इक्कीसवें दिन राजा भोज अपने दैनिक कार्यो से निवृत होकर राजदरबार पहुंचे और सिंहासन पर बैठने के इरादे से जैसे ही वे आगे बढे तभी सिहासन से इक्कसवीं पुतली सामने आ खड़ी हुई और बोली-'ठहरो! राजा भोज! पहले मेरी बात सुन लो, क्या तुम अपने अधीन रहने वाले कर्मचारियों के सुख-दुख का ख्याल वैसे ही रखते हो जैसे हमारे राजा विक्रमादित्य रखते थे? अगर तुममें ऎसे गुण हैं तो तुम सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो अन्यथा नहीं। मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक कथा सुनाती हूँ ध्यान से सुनो।'
पुतली ने राजा भोज को कथा सुनानी आरंभ की-'एक बार राजा विक्रमादित्य अपने राजमहल के सुन्दर उद्यान में पुष्पों के सौंदर्य को निहार रहे थे। उनके साथ महामंत्री और राजपुरोहित भी थे। तभी एक द्वारपाल उद्यान में आया और महामंत्री से बोला-मंत्री जी आपको घर में याद किया गया है।'
महामंत्री राजा से आज्ञा लेकर वहां से चला गया। विक्रमादित्य को शंका हुई कि महामंत्री को अचानक क्यों बुलाया गया है। उन्होंने पुरोहित से पूछा-'पुरोहित जी, मंत्री जी को इस तरह अचानक बुलाने का क्या कारण हो सकता है? वे कुछ परेशान भी लग रहे थे।'
पुरोहित बोला-"महाराज शायद उनकी बेटी की तबियत कुछ ज्यादा ही खराब है। उन्होंने मुझे एक दