पुतली मदनवती की कथा

पंद्रहवें दिन पुनः राजा भोज सिंहासन के निकट पहुंचे तो उनके सिंहासन पर बैठने की इच्छा जानकर अपने स्थान से निकलकर मदनवती नाम की पुतली उनके सामने आ खड़ी हुई और उनका मार्ग रोकते हुए बोली-'ठहरो राजा भोज! पहले मुझसे राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुन लो तत्पश्चात निर्णय करना कि क्या तुम इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो? इतना कहकर पुतली ने कथा सुनानी आरंभ कर दी-

"राजा विक्रमादित्य स्वभाव से अत्यंत शांतिप्रिय थे। अपने राज्य की चारों सीमाओं पर स्थित अन्य राज्य के राजाओं से उनके बहुत मधुर संबंध थे। किसी भी राज्य से उनकी शत्रुता नहीं थी, इसीलिए लोग प्रायः उन्हें अज्ञातशत्रु कहा करते थे।

एक बार कौशल राज्य के राजा वीरसेन ने उज्जैन राज्य को हड़पने की योजना बनाई। राजा विक्रमादित्य की शांतिप्रियता वीरसेन को कायरता प्रतीत हो रही थी। उनके विचार से राजा को तो युद्ध प्रिय होना चाहिए। जो अपनी शूरवीरता का बार-बार प्रदर्शन न करे, वह राजा कैसा? वीरसेन ने अपनी सेना का संगठन कर अचानक उज्जैन की सीमा पार कर ली। यह सूचना पाते ही राजा विक्रमादित्य ने उसे अपने दूत से इस प्रकार संदेश भेजा-'राजा वीरसेन! आपकी राज्य लालसा के लिए हमारे दोनों देशों के हजारों सैनिकों की बलि चढाना मुझे स्वीकार नहीं। युद्ध के कारण आज तक हजारों नारियां विधवा होती आई हैं तो आप मेरे साथ द्वंद्ध-युद्ध कीजिए। अगर उस युद्ध में मैं पराजित हो जाऊं तो अपना राज्य सौंपकर मैं बंदी बन जाऊंगा और यदि आप हार गए तो अपना राज्य मुझे सौंप दीजिएगा।

राजा वीरसेन ने राजा विक्रमादित्य की यह शर्त मान ली। उज्जैन की राजधानी में किले के सामने एक विशाल मैदान में अखाड़े का इंतजाम किया गया। राजा वीरसेन और विक्रमादित्य ने अपनी-अपनी तलवारें खींचकर युद्ध आरंभ किया। चारों तरफ एकत्र लोग संशय और आश्चर्य के साथ उनका युद्ध देखने लगे। दोनों चतुर योद्धा थे । कुछ देर तक दोनों एक दूसरे के बल को जांचते रहे। उन दोनों के बीच खूब पैंतरेबाजी चलती रही। कहा नहीं जा सकता था कि किसकी जीत होगी और किसकी हार ? किंतु थोड़ी देर बाद ही वीरसेन के कंठ पर पहुंच कर रुक गई।

राजा वीरसेन अपनी पराजय स्वीकार करते हुए बोला-'आप जीत गए विक्रमादित्य। शर्त के अनुसार आप मुझे बंदी बनाकर मेरे राज्य पर अपना अधिकार कर लीजिए। मुझे अपनी हार स्वीकार है। आप निश्चय ही महान योद्धा हैं और मेरे राज्य पर शासन करने योग्य हैं। अब मुझे राजा कहलाने का कोई अधिकार नहीं है।'

इस पर कुछ कहे बगैर राजा विक्रमादित्य वीरसेन को राजदरबार में ले आये। उन्होंने वीरसेन का स्वागत-सत्कार किया और उससे कहा-'मुझे आपके राज्य को लेने की कोई अभिलाषा नहीं है। उस शर्त पर कायम रहने की भी अब कोई आवश्यकता नहीं है। मैं आपके साथ वैसा ही व्यवहार करुंगा, जैसा एक राजा को दूसरे राजा के साथ करना चाहिए। आपका राज्य आपको मुबारक हो। आप स्वयं ही शासन कीजिए उस पर।'

यह सुनकर राजा वीरसेन को बहुत आश्चर्य हुआ। वह बोला-'मैंने आपके साथ बहुत ही मूर्खतापूर्ण व्यवहार किया। इस पर भी आप मुझे क्षमा कर रहे हैं। सचमुच ही आप बहुत महान हैं। मैं आपकी कद्र करता हूँ। आप निश्चय ही एक महान राजा हैं।"

