम व्यर्थ ही शक कर रहे हो। हो सकता है, तुमसे चिड़ियां की बात सुनने में भूल हो गई हो।' फिर उसने विक्रमादित्य से कहा-'तुम इसकी बातों का विश्वास मत करो। आगे बढो और हमें उस स्थान पर ले चलो जहां धन गड़ा है।'

विक्रमादित्य उन्हें एक राजकीय उद्यान में ले गए। उन्होंने एक जगह को दिखा कर कहा-"इस जगह की खुदाई करो इसके नीचे बहुत बड़ा खजाना दबा पड़ा है।'

विक्रमादित्य की बात सुनकर चोर उस जगह की खुदाई करने लगा। कुछ देर खुदाई करने के बाद जब वहां की मिट्टी हटाई गई तो वहां सचमुच अशर्फियों से भरे मटके गड़े थे। यह देख कर चोरों की खुशी का ठिकाना न रहा। वे मटकों में से अशर्फियां निकाल-निकाल कर अपने-अपने थैलों में भरनें लगे। जब उनके पास अशर्फियां भरने के लिए कोई थैला बाकी नहीं रहा, तो वे मटकों को वहीं खुले छोड़कर आगे चल पड़े।

एक सुनसान जगह पर पहुंचकर चोरों के सरदार ने कहा-'भाई, अब हम इन अशर्फियों को पांच बराबर हिस्सों में बांट लेते हैं।' यह कहते-कहते उसका ध्यान पांचवें चोर पर गया। वह वहां नहीं था। यह देख उसने अपने साथियों से कहा-'हमारा पांचवां साथी कहां गया? वह तो हमारे पीछे-पीछे ही आ रहा था।'

तभी उन्हें दूर से एक गधे की चीत्कार सुनाई दी। यह सुनकर दूसरा चोर जो पशु-पक्षियों की बोली जानता था बोला-'भाई, गधा साफ-साफ कह रहा है खतरा है।'

फिर चोर वहां रुके नहीं। और जल्दी ही अपने ठिकाने पर पहुंच गए। सुबह होते ही चारों ओर यह खबर फैल गई कि राजा के उद्यान में चोरी हो गई है। चोर वहां गड़े खजाने को निकाल कर ले गए हैं। यह खबर सुनकर नगर का कोतवाल अपने साथ कुछ सिंपाहियों को लेकर घटनास्थल पर पहुंचा। उसने देखा तो सचमुच मटके खुले पड़े थे। मटकों के भीतर से अशर्फियां निकाल ली गई थी।

नगर कोतवाल ने सिपाहियों को हुक्म दिया-'सिपाहियो, जाओ और चोरों को ढूढ कर लाओ।'

सिपाही नगर के चारों ओर फैल गए और चोरों की तलाश करने लगे। काफी दौड़ धूप के बाद आखिर चोर पकड़े गए। सिपाही चोरों को पकड़कर कोतवाल के पास ले आए। कोतवाल उन्हें राजदरबार में विक्रमादित्य के पास ले गया। चोरों ने जब विक्रमादित्य को देखा, तो उनके आश्चर्य की सीमा न रही। वे आपस में एक दूसरे का मुंह देखने लगे। जिस आदमी ने उन्हें उद्यान के धन का पता बताया था, उसकी सूरत विक्रमादित्य से बिल्कुल हू-बहू मिलती थी। उन्हें इस प्रकार आश्चर्यचकित देख विक्रमादित्य ने क्रोधित होकर कहा-'तुमने उद्यान में चोरी क्यों की? तुम्हारी भलाई इसी में है कि चोरी का सारा माल लौटा दो।'

चोरों का सरदार बोला-'महाराज, गुस्ताखी माफ करना। हम चोरी का सारा समान लौटा देंगे, लेकिन यदि आप आज्ञा दें तो एक बात पूछूं?'

यह सुनकर विक्रमादित्य बोले-'पूछो, क्या पूछना चाहते हो?' चोरों का सरदार हाथ जोड़ते हुए बोला-'महाराज, जब हम चोरी करने के लिए निकले, तो हम रास्ते में एक आदमी मिला। उसने हमसे कहा, वह छुपे हुए धन का स्थान बताने में माहिर है। वहीं आदमी हमें आपके उद्यान में ले गया और उसी ने हमें वह जगह बताई जहां खजाना गड़ा था लेकिन जब हम अशर्फियां चोरी करके आपस में बांटने लगे तो न जाने वह आदमी कहां गायब हो गया। आज तक मैंने अपनी जिंदगी में ऎसा चोर नहीं देखा, जो चोरी करने में मदद तो करे लेकिन जब माल में हिस्सा बांटने का समय आए, तो गायब हो जाए। महाराज, गुस्ताखी माफ करना उस आदमी की सूरत आपसे मिलती है।'

यह सुनकर विक्रमादित्य हंसते हुए बोले-'तुम ठीक कहते हो। वह आदमी मैं ही था। मैंने ही तुम चारों के गुण सुनकर, अपना गुण बताया था कि मैं जमीन के भीतर गड़े खजाने का पता बता सकता हूँ। यह कहकर वे मन ही मन सोचने लगे। कुछ देर बाद उन्होंने पुनः कहा-तुम चोरी क्यों करते हो? क्या तुम्हें मालूम नहीं कि चोरी करना पाप है।

चोरों ने हाथ जोड़कर निवेदन किया-'जानते हैं महाराज, लेकिन फिर भी चोरी करनी पड़ती है। यदि चोरी नहीं करेंगे तो फिर भरण-पोषण किस प्रकार होगा, परिवार का जीवन किस तरह चलेगा?'

विक्रमादित्य बोले-'ठीक है, अगर ऎसी बात है तो तुम्हें इसका दण्ड भुगतना पड़ेगा। मैं तुम्हें दण्ड देता हूँ कि तुम सब चोरी करना छोड़ दो और जितनी अशर्फियां तुम चोरी करके ले गए हो, उन्हें अपने पास रखो। मैं अपनी तरफ से तुम्हें एक-एक लाख अशर्फियां देता हूँ, और तुम्हें उस उद्यान मे काम भी देता हूँ । मुझे पूरा विश्वास है कि आज से तुम चोरी करना छोड़ दोगे।'

विक्रमादित्य की दया और दानशीलता देखकर चारों चोर उनके चरणों में गिर पड़े। उन्होंने प्रण लिया कि आज के बाद वे कभी चोरी नहीं करेंगे।'

कथा सुनाकर पुतली बोली-'राजा भोज! क्या तुममें ऎसी दया और दानशीलता है? यदि है तो तुम इस सिंहासन पर निःसंकोच बैठ सकते हो।' यह कहकर पुतली अदृश्य हो गई। पुतली के प्रश्न का राजा भोज के पास कोई उत्तर नहीं था। इसलिए वह सिंहासन पर बिना बैठे ही वापस अपने महल में लौट आए।