पुतली विद्यावती की कथा

बीसवें दिन पुनः सोच-विचार के बाद भाग्य के सहारे खुद को छोड़कर राजा भोज सिंहासन की ओर बढे। उन्होंने सोच लिया था कि वे हर दिन प्रयास करते रहेंगे। जैसे ही वे सिंहासन की ओर बढे,तभी सिंहासन से विद्यावती नाम की पुतली प्रकट होकर उनके सामने आ खड़ी हुई और उनका मार्ग रोकते हुए बोली- "राजा भोज! तुम्हे सिंहासन पर उस समय तक बैठने का दुःसहास नहीं करना चाहिए, जबतक तुममे राजा विक्रमादित्य जैसा एक भी गुण मौजूद न हो । तुम्हे प्रयास करते रहना चाहिए और धैर्य रखना चाहिए कि शायद किसी पुतली की कथा का कोई गुण तुममे हो । जिससे तुम्हे वह सिंहासन पर बैठने की अनुमति दे दें । तो हम सभी पुतलियां उसके निर्णय को स्वीकार कर लेंगी ।और तुम इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो जाओगे । अब तुम मेरे मूंह से विक्रमादित्य के पराक्रम और प्राण न्योछावर करने वाली एक कथा सुनो । यह कहकर पुतली ने राजा भोज को कथा सुनानी आरंभ कर दी -

एक बार उज्जैन नगरी में कई दिनो तक मूसलाधार वर्षा होती रही । बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी । इससे राज्य अस्त-व्यस्त हो गया । जनता को परेशान देखकर राजा विक्रमादित्य ने पंडितो एवं राज ज्योतिषियों को बुलाकर इस वर्षा को रोकने का उपाय करने को कहा । ज्योतिषियों ने बताया - राजन, इस वर्षा को रोकने का एक ही उपाय है । अगर आप खुले मैदान मे एक पैर पर खड़े होकर वर्षा देवी की उपासना करें तो वर्षा का प्रकोप कम हो जाएगा फिर आप वर्षा देवी से एक यज्ञ का प्रण करें तो वर्षा बिल्कुल थम जाएगी ।

ज्योतिषियों की बात सुनकर विक्रमादित्य ने एक पैर पर खड़े होकर कई दिनो तक वर्षा देवी की उपासना की । उनकी उपासना से वर्षा का प्रकोप कुछ कम हुआ तब विक्रमादित्य ने वर्षा देवी से कहा - वर्षा देवी अगर तुम इस वर्षा को पूर्ण रुप से बन्द कर दो तो मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं एक महायज्ञ करुंगा ।

इतना कहते ही वर्षा एक दम रुक गई । वर्षा बन्द होते ही अपने वचन के अनुसार विक्रमादित्य ने एक महायज्ञ का आयोजन किया । यज्ञ मे राज्य के हि नही अपितु विश्व के सारे विद्वान और ब्राह्मणो को आमंत्रित किया गया । कई दिनो तक यज्ञ चलता रहा । यज्ञ की समाप्ति के अवसर पर अचानक एक ऋषि कुछ घबराए हुए से वहां पहुंचे । राजा विक्रमादित्य उस समय मंत्र-पाठ कर रहे थे । विक्रमादित्य ने उन्हे देखा लेकिन यज्ञ छोड़कर उठना असंभव था । यह उनकी मजबूरी थी उन्होने ऋषि को मन ही मन नमन किया ।

ऋषि ज्ञानी था उन्होंने भी राजा की अन्तर्मन की बात जानकर आशीर्वाद दे दिया। मंत्र-पाठ के बाद विक्रमादित्य ने ऋषि का स्वागत किया और मुस्कराकर पूछा-" आपने बिना किसी अभिवादन व सत्कार के मुझे आशीर्वाद क्यों दिया? क्योंकि ऎसा कहा जाता है कि बिना नमस्कार किए आशीर्वाद तो शाप के समान है। आपने ऎसा क्यों किया?'

ऋषि ने गंभीर होकर कहा-"महाराज! मैंने आपके मन की बात जान ली थी। आपने मन ही मन मुझे नमस्कार किया था इस कारण मैंने आपको आशीर्वाद दिया था।"

फिर विक्रमादित्य ने ऋषि से आने का प्रयोजन पूछा तो ऋषि ने बताया-"राजन् मैं एक कठिन समस्या में उलझा हुआ हूँ इस कारण मैं यज्ञ में भी नहीं आना चाहता था लेकिन यह सोचकर कि यज्ञ में जाने से आपसे मुलाकात होगी और आप मेरी कठिनाई को हल करेंगे, मैं आपके पास आया हूँ मैं नगर के बाहर वन में विद्याध्ययन हेतु गरीब बच्चों के लिए एक गुरुकुल चलाता हूँ आज सुबह जब मैं बच्चों को पढा रहा था तो अचानक न जाने कहां से दो राक्षस आए और छः बच्चों को उठा कर ले गए।"

ऋषि की बात सुनकर विक्रमादित्य बोले-'फिर क्या हुआ। ऋषिवर?"