राजा विक्रमादित्य ने कहा- "नहीं-नहीं, ऎसा मत कहिए। आप भी कम योग्य नहीं हैं। अगर आप मूर्ख होते तो मेरे साथ द्वंद्व-युद्ध करने की बात स्वीकार नहीं करते। जनता के प्राणों की हानि होने से बचाकर, मेरे साथ द्वंद्व-युद्ध करके आपने अपनी मानवता का परिचय दिया है, इसीलिए मैं आपका सत्कार कर रहा हूँ। "

इस प्रकार राजा वीरसेन को समझाकर राजा विक्रमादित्य ने उसे सम्मान पूर्वक उसके राज्य में भिजवा दिया। इस घटना से बाकी सारे राजाओं के बीच राजा विक्रमादित्य की यश और प्रतिष्ठा और भी बढ गई। चारों दिशाओं में उनका नाम एक आदर्श राजा के रुप में गूंजने लगा।

इस घटना के कुछ दिन बाद एकाएक सारे उज्जैन राज्य में चोरी और डकैती की वारदातों में बेहद बृद्धि हो गई। प्रजा ने इस बात की शिकायत राजा से की। राजा विक्रमादित्य ने अपने सैनिकों को चोर और डाकुओं को पकड़कर बंदी बनाने का आदेश दे दिया। मगर सैनिक उनको पकड़ने में असफल रहे। वे सिर्फ इतना ही जान सके कि डाकुओं के सरदार का नाम बज्रदंत है और वह नगर की पुर्वी दिशा में स्थित जंगल में रहता है।

यह जानकर विक्रमादित्य ने राज्य में ढिढोरा पिटवा दिया कि जो कोई भी डाकू बज्रदंत को पकड़कर राजा के हवाले कर देगा, उसे दस हजार स्वर्ण मुद्राएं ईनाम स्वरुप दी जाएगी। इस घोषणा को सुनकर अनेक युवकों ने बज्रदंत को पकड़ने का प्रयास किया किंतु वे सभी असफल रहे और बज्रदंत के कोप का शिकार बन कर अपने प्राण गवा बैठे। अंत में डाकू सरदार को पकड़ने का जिम्मा विक्रमादित्य को स्वयं अपने हाथों में लेना पड़ा।

विक्रमादित्य एक शिकार का वेश बनाकर अपने साथ दस साहसी सैनिकों को लेकर जंगल की ओर चल पड़े। जंगल में पहुंचकर वे डाकू-सरदार की खोज में जुटे हुए थे कि एक झाड़ी से निकल कर एक सिंह ने उन पर हमला कर दिया। विक्रमादित्य ने अपनी तलवार म्यान से निकाल भी नहीं पाए थे कि तभी सिंह ने अपने पंजे की प्रबल चोट से विक्रमादित्य को दूर फेक दिया । सिंह उन पर फिर झपट्ना चाहता था कि तभी नजाने कहां से एक सनसनाता हुआ तीर आया और सीधे सिंह के पेट ए जा घुसा और उसने उसी समय दम तोड़ दिया ।

कुछ देर में एक ऊंचे कद का बलिष्ट युवक अपनी मूछों पर ताव देता हुआ विक्रमादित्य के पास आकर खड़ा हो गया । उसने गरजकर कहा -'कौन हो तुम ? क्या नाम है तुम्हारा ? क्या कोई शिकारी हो ?'

यह सुनकर विक्रमादित्य बोले - हां, मैं एक शिकारी हूँ मेरा नाम भद्रवाहु है, लेकिन एरे प्राणो की रक्षा करने वाले तुम कौन हो ?

युवक बोला - मेरा नाम बज्रदंत है । केवल इस राज्य की जनता ही नहीं, बल्कि यहां का राजा विक्रमादित्य भी मेरे नाम से डरता है ।

लेकिन गुप्त रूप से राजा का पीछाकर रहे उनके सैनिक भी वहां आ पहुंचे । राजा ने तुरन्त अपने सैनिकों को उस युवक को पकड़ने का आदेश दिया । सैनिकों ने एक साथ हमला कर उस युवक को दवोच लिया । अब वह युवक समझ गया कि शेर का शिकार बनने से बचा हुआ व्यक्ति स्वयं यहां का राजा विक्रमादित्य है । तब उसने गुस्से से कहा-"अरे राजा विक्रमादित्य, मुझे बंदी बनाने से पहले तूने यह तो सोचा होता कि मैंने शेर से तेरे प्राण बचाए हैं और फिर दस लोगों द्वारा एक व्यक्ति पर हमला करके उसे बंदी बना लेने में कोई बहादुरी नहीं है। यदि तू इतना बहादुर है तो एक बार मुझे खुला छोड़ दे और फिर मेरे साथ खड़ग-युद्ध कर फिर देखूंगा कि तू कितना बहादुर है। "

विक्रमादित्य ने सोचा,हालाकि इसने मेरी जान बचाई है लेकिन एक डाकू के साथ खड़ग-युद्ध करना स्वयं को अपमानित करने जैसा होगा।

यह सोचकर उन्होंने उसकी बात की उपेक्षा कर सैंनिकों को कहा-"इस डाकू को ले जाकर बंदी गृह मे डाल दो। " यह स्वयं भी अपने घोड़े पर बैठकर उनके साथ अपने नगर की ओर चल पड़े।

इस घटना के एक महीने बाद, जब राजा विक्रमादित्य अपने दरबार में बैठे अपने सभासदों से राज्य की स्थिति के बारे में विचार-विमर्श कर रहे थे तभी द्वारपाल ने आकर बताया-'महाराज, एक संन्यासी आपसे मिलने के लिए आया हुआ है। वह इसी समय आपसे भेंट करने की जिद कर रहा है।'

विक्रमादित्य बोले-"ठीक है, उन्हें अंदर भेज दो।"

राजा की आज्ञा पाते ही द्वारपाल ने संन्यासी को अंदर भेज दिया। वहां पहुंचते ही उसने विक्रमादित्य से कहा- राजन, मेरा नाम भद्रचामुंड है। मैं एक तांत्रिक हूँ। मैंने यक्षिणी देवी को प्रसन्न करने के लिए एक यज्ञ करने का संकल्प किया है। इसके लिए प्रतिदिन एक बालक के हिसाब से एक महीने तक मुझे बालकों की बलि चढानि होगी। वैसे बालकों को प्राप्त करना मेरे जैसे महान तांत्रिक के लिए बाएं हाथ का खेल है, परंतु यह कार्य अगर राजा के द्वारा सम्पन्न हो तो देवी अत्यधिक संतुष्ट होंगी। आपकी सहायता के बदले में मै आपको चक्रवर्ती राजा बना दूंगा।

तांत्रिक की बातों पर राजा विक्रमादित्य को बहुत क्रोध आया। उन्होंने अपनी म्यान से तलवार खींच ली और तांत्रिक को मारने के लिए लपके। लेकिन तांत्रिक भद्रचामुंड ने अपने मंत्र-बल से तलवार को जलाकर भस्म कर दिया। फिर वह जोर से चिल्लाया-'राजन, मुझे परास्त करने वाला व्यक्ति इस पृथ्वी पर कोई नहीं है। तुम मेरी सहायता नहीं कर रहे हो तो तुम्हारा दुर्भाग्य ही है।' यह कहकर तांत्रिक वहां से भाग गया।

इसके बाद दूसरे ही दिन से राज्य में छोटे-छोटे बच्चे गायब होने लगे। राजा विक्रमादित्य जान गए कि यह करतूत तांत्रिक की है। तब उन्होंने उसके यज्ञ-स्थल को ढूंढने के लिए अपने गुप्तचर चारों ओर भेज दिए। गुप्तचरों ने विक्रमादित्य को समाचार भेजा दिया तांत्रिक एक घने जंगल में एक विशाल पर्वत की गुफा में रह रहा है। तांत्रिक का पता ठिकाना मिलते ही विक्रमादित्य अकेले ही उसे समाप्त करने के लिए जंगल की ओर निकल पड़े। शीघ्र ही उन्होंने वह गुफा तलाश ली। वे गुफा में पहुंचकर एक शिला-स्तंभ के पीछे छिप कर खड़े हो गए।

कुछ ही देर बाद तांत्रिक एक बालक को लेकर गुफा में पहुंचा। उसने बालक को यक्षिणी देवी की मूर्ति के पास खड़ा किया और स्वयं आंखें मुंद कर मंत्र-पाठ करने लगा। मौका पाकर विक्रमादित्य ने उसके पीछे पहुंचकर तलवार के एक ही वार से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। उसका धड़ कटते ही देवी की वह प्रतिमा एक दिव्य प्रकाश में अलोकित हो उठी। देवी ने कहा-'हे महावीर! तुम्हारा साहस अद्वितीय है। लो, मैं तुम्हें यह खड़ग प्रदान करती हूँ।

विक्रमादित्य ने खड्ग ग्रहण किया और बालक को लेकर अपने महल लौट आए ।

इतनी कहानी सुनाकर पुतली बोली - सुना तुमने राजा भोज ! ऎसे त्यागी और प्रजापालक थे हमारे महाराज विक्रमादित्य । वे अपनी प्रजा के भलाई के लिए अपने प्राणो का भी बलिदान करने से नही हिचकते थे । क्या तुमने ऎसा कार्य किया है राजा भोज ? यह कहकर पुतली अदृश्य होकर सिंहासन पर अपने स्थान पर समा गई ।

पुतली के प्रश्न का राजा भोज के पास कोई जवाब नही था । अतः वे सिंहासन पर बैठने का विचार त्याग कर महल लौट आए ।