अठारहवें दिन जैसे ही राजा भोज ने सिंहासन पर बैठने का मन बनाया, उनकी बाई आंख फड़कने लगी। उन्होंने इसे अशुभ मानकर अपना पैर वापस खींच लिया और बोले-'सिंहासन में जड़ी पुतलियों! आज मैं इस सिंहासन पर नहीं बैठूंगा। यदि तुममें से कोई कुछ कहना चाहता है या कोई कथा सुनाना चाहती है तो सुना दे, मैं सुनने को तैयार हूँ।
राजा भोज की बात सुनकर प्रियदर्शनी नाम की अठारहवीं पुतली उनके सामने प्रकट होकर बोली-'राजा भोज! तुम्हारा जन्म राजकुल में होने मात्र से ही तुम इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी नहीं हो गए हो। इसके लिए संस्कारों का भी होना बहुत जरूरी है। मनुष्य के संस्कार उसका पालन-पोषण, वातावरण ही उसे बनाता है। तुम इस सिंहासन के योग्य हो या नहीं, इस बात का विचार मेरे द्वारा कही गई विक्रमादित्य की इस कथा को सुनने के बाद स्वयं ही करना।' पुतली ने कथा सुनानी आरंभ कर दी-
विक्रमादित्य हमेशा की तरह अपने राजदरबार में बैठे अपने सभासदों से विचार-विमर्श कर रहे थे। तभी एक सेवक घबराया हुआ राजदरबार में पहुंचा और बोला-' महाराज, एक गुप्तचर ने सूचना भिजवाई है कि एक राक्षस सेना लेकर हमारे राज्य पर हमला करने आ रहा है।'
यह सूचना सुनकर विक्रमादित्य ने अपने सेनापति को आज्ञा दी कि वह सेना तैयार करे। राजा का आदेश पाते ही सेना महल के चारों ओर फैल गई। विक्रमादित्य भी अपनी तलवार लेकर मैदान में पहुंच गए। देखते ही देखते राक्षसों की सेना ने विक्रमादित्य की सेना पर हमला कर दिया। राक्षसों का सरदार विक्रमादित्य को ललकारते हुए बोला-"विक्रमादित्य! आज मैं तुम्हें समाप्त कर दूंगा। तुम्हारे होते हमारे सारे कामों में विघ्न पड़ रहा है। हम जो भी कार्य करते हैं तुम उसमें रुकावट डाल देते हो, इस कारण हमारे कई राक्षस मारे जा चुके हैं।'
विक्रमादित्य बोले-'अगर अपनी खैरियत चाहते हो तो अपनी सेना लेकर यहां से भाग जाओ।'
विक्रमादित्य की बात सुनकर राक्षस ने अपनी तलवार निकाली और जैसे ही उसने उन पर हमला करना चाहा, विक्रमादित्य ने फुर्ती से अपनी तलवार से राक्षस का सिर धड़ से अलग कर दिया लेकिन यह देखकर विक्रमादित्य आश्चर्य चकित रह गए कि अब एक राक्षस की जगह वहां दो राक्षस खड़े थे । उन्होने तुरंत देवी द्वारा दिए गये बेतालों को याद किया । याद करते ही बेताल तुरंत उसके सामने उपस्थित हो गए । विक्रमादित्य ने उसके इस चक्कर के बारे मे पूछा तो बेताल बोले - महाराज इस राक्षस के पेट में एक मोहिनी है जो इसके मरते ही इसके भी दो टुकड़े होते हैं उन पर मंत्र फूंक कर उन्हे पुनः जीवित कर देती है ।
विक्रमादित्य बोले - इसका कोई उपाय नही है ?
बेताल बोले - महाराज, इस राक्षस के पेट मे जो मोहिनी है वह देवलोक की है वही इसे पुनः जिन्दा कर देती है । इस वक्त तो इसे बस मे करने की हमारे पास कोई तरकीब नहीं है अतः आप इस वक्त इस राक्षस से समझौता कर युद्ध टाल दीजिए । हम बाद में कोई तरकीब पता कर इस समस्या का समाधान करने की चेष्टा करेंगें ।
विक्रमादित्य बोले - नहीं, मैं इस राक्षस से कोई समझौता नहीं कर सकता । तुम दोनो हमारी सेना के साथ मिलकर इससे युद्ध करो । तब तक मैं एक यज्ञ करके देवताओं को निमंत्रण देता हूं ।
महल मे पहुंचकर विक्रमादित्य ने यज्ञ शुरु कर सबसे पहले इंन्द्र देवता का स्मरण किया । इन्द्र ने आते ही कहा - तुमने इस युद्ध के अवसर पर यज्ञ का आयोजन कर ठीक नही किया, तुम्हे युद्ध करना चाहिए था । खैर निश्चिन्त होकर यज्ञ करो । मैं तुम्हारी सेना का रक्षा करुंगा लेकिन एक बात याद रखना कि बिना तुम्हारी इस युद्ध मे लड़े, तुम्हे सफलता नही मिलेगी ।
विक्रमादित्य ने फिर समुद्र देवता की स्तुति आरम्भ कर दी । स्तुति आरम्भ करते ही विक्रमादित्य के कानो मे एक आवाज गुंजी - विक्रमादित्य ! मैं समुद्र देवता तुम्हारी स्तुति से प्रसन्न हूंँ तु किसी भी दूत के हाथ निमंत्रण भिजवाओगे तो मैं आने के वारे मे बिचार करुंगा ।
समुद्र देवता की वानी सुनकर विक्रमादित्य ने एक ब्राह्मण को उनके पास निमंत्रण को भेज दिया । फिर उन्होने अन्य देवताओं की स्तुति करके यज्ञ शुरु कर दिया। उधर ब्राह्मण विक्रमादित्य का निमंत्रण लेकर समुद्र के मध्य खड़ा होकर समुद्र देवता का आह्वान करने लगा । उसने ऊंची आवाज मे पुकार कर कहा - हे समुद्र देवता ! मैं महाराजा विक्रमादित्य के दूत के रुप मे आपको निमंत्रण करता हूंँ । वे एक यज्ञ करा रहे हैं, आप उस यज्ञ मे सादर आमंत्रित है
ब्राह्मण की बात सुनकर समुद्र देवता बोले-"हां, मैं जानता हूँ कि विक्रमादित्य अपने शत्रु राक्षस से सुरक्षा हेतु यह यज्ञ कर रहे हैं। विक्रमादित्य जैसे ज्ञानी, परोपकारी एवं प्रजा वत्सल राजा का निमंत्रण मुझे सहर्ष स्वीकार है लेकिन मैं चाहकर भी यज्ञ में सम्मिलित नहीं हो सकता।'
ब्राह्मण ने आश्चर्य से पूछा-"लेकिन क्यों समुद्र देवता?
समुद्र देवता बोले-'इसके पीछे कारण यह है कि अगर मैं वहां गया तो मेरे साथ जल भी जाएगा। जल गया तो लहलहाती फसलें डूब जाएगी, मार्ग में गाँव और नगर नष्ट हो जाएंगे। मात्र विक्रमादित्य का मन रखने के लिए हजारों लोगों के जीवन को संकट में डालना बुद्धिमानी की बात नहीं है। अतः तुम विक्रमादित्य से कहना कि हमने उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया है किंतु उनकी ही भलाई के कारण हम उपस्थित होने में असमर्थ है।' यह कह कर समुद्र देवता ने एक अद्भुत घोड़ा ब्राह्मण को देते हुए कहा-"यह घोड़ा तुम हमारी ओर से विक्रमादित्य को भेंट स्वरुप दे देना।"
ब्राह्मण ने समुद्र देवता को प्रणाम किया और घोड़े की लगाम पकड़ कर पैदल ही वहां से अपने राज्य की ओर चल पड़ा। ब्राह्मण को पैदल चलते देख घोड़ा मनुष्य की बोली में बोला-'दूर का सफर है पैदल क्यों चलते हो? मुझ पर सवार क्यों नहीं हो जाते?"
ब्राह्मण बोला-'समुद्र देवता ने तुम्हें विक्रमादित्य का उपहार स्वरुप भेंट किया है, उसका उपयोग मैं कैसे कर सकता हूँ?
