सोलहवें दिन सुभ मुहूर्त की घड़ी आई तो राजा भोज सिंहासन पर बैठने कि लालसा से फिर राजदरबार में पहुंचे लेकिन जैसे ही उन्होने सिंहासन की ओर कदम बढ़या , एकाएक सिंहासन से प्रकट होकर सत्यवती नाम की पुतली ने उसका रास्ता रोकते हुए कहा - 'ठहरो राजा भोज ! पहले मुझसे राजा भोज की एक कथा सुन लो , फिर निर्णय करना कि तुममे वैसा गुण है, जैसा गुण, जैसा हमारे स्वामी विक्रमादित्य मे था ? यदि है तो तुम इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो अन्यथा नही ।'
पुतली ने विक्रमादित्य की कहानी सुनानी प्रारम्भ कर दी - एक बार हमारे राजा विक्रमादित्य ने एक महाभोज का आयोजन किया। उस भोज में असंख्य विद्वान, ब्राह्मण व्यापारी तथा दरबारी आमंत्रित थे। भोज के मध्य में इस बात की चर्चा चली कि संसार में सबसे बड़ा दानी कौन है। सभी ने एक स्वर में राजा विक्रमादित्य को संसार का सबसे बड़ा दानवीर घोषित कर दिया। विक्रमादित्य लोगों के हाव-भाव देख रहे थे। तभी उनकी नजर एक ब्राह्मण पर पड़ी जो अपनी राय नहीं दे रहा था वह चुपचाप बैठा था।
विक्रमादित्य ने उसे चुपचाप देख पूछ ही लिया-'ब्राहण देवता आप चुपचाप क्यों बैठे हैं आपने कोई राय नहीं दी। सच-सच बताओ क्या बात है?" यह सुनकर ब्राह्मण असमंजस में पड़ गया। वह सोचने लगा, अगर सच नहीं बताता तो मुझे झूठ का पाप लगेगा। वह बोला-"महाराज क्षमा करना, मैं मानता हूँ कि आप बहुत बड़े दानी हैं लेकिन इस धरती पर आपसे भी बड़ा दानी एक राजा है। वह एक लाख स्वर्ण मुद्राएं प्रतिदिन जब तक दान नहीं करता तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करता। वह राजा समुद्र पार एक राज्य में रहता है। उसका नाम कीर्तिध्वज है।
ब्राह्मण की बात सुनकर विक्रमादित्य के मन में उस दानी राजा के दर्शन की लालसा पैदा हो उठी। ब्राह्मण की स्पष्टवादिता से प्रसन्न होकर उन्होंने उसे ढेर सारा पुरस्कार देकर विदा किया। अगले दिन प्रायः वे महल से निकलकर राज्य की सीमा पर पहुंचे और देवी द्वारा दिए दोनों बेतालों का स्मरण किया। उन्होंने बेतालों से कहा कि वे उन्हें समुद्र पार राजा कीर्तिध्वज के राज्य में पहुंचा दें। बेतालों ने शीघ्र ही उनकी आज्ञा का पालन किया और उन्हें समुद्र पार राजा कीर्तिध्वज के राज्य में पहुंचा दिया।
बेतालों को विदाकर विक्रमादित्य वेश बदलकर राजा कीर्तिध्वज के महल के द्वार पर पहुंचे। उन्होंने द्वार पर खड़े द्वारपाल से कहा-"जाओ अपने राजा को सूचना दो कि मैं उनके दर्शन करना चाहता हूँ।'
सूचना मिलते ही राजा कीर्तिध्वज बाहर आए। उन्होंने विक्रमादित्य से पूछा-'कौन हो तुम और मेरे पास किसलिए आए हो?"
