उन्नीसवें दिन प्रातः उठ कर राजा भोज को पिछले दिनों की तरह सिंहासन पर बैठने का मोह फिर सताने लगा। वह सिंहासन के पास आए और जैसे ही उन्होंने सीढी की ओर कदम बढाना चाहा तभी सिंहासन से निकल कर मदनमोहिनी नाम की उन्नीसवीं पुतली उनके सामने खड़ी हो गई और बोली-"ठहरो राजा भोज! अगर तुम इस सिंहासन पर बैठना चाहते हो तो पहले अपने अतीत में झांक कर देखो कि तुमने कोई ऎसा दान किया है जैसे हमारे महाराजा विक्रमादित्य करते थे? सुनों मैं तुम्हें उनकी दानवीरता की कहानी सुनाती हूँ। पहले उसे ध्यान से सुनो उसके बाद ही सिंहासन पर बैठने का विचार करना। "
यह कहकर पुतली ने राजा को यह कहानी सुनाई- "एक दिन की बात है सारा नगर गहरी निद्रा में सोया हुआ था। आधी रात को अचानक किसी स्त्री की रोने की आवाज सुनकर राजा विक्रामादित्य की नींद टूट गई और वे उठ बैठे। उन्होंने अपनी खड़ाऊ पहनी और जिस दिशा में आवाज आ रही थी उसी ओर चल दिए। कुछ दूर चलने पर उन्होंने देखा कि एक स्त्री अपने बाल बिखराए जोर-जोर से रो रही है,और उसके पास ही एक व्यक्ति सुली पर लटका हुआ है। उस स्त्री के पास जाकर विक्रमादित्य ने उससे पूछा- "देवी तुम इतनी रात गए इस बियावान जगह पर बैठी रो क्यों रही हो?और सूली पर लटका शव यह किसका है?डरो मत मुझे पूरी बात विस्तार से बताओ,मैं राजा विक्रमादित्य हूँ। मैं यथासंभव तुम्हारी मदद करुंगा। "
राजा विक्रमादित्य की बात सुनकर स्त्री बोली- "महराज मैं भाग्य की मारी हुई एक नारी हूँ और सूली पर लटका यह शव मेरे पति का है। मेरा पति एक चोर था। चोरी के आरोप में उसको आपके सैनिकों ने पकड़ लिया और सूली पर चढा दिया।
यह सुनकर विक्रमादित्य बोले- "चोरी करना बहुत बड़ा अपराध है और इस अपराध के लिए सजा तो मिलती ही है। अगर तुम मेरे पास पहले ही आ जाती तो मैं कुछ दया भाव दिखा कर विचार करता लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता। " अब इस तरह रोने से कोई लाभ नहीं है। तुम मेरे साथ चलो मैं तुम्हें राजकोष में से ढेर सारा धन दिलवादूंगा जिससे तुम्हारा सेष जीवन सुखमय बीत सके। "
विक्रमादित्य की बात सुनकर स्त्री बोली- "मुझे धन की जरुरत नहीं है। मैं अपना जीवन मेहनत-मजदूरी करके व्यतीत कर लूंगी, लेकिन मेरा एक नियम था कि मैं अपने पति को खाना खिलाएं बिना स्वयं नही खाती थी और आज मैं सुबह से ही भूखी हूँ मैं चाहती हूँ की पहले मैं एक ग्रास अपने मृत पति के मुंह में डालूं तब स्वयं भोजन कारुं लेकिन मेरा हाथ उनके मुंह तक नहीं पहुंच पा रहा है। "
विक्रमादित्य बोले-" तुम यह कैसी बात कर रही हो देवी! क्या मृत आदमी कभी भोजन कर सकता है?"
स्त्री बोली- "अब तक मुझे पता नहीं था कि मेरा पति मर चुका है इसलिए मन में उसे खिलाने की भावना ज्यों की त्यों बनी हुई है। अब जबकि मेरा पति नहीं रहा तो मैं अपने मन में पति के प्रति कोई भावना नहीं रखूंगी, परंतु आज तो मैं पति को खिलाए बगैर खाना नहीं खाऊंगी।'
यह सुनकर विक्रमादित्य उस स्त्री की भावना समझते हुए बोले-'ठीक है देवी तुम मेरे कंधे पर चढ कर अपने पति के मुंह में खाना डाल दो।' वह स्त्री विक्रमादित्य के कंधे पर बैठ गई और अपने पति के मुंह में खाना डालने लगी। जैसे ही उसने भोजन का ग्रास उसके मुंह में डाला वैसे ही वह ग्रास नीचे धरती पर गिर पड़ा। धरती पर गिरते ही भोजन का वह ग्रास वेशकीमती हीरे-जवाहरतों में बदल गया। यह देखकर विक्रमादित्य को आश्चर्य हुआ। उन्होंने स्त्री से पूछा-'सच-सच बताओ तुम कौन हो?
स्त्री बोली-'विक्रमादित्य वास्तव में मैं एक जादूगरनी हूँ और मुझे अपनी कला में निपुणता हासिल है लेकिन मेरा शत्रु है जिसे मैंने कुछ समय के लिए अचेत कर दिया है जो इस वक्त सूली पर लटका हुआ है, अगर मैंने इसे नहीं मारा तो यह होश में आते ही मुझे समाप्त कर देगा। इसे मारने के लिए मुझे एक सत्यवादी और ज्ञानी पुरुष की आवश्यकता है। अगर आप मुझे अपना रक्त दे दें तो मैं अपने इस शत्रु से अपनी रक्षा कर सकती हूँ। इस काम के लिए मैं आपको मालामाल कर दूंगी।'
विक्रमादित्य ने बेतालों को याद किया। दोनों बेताल तुरंत विक्रमादित्य की सेवा में उपस्थित हो गए। विक्रमादित्य ने बेतालों से जादूगरनी के बारे में पूछा। बेताल बोले- 'महाराज, यह स्त्री सच बोल रही है अगर इसके प्राणॊं की रक्षा आपसे होती है तो इसकी रक्षा करें। अगर यह जीवित रही तो आपकी ॠणी रहेगी। यदि यह मर जाती है तो इसका शत्रु आपका भी शत्रु बन जाएगा।'
"ठीक है तुम्हें अपना रक्त देने के लिए तैयार हूँ। " यह कहकर उन्होंने अपने सीने में तलवार घोंप दी। उनके सीने से खून की बौछार निकलने लगी। उस स्त्री ने बीस बार अपनी अंजली में खून भर कर उस शव पर छिड़का। जब उसने इक्कीसवीं बार खून छिड़का तो सूली पर लटका वह व्यक्ति अदृश्य हो गया। यह देख वह स्त्री अपनी सफलता पर प्रसन्न होकर बोली-'मैं अपने उद्देश्य में सफल हुई। मांगो आपको क्या चाहिए।'
विक्रमादित्य अचेत हो गए थे। उनके शरीर से काफी खून निकल चुका था उनकी हालत बहुत नाजुक थी। उनकी ऎसी हालत देख जादूगरनी ने एक मंत्र बुदबुदाया। मंत्र बुदबुदाते ही वहां एक बूढा व्यक्ति प्रकट हुआ। जादूगरनी ने उससे कहा-'हे जादूगरों के वैद्य! आज इस महान व्यक्ति के कारण ही मैं अपने शत्रु को मारने में सफल हुई हूँ। अतः आप इसकी प्राणॊं की रक्षा करें।'
बूढा वैद्य बोला-"आप चिंता न करें जादू नगर की राजकुमारी।' बूढा वैद्य विक्रमादित्य के उपचार में लग गया। तीन घण्टे की अथक मेहनत के बाद विक्रमादित्य की चेतना लौटी। उन्होंने आंख खोली और उठ बैठे। यह देखकर जादूगरनी बहुत प्रसन्न हुई। बोली-'हम आपके बहुत आभारी हैं। आपने अपने प्राण का मोह न करके अपना खून देकर हमारी सहायता की। बताओ हम आपके लिए क्या कर सकते हैं?"
विक्रमादित्य बोले-'यह तो एक मनुष्य होने के नाते मेरा कर्त्तव्य है कि मैं किसी की सहायता करूं। मुझे इसके बदले कुछ नहीं चाहिए।'
स्त्री बोली-'राजन आपके विचार बहुत महान हैं। मैं आपको एक सोने से भरा थाल भेंट करना चाहती हूँ। इसमें से जितना जी चाहो सोना खर्च कर लो लेकिन यह थाल कभी खाली नहीं होगी।'
विक्रमादित्य बोले-'मुझे धन की आवश्यकता कदापि नहीं है। मुझे तो बस एक ही बात की चिन्ता रहती है कि मेरे राज्य में जब अकाल पड़ता है तो अन्न की कमी हो जाती है। ऎसे में सोना तो खाया नहीं जा सकता। अगर तुम मुझे कुछ देना ही चाहती हो, तो मुझे अन्नपूर्णा दे डालो, जिसके बल पर मैं अपनी राज्य की प्रजा को मैं उनकी इच्छा का भोजन दे सकूं।'
यह सुनकर जादूगरनी बोली-'राजन् आपकी यह इच्छा अवश्य पूरी होगी लेकिन मेरे द्वारा नहीं, मेरी बहन द्वारा। आपको यहां से कुछ फासले पर स्थित झोपड़े पर चलना होगा, वहां मेरी बहन निवास करती है, जो अन्नपूर्णा की स्वामिनी है। उससे कहकर मैं आपको अन्नपूर्णा दिलवा दूंगी।' यह कहकर जादूगरनी विक्रमादित्य को लेकर नदी तट पर स्थित एक झोपड़े पर ले गई और अपनी बहन को आवाज दी। आवाज सुनकर एक सुन्दर स्त्री बाहर आई। जादूगरनी ने उस स्त्री को राजा विक्रमादित्य का परिचय देकर अपने साथ किए उपकार की बात बताई। यह सुनकर अन्नपूर्णा बोली-'मैं समझ गई। यह वही राजा विक्रमादित्य हैं जिसका यश तीनों लोकों में फैला हुआ है। कहो विक्रमादित्य! मैं आपकी क्या सहायता करू?
विक्रमादित्य बोले-'देवी मैं अपने राज्य से अन्न की कमी को दूर करना चाहता हूँ मेरे राज्य में कभी कोई व्यक्ति भोजन के कारण मृत्यु को प्राप्त न हो।' विक्रमादित्य की बात सुनकर उसने भोजन का एक थाल, जिस पर एक कीमती कपड़ा ढका हुआ था, विक्रमादित्य को दिया और बोली-"राजन जब भी आप इस थाल को अपने हाथ से उठाकर इसका कपड़ा हटाओगे, तो यह थाल आपको मनपसंद भोजन से भरा हुआ मिलेगा।'राजा विक्रमादित्य खुशी-खुशी अन्नपूर्णा का पात्र लिए अपने महल की ओर लौटने लगे। रास्ते में उन्हें एक साधू मिला। उसने विक्रमादित्य को रोककर कहा-"राजन् मैं बहुत भूखा हूँ क्या मुझे कुछ भोजन मिलेगा?'
विक्रमादित्य ने सोचा-"अन्नपूर्णा पात्र की परिक्षा ले लेनी चाहिए। यह सोचकर उन्होंने पात्र अपने हाथ में लिया और जैसे ही उसमें ढका कपड़ा हटाया तो थाल स्वादिष्ट व्यजनों से भर गया। संन्यासी से इच्छानुसार भोजन किया और तृप्त होकर राजा को आशीर्वाद देकर चलने लगा तो विक्रमादित्य ने कहा-'भोजनोपरांत आपको दक्षिणा देना भी मेरा धर्म है, कहो दक्षिणा में आप क्या लोगे?'
संन्यासी बोला-"राजन् आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मुझे इस अन्नपूर्णा पात्र को दे दें ताकि जब कभी मुझे भोजन की आवश्यकता पड़े, मैं इस पात्र से भोजन मांग लिया करुंगा, जिससे मुझे किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़े।
यह सुनकर विक्रमादित्य ने अन्नपूर्णा थाल संन्यासी को दे दिया और खाली हाथ अपने महल में लौट आए। यह कहानी सुनाकर पुतली अदृश्य हो गई। इस तरह सिंहासन पर बैठने का मुहूर्त भी निकल चुका था। उस दिन भी राजा भोज उदास मन से अपने महल में वापस आ गए।