घोड़ा बोला तुम राजा के दूत हो, दूत का जब राजा का संदेश ज्यों का त्यों किसी के पास पहुंचाने का अधिकार है तो उस राजा को प्राप्त उपहार का उपयोग करने का भी उस समय तक अधिकार है, जब तक वह राजा तक न पहुंच जाए।"
यह सुनकर ब्राह्मण घोड़े पर बैठ गया। घोड़े ने शीघ्र ही ब्राह्मण को विक्रमादित्य के पास पहुंचा दिया। ब्राह्मण ने विक्रमादित्य को सारा वृतांत सुनाकर घोड़ा उनके हवाले कर दिया। यज्ञ समाप्त कर विक्रमादित्य समुद्र देवता द्वारा दिए गए घोड़े पर बैठकर युद्ध क्षेत्र में कूद पड़े लेकिन राक्षसों का सरदार जितनी बार भी मरता उतनी बार फिर से जिंदा होकर कई राक्षस और पैदा हो जाते। यह देख कर विक्रमादित्य ने बेतालों को अपने पास बुलाया और आज्ञा दी-"तुम किसी प्रकार भी राक्षसों के सरदार को मेरे सामने जीवित पकड़ कर लाओ।'
आज्ञा पाते ही बेताल राक्षसों के सरदार को पकड़कर विक्रमादित्य के पास ले आए। विक्रमादित्य ने भगवान का नाम स्मरण किया और तलवार उसकी नाभी में घुसेड़ दी। तलवार घुसते ही उसकी नाभि से अनोखा रक्त निकला और देखते ही देखते वह रक्त एक स्त्री में बदल गयी। उस स्त्री ने जमीन से मिट्टी उठाकर राक्षस के दोनों कधों पर डाला। राक्षस सरदार जिंदा हो गया और उसके साथ दो राक्षस और आ गये। यह क्रम कई बार चला। तभी विक्रमादित्य के कानों में इंद्र की आवाज गूंजी-" विक्रमादित्य, फौरन बेतालों को आदेश दो कि वे इस स्त्री को अपने वश में कर लें।' विक्रमादित्य का आदेश पाते ही बेतालों ने स्त्री को पकड़ लिया। तब स्त्री ने विक्रमादित्य से कहा-"विक्रमादित्य, मृत्यु लोक का कोई भी प्राणी मुझे नहीं पकड़ सकता। मैं देवलोक की दासी हूँ। एक बार देवताओं की आज्ञा न मानने के कारण उन्होंने मुझे इस राक्षस की सेवा में भेज दिया था किंतु आज मैं तुम्हारे शौर्य के कारण मुक्त हो चुकी हूँ। अब मैं देवलोक जा रही हूँ।'
राक्षसों के सरदार के मरते ही उसकी सेना मैदान छोड़कर भाग गई। युद्ध समाप्ति के दो दिन बाद विक्रमादित्य अपने दरबार में बैठे अपने सभासदों से विचार-विमर्श कर रहे थे। तभी एक सेवक ने सूचना दी-'महाराज, द्वार पर एक राक्षस आया हुआ है और आपसे मिलने की अनुमति चाहता है।'
यह सुनकर विक्रमादित्य आश्चर्यचकित होकर बोले-'राक्षस! अब राक्षस का यहां क्या काम? खैर, अंदर भेज दो उसे।'
राक्षस विक्रमादित्य के पास आकर बोला-"महाराज, यू तो हमारी पराजय और आपकी विजय हुई लेकिन आपका जो यश दानवीरता तीनों लोकों में फैला हुआ है उसे सुनकर ही मैं आपके पास आया हूँ। मैं आपके घोड़े को देखकर अंचभित था। मेरा विचार था कि यदि राक्षस जाति विजयी होती है तो मैं वह घोड़ा अपने पास रखूंगा लेकिन मेरा यह स्वप्न अधूरा रह गया।
यह सुनकर विक्रमादित्य ने घोड़ा राक्षस को दे दिया। तब राक्षस बोला-"राजन मैं कोई राक्षस नहीं हूँ। मैं दूसरे राज्य का ब्राह्मण हूँ, तप के द्वारा एक दिन मुझे भगवान शंकर के दर्शन हुए तो उन्होंने मुझे तुम्हारे पास राक्षस के रुप में जाने को कहा। वे आपकी दानशीलता की परिक्षा लेना चाहते थे। वास्तव में आप महान हैं। जो राजा अपने शत्रु को भी देवताओं से मिली भेंट दान में दे सकता है, उसकी दानवीरता का कोई मुकाबला नहीं कर सकता।' यह कहकर ब्राह्मण अपने असली रुप में आ गया ।
विक्रमादित्य ने घोड़े के साथ-साथ ब्राह्मण को बहुत सारा धन देकर वहां से विदा किया। ब्राह्मण विक्रमादित्य को आशीर्वाद देकर खुशी-खुशी वहां से चला गया।'
यह कहानी सुनाकर पुतली बोली-"सुना तुमने राजा भोज! इतने दानी थे हमारे राजा विक्रमादित्य। उन्होंने देवताओं द्वारा दिया उपहार भी दान में दे दिया। क्या तुमने कभी ऎसा दान किया है?" अगर हां तो तुम इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो, अन्यथा नहीं।' यह कहकर पुतली अदृश्य होकर अपने स्थान पर समा गई।
पुतली की बात सुनकर राजा भोज ने अपनी गर्दन झुका ली लेकिन उनके मन से सिंहासन पर बैठने का लोभ नहीं गया। अब अगले दिन सिंहासन पर बैठने का विचार कर वे अपने महल में लौट आए।