विक्रमादित्य बोले-'महाराज मैं उज्जैन नगरी का रहने वाला एक क्षत्रिय हूँ। मैंने आपके गुणों की बहुत चर्चाएं सुनी हैं। इसलिए आपके पास रहकर आपकी सेवा करना चाहता हूँ।"
राजा कीर्तिध्वज ने पूछा-'तुम कौन-सा काम कर सकते हो?"
विक्रमादित्य बोले-"महाराज, मैं ऎसा हर वह कार्य कर सकता हूँ, जो कोई दूसरा नहीं कर सकता।"
यह सुनकर कीर्तिध्वज ने उन्हें अपने महल के द्वारपाल के रुप में नियुक्त कर लिया। अगले दिन ही सुबह राजा विक्रमादित्य ने देखा, राजा कीर्तिध्वज एक लाख स्वर्ण मुद्राएं बांट रहे हैं। यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक सारी स्वर्ण मुद्राएं बंट न गई। उसके बाद कीर्तिध्वज ने जाकर अन्न-जल ग्रहण किया। इसी प्रकार वे हर दिन दान करते रहे।
एक दिन विक्रमादित्य ने सोचा, जो राजा प्रतिदिन एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दान करता है। वह काम कोन सा करता है, जिससे इतनी स्वर्ण मुद्राएं आती हैं। छिपकर देखना चाहिए, राजा कीर्तिध्वज इन स्वर्ण मुद्राओं के लिए कौन-सा काम करता है? यह विचार कर कीर्तिध्वज की गतिविधियों पर नजर रखने लगे।
एक दिन विक्रमादित्य कीर्तिध्वज की गतिविधि का पता लगाने के लिए उनके महल में पिछवाड़े छिप गए। तभी उन्होंने देखा कि कीर्तिध्वज अपने महल से निकलकर कहीं जा रहा है। विक्रमादित्य चुपचाप उनके पीछे-पीछे चलने लगे।
चलते-चलते कीर्तिध्वज वन में एक देवी के मंदिर में जा पहुंचा। मंदिर में आग पर एक बहुत बड़ा कड़ाहा चढा हुआ था उसमें तेल खौल रहा था। उसने पहले देवी की पूजा की फिर उस कड़ाहे के खौलते तेल में कूद गया। उसका शरीर जलभुन गया। मंदिर के खंभे की ओट से विक्रमादित्य यह सारा दृश्य देख रहे थे।
तभी चौंसठ योगिनियां वहां प्रकट हो गई। उन्होंने उसका जला-भुना शरीर कड़ाह से बाहर निकाला और उसका मांस खाने लगीं। जब वे तृप्त होकर चली गई तो देवी ने वहां प्रकट होकर उसके कंकाल पर अमृत की बूंदे छिड़की। अमृत बूंदे छिड़कते ही वह जीवित होकर उठ बैठा। उसका शरीर फिर से पहले जैसा हो गया। उसने बड़ा आदर से देवी को प्रणाम किया। देवी ने उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राएं प्रदान कर दीं। राजा कीर्तिध्वज प्रसन्न मन से वहां से वापस लौट आया।
कीर्तिध्वज के जाने के बाद, विक्रमादित्य भी जाकर उस कड़ाह में कूद गए। पहले की तरह फिर योगिनियां आई, और मांस खाकर चली गई। देवी ने फिर प्रकट होकर, अमृत छिड़का और विक्रमादित्य को एक लाख स्वर्ण मुद्राएं प्रदान कीं लेकिन एक लाख स्वर्ण मुद्राएं पाने पर वे वहां से नहीं गए और बार-बार कड़ाहे में कूदने लगे और हर बार देवी से एक लाख स्वर्ण मुद्राएं पाने लगे।
यह देखकर देवी विक्रमादित्य पर प्रसन्न होकर बोली-'वत्स, मैं तुम्हारे त्याग और साहस से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम अपनी इच्छानुसार मुझसे कुछ भी मांग सकते हो। बोलो क्या चाहिए तुम्हें?'
