सत्रहवें दिन जब राजा भोज अपने राजदरबार में आया और सिंहासन पर बैठने की इच्छा से अपना कदम आगे बढाया तो क्रमानुसार सिंहासन में जड़ी तारामती नाम की सत्रहवीं पुतली खिलखिलाती हुई उनके सामने प्रकट हो गई और उनका रास्ता रोक लिया। राजा भोज ने तुरंत ही अपना पैर पीछे खींच लिया, वह अचंभित थे कि ऎसा क्या है कि ये पुतली सारे दिन और सारी रात शांत रहती हैं लेकिन जैसे ही सिंहासन पर बैठने का मुहूर्त होता है बोलने लगती हैं।
राजा भोज को सोच-विचारों ए डूबा देख पुतली बोली-"क्या सोच रहें हो राजा भोज? सोचने से कोई फायदा नहीं। तुम इस सिंहासन पर बैठने के लिए जितने लालायित हो अगर इतना ध्यान तुम विक्रमादित्य के कारनामों को सुनकर अपने व्यवहार को बदलने में लगाते तो यह सिंहासन स्वयं तुम्हारे पास चल कर आता, लेकिन तुम्हें विक्रमादित्य जैसे बनने में कई जन्म लग जाएंगे। खैर, अब मैं तुम्हें विक्रमादित्य के पराक्रम धैर्य, अतिथि सत्कार की कथा सुनाती हूँ।'यह कहकर पुतली ने कथा सुनानी आरंभ की-
"एक दिन राजा विक्रमादित्य नदी के तट पर बने हुए अपने महल के प्राकृतिक सौंदर्य को निहार रहे थे। बरसात का महीना था, इसलिए नदी अपने उफान पर थी। इतने में उनकी नजर एक पुरुष, एक स्त्री और एक बच्चे पर पड़ी। उनके वस्त्र जीर्ण-शीर्ण थे और चेहरे पीले पड़े हुए थे। तीनों ने एक-दूसरे का हाथ थामा और उफनती नदी में छ्लांग लगा दी। यह देख विक्रमादित्य ने बिना एक पल गंवाए उनकी रक्षा के लिए उफनती नदी में छ्लांग लगा दी। तेजी से तैरकर तीनों को एक साथ बचाना असंभव था इसलिए उन्होंने देवी द्वारा दिए दोनों बेतालों का स्मरण किया। पलक झपकते ही दोनों बेताल विक्रमादित्य की सेवा में उपस्थित होकर बोले-"क्या आज्ञा है स्वामी, हमें क्यों याद किया?"
विक्रमादित्य बोले-"मैं डूबते पुरुष को बचाता हूँ, तुम दोनों स्त्री और बच्चे की प्राण रक्षा करो।"
विक्रमादित्य का आदेश पाते ही दोनों बेताल स्त्री और बच्चे को बचाकर बाहर ले आए। राजा ने अपने प्रयास द्वारा पुरुष को बचा लिया। जब तीनों सामान्य अवस्था में आ गए तो विक्रमादित्य ने उनसे पूछा-"तुम कौन हो और इस प्रकार नदी में कूद कर आत्महत्या क्यों करना चाहते थे?' पुरुष बोला-"मैं उज्जैन नगरी का एक गरीब ब्राह्मण हूँ। यह मेरी पत्नी और बच्चा है। अत्यधिक गरीब होने के कारण मैं अपने परिवार का पालन-पोषण करने में असमर्थ हूँ। इसी गरीबी से तंग आकर मैं अपने परिवार सहित आत्महत्या करना चाहता था। यह सुनकर विक्रमादित्य बोले-'अच्छा एक बात बताओ तुम्हारे परिवार की यह दीन अवस्था क्यों हुई है? क्या तुम्हारी आय का कोई साधन नहीं?
ब्राह्मण बोला-"महाराज, इस राज्य के लोग इतने आत्मनिर्भर हैं कि अपना सारा काम खुद ही करते हैं, इसलिए मुझे कोई रोजगार भी नहीं देता।
विक्रमादित्य बोले-'तुम चिंता मत करो और आत्महत्या का विचार त्याग दो। आज से तुम मेरे अतिथि हुए। चलकर मेरे साथ महल की अतिथिशाला में रहो।'
ब्राह्मण बोला-'नहीं महाराज, महल में रहने के तौर-तरीके हमें नहीं आते। हम ठहरे अत्यंत निर्धन लोग। हमारे रहने-सहने और खाने-पीने का ढंग अलग-सा है।'
'तुम लोग जिस ढंग से रहना चाहो रह सकते हो।' यह वचन देकर विक्रमादित्य उन्हें अपने महल में ले आए।
ब्राह्मण अपने परिवार के साथ महल की अतिथिशाला में रहने लगा। उनकी देख-रेख के लिए राजा ने नौकर-चाकर नियुक्त कर दिए। वे वहां मौज-मस्ती से रहने लगे। अपनी मर्जी से खाने-पीने और आरामदेह पलंग पर सोते। उन्हें किसी चीज की कमी नहीं थी लेकिन वे सफाई पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते थे। जो कपड़े पहनते थे उन्हें कई दिनों तक नहीं बदलते थे। जहां सोते वहीं थूकते और मल-मूत्र त्याग भी कर देते। महल में दुर्गन्ध फैलने लगी। सेवकों ने राजा से ब्राह्मण परिवार के रहने सहने के ढंग पर शिकायत की। लेकिन विक्रमादित्य उन्हें वचन दे चुके थे। इसलिए उन्होंने कहा-" कोई बात नहीं, तुम लोग साफ-सफाई पर अपना ध्यान दो। उन्हें किसी भी बात की तकलीफ नहीं होनी चाहिए।'
कुछ दिनों तक तो नौकर-चाकर धीरज से सब कुछ सहते रहे लेकिन कब तक ऎसा चलता। दुर्गन्ध के मारे उनका बुरा हाल था। वे वहां से भाग गए। विक्रमादित्य ने कई अन्य नौकरों को ब्राह्मण परिवार की सेवा में भेजे लेकिन सब के सब एक जैसे ही निकले। सबके लिए यह काम असंभव साबित हुआ और वे भी वहां से भाग गए लेकिन विक्रमादित्य अपनी कर्तव्य निष्ठा से पीछे नहीं हटे। अब उन्होंने खुद ही ब्राह्मण परिवार की सेवा का बीड़ा उठाया और उनकी सेवा में लग गए। उठते-बैठते, सोते -जागते वे उनकी हर इच्छा पूरी करने लगे। एक दिन ब्राह्मण ने विक्रमादित्य से पूछा-"राजन, आप अकेले यह सब क्यों करते हैं आपके सेवक कहां गए?"
विक्रमादित्य बोले-'आप सेवकों की चिन्ता न करें, आपका सबसे बड़ा सेवक स्वयं सेवा में उपस्थित है। आप आज्ञा देते रहें मैं आपकी हर आज्ञा का पालन करुंगा।"
विक्रमादित्य ने ब्राह्मण को यह अहसास न होने दिया कि दुर्गन्ध के कारण उसके सेवक भाग खड़े हुए हैं। दुर्गन्ध के कारण उनका माथा फटा जा रहा था लेकिन कभी भी उन्होंने कुछ नहीं कहा। उनके कहने पर वे ब्राह्मण के पांव दबाते। ब्राह्मण परिवार ने हर संभव प्रयत्न किया कि विक्रमादित्य उनके आतिथ्य से तंग आकर अतिथि- सत्कार भूल जाएं और अभद्रता से पेश आएं, लेकिन उनकी हर कोशिश असफल रही।
एक दिन ब्राह्मण ने विक्रमादित्य की परिक्षा लेने की ठान ली। उसने विक्रमादित्य को आदेश दिया कि उसके शरीर पर लगी विष्ठा को साफ करें तथा अच्छी तरह नहला -धुलाकर उन्हें साफ वस्त पहनाएं। आदेश पाते ही विक्रमादित्य जैसे ही उनकी विष्ठा साफ करने को आगे बढे तभी ब्राह्मण ने अपने हाथ-पैर समेट लिए। उसके चेहरे पर तेज चमकने लगा। उसके शरीर पर देवताओं द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र आ गए। उसने विक्रमादित्य को गले से लगा लिया।
विक्रमादित्य ने देखा कि ब्राह्मण का कायाकल्प होने के साथ ही उसकी पत्नी और पुत्र का भी कायाकल्प हो गया है। तब वरुण रुपी ब्राह्मण ने कहा-'राजन् मैं वरुण देव हूँ। तुम्हारी परिक्षा के लिए मैंने यह रूप धरा था और तुम्हारे अतिथि-सत्कार की प्रशंसा सुनकर परिवार सहित यहां आए थे। जैसा मैंने सुना था वैसा ही तुम्हें पाया इसलिए मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम्हारे राज्य में कभी कोई भूखा न रहेगा।' यह कहकर वरुण देव परिवार सहित अंतर्ध्यान हो गए। यह कथा सुनाकर पुतली बोली-" अब तुम स्वयं विचार करो राजा भोज इस सिंहासन का स्वामी इतना प्रजापालक था कि उसकी परीक्षा लेने के लिए देवतागण भी आते थे। अगर तुमने कभी अपने प्राणों पर खेलकर किसी गरीब प्रजा की जान बचाई हो तथा उसका इतना मनोयोग से अतिथि सत्कार किया हो तो तुम बेझिझक इस सिंहासन पर बैठ सकते हो।' यह कहकर पुतली अदृश्य हो गई।
कुछ क्षण असमंजस में पड़े रहने के बाद राजा भोज सिंहासन पर बैठने का विचार त्याग, अपने महल में लौट गए।