ऋषि ने कहा-"मैंने उनसे बच्चों को छोड़ देने की प्रार्थना की लेकिन उन्होंने मेरी एक न मानी। उन्होंने कहा कि हमें अपनी शक्ति बढाने के लिए देवी को एक महादानी पुरुष की बलि देनी है। अतः हम इन बच्चों को ले जा रहे हैं। अगर तुम किसी महादानी पुरुष को ले आओ तो हम उसके बदले इन बच्चों को छोड़ देंगे। हे राजन्! आप प्रजापालक हैं। राक्षसों की शर्त मैंने आपके सामने रख दी। अब आप स्वयं निर्णय लें कि बच्चों को किस प्रकार मुक्त कराया जाए।'

यह सुनकर विक्रमादित्य ने अपनी सेना को अतिशीघ्र तैयार होने का आदेश दे दिया। आदेश सुनते ही ब्राह्मण-'नहीं महाराज ऎसा मत करना। उन राक्षसों का कहना है कि जो भी व्यक्ति हमारे पास आए निहत्था एवं अकेला हो। अन्यथा वे बच्चों को पहाड़ी से नीचे फेंक देंगे।'

यह सुनकर विक्रमादित्य ऋषि के साथ अकेले ही वन की ओर चल पड़े। वन में पहुचकर ऋषि ने अपनी कुटिया की ओर संकेत कर कहा-"राजन् यह मेरी कुटिया है। मैं यहां पर बच्चों को शिक्षा प्रदान करता हूँ।" यहीं से वे दोनों राक्षस बच्चों को उठा कर उस पहाड़ी पर ले गए हैं।' यह कहकर ऋषि ने उन्हें वह पहाड़ दिखा दी जहां राक्षस बच्चों को ले गए थे।

विक्रमादित्य बोले-'ऋषिवर आप चिंता न करें। राज्य की प्रजा की रक्षा करना मेरा दायित्व है, मैं उस पहाड़ पर जाऊंगा। अगर अपने प्राणों का मोह करके मैं उन बच्चों का जीवन न बचा सका तो मेरा जीवन व्यर्थ है।'यह कहकर वे पहाड़ी पर चढने लगे। पहाड़ी मार्ग खतरनाक था लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और वहाँ पहुंच गए जहां दोनों राक्षस उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

विक्रमादित्य को देखकर दोनों राक्षसों ने अट्टहास लगाया और पूछा-'अकेले आए हो विक्रमादित्य?"

विक्रमादित्य ने कहा-'तुम्हारी शर्त सुनकर मैं अकेला ही आया हूँ। बच्चे कहां है, उन्हें छोड़ दो। मैं उनकी रक्षा के लिए अपनी बलि के लिए तैयार हूँ।'

विक्रमादित्य की बात सुनकर दोनों राक्षस कुछ क्षण शांत रहे। फिर एक राक्षस ने विक्रमादित्य से कहा-'ठीक है, हम बच्चों को छोड़ रहे हैं। यह कहकर उसने बच्चों को अपनी विशाल भुजाओं से समेटा और हवा में उड़ाकर उन्हें ऋषि की कुटिया पर पहुंचा दिया। ऋषि बच्चों को पाकर प्रसन्न हुए और विक्रमादित्य को आशीष देने लगे।

अब राक्षस विक्रमादित्य को लेकर पहाड़ की एक गुफा में पहुंचे, जहां मां काली की मूर्ति स्थापित थी। उन्होंने विक्रमादित्य को देवी की प्रतिमा के आगे सिर झुकाने के लिए कहा। विक्रमादित्य देवी की प्रतिमा के आगे सिर झुका दिया और मन ही मन ईश्वर का स्मरण करने लगे। जैसे ही राक्षस ने उनकी गर्दन अलग करने के लिए फरसा उठाया तभी एक कर्कश आवाज सुन कर वह चौंक गया और उसके हाथ से फरसा छूट गया। कुछ ही क्षण वायु में सुगंध फैल गई। सुगंध इतनी मोहक थी कि विक्रमादित्य अपने सारे दुखों को भूलकर चारों ओर निहारने लगे। उन्होंने देखा कि सुगंध के कारण दोनों राक्षस अचेत हो गए थे।

तभी विक्रमादित्य ने देखा कि उनके सामने स्वयं देवराज इंद्र खड़े हैं। उन्होंने इंद्र को प्रणाम करके कहा-'इंद्र देव आप और यहां? ये दोनों राक्षस कौन थे?'

इंद्र बोले-'विक्रमादित्य दरअसल बात यह है कि मैं तुम्हारी परीक्षा लेना चाहता था। इसीलिए मैं तुम्हारे पास ऋषि के वेश में आया और इन राक्षसों के बारे में बताया। इस प्रकार मैं दोनों कार्य एक साथ करना चाहता था।'

विक्रमादित्य ने आश्चर्य से पूछा-"दो कार्य भगवन, मैं समझा नहीं।

वास्तव में इन दोनों राक्षसों ने इस वन में उत्पात मचा रखा था। इसलिए मुझे स्वयं धरती पर उतर कर इनका वध करना था। इस बहाना मैंने सोचा कि क्यों न तुम्हारी भी परीक्षा में सफल हुए। वास्तव में तुम इस संसार के तमाम राजाओं में सबसे शक्तिशाली, महादानी और प्रजा पालक हो।'यह कह कर देवराज इंद्र ने दोनों राक्षसों का वध स्वयं अपने हाथों से कर दिया और विक्रमादित्य को धन संपदा से भरपूर रहने का आशीर्वाद देकर देवलोक को प्रस्थान कर गए। इंद्र के वहां से जाने के बाद विक्रमादित्य भी अपने महल में लौट आए।'

कथा सुनाकर पुतली बोली-'राजा भोज! सुना तुमने, राजा विक्रमादित्य इतने प्रजापालक थे। अब तुम स्वयं विचार करो। क्या तुमने कभी अपनी प्रजा के प्राण बचाने के लिए अपने प्राणॊं की बाजी लगाई है?' यह कहकर पुतली अदृश्य हो गई।

पुतली की बात सुनकर राजा भोज सोचने लगे कि वास्तव में विक्रमादित्य एक यशस्वी, दानी एवं प्रजापालक राजा थे। इसलिए देवता भी उनकी सहायता किया करते थे। यह विचार कर वे उस दिन भी सिंहासन पर नहीं बैठ सके और अपने महल को वापस लौट गए।