विक्रमादित्य ने कहा-'देवी मां, यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो दया करके मुझे वह थैली दे दिजिए, जिसमें से आप हर बार एक लाख स्वर्ण मुद्राएं निकालती हैं।'
देवी ने वह थैली विक्रमादित्य को दे दी। विक्रमादित्य को दे दी। विक्रमादित्य देवी द्वारा दी गई वह थैली लेकर वापस लौट आए। विक्रमादित्य के जाते ही वहां से वह मंदिर और देवी की प्रतिमा लुप्त हो गई। अब वहां कुछ भी नहीं था। अगले दिन जब वापस कीर्तिध्वज उस स्थान पर गया तो उसे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वह निराश होकर अपने महल में लौट आए और अन्न-जल त्याग दिया। कई दिन इसी तरह से गुजर गए और जब राजा कीर्तिध्वज की हालत बिगड़ने लगी तो विक्रमादित्य उनके पास गए। उन्होंने राजा से कहा-"महाराज, आपको कौन-सा दुःख है? आपके दुख को देखकर सारी प्रजा व्याकुल है, कृपया अपना दुख मुझे बताइए मैं उसका निवारण करुंगा।'
लेकिन कीर्तिध्वज खामोश रहे। उनकी खामोशी देखकर विक्रमादित्य ने फिर कहा-"महाराज, जब आपने मुझे नौकरी पर रखा तो मैंने कहा था, जो काम कोई नहीं कर सकेगा, उस काम को मैं करुंगा। अब वह अवसर आ गया है कृपया मुझे बताइए आपको क्या दुख है?"
आखिरकार राजा कीर्तिध्वज को अपने दुख का कारण बताना ही पड़ा। उन्होंने एक लाख स्वर्ण मुद्राएं के मिलने की कहानी विक्रमादित्य को सुना दी और कहा कि अब उस जगह न मंदिर है और न देवी की मूर्ति। विक्रमादित्य ने उन्हें ढाढस बधाया और कहा-"महाराज, आप चिंता न करें। आप सवेरे उठकर, नहा-धोकर दान के सिंहासन पर बैठें। आपका दान उसी तरह चलेगा, जिस तरह पहले चला करता था।' यह कहकर उन्होंने देवी द्वारा दी गई स्वर्ण मुद्राओं की वह थैली उन्हें देते हुए कहा- महाराज, आप प्रतिदिन इस थैली से एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं निकाल सकते हैं। यह थैली कभी खाली नहीं होगी। मुझे आपका रोज-रोज कड़ाह में कूद कर प्राण गंवाना देखकर दुःख हुआ था। मैंने आपको वचन दिया था कि जो काम कोई न कर सके, उसे मैं कर सकता हूँ उस काम को कर के मैंने देवी से वह थैली प्राप्त कर ली, और अपना वचन पूरा कर दिया। अब मुझे आज्ञा दें। अब मैं अपने देश जा रहा हूँ। मेरी प्रजा मेरी राह देख रही होगी। मैं उज्जैन का राजा विक्रमादित्य हूँ।
यह सुनते ही राजा कीर्तिध्वज विक्रमादित्य के पैरों में गिर पड़ा और कहा-"मैं धन्य हो गया महाराज जो आपके दर्शन हुए। मैंने आपके बारे में जो कुछ सुना था, वह सब मेरे सामने साकार हुआ। आप सचमुच महान हैं।"
यह कहानी सुनाकर पुतली बोली-"कहो राजा भोज! क्या कभी तुमने ऎसा दान दिया है, जैसा हमारे राजा विक्रमादित्य ने राजा कीर्तिध्वज को दिया?" यह कहकर पुतली अदृश्य होकर सिंहासन पर अपने स्थान में समा गई।
पुतली का प्रश्न सुनकर राजा भोज के सामने महल लौट जाने के अलावा कोई चारा नहीं था। उस दिन भी वह सिंहासन पर नहीं बैठ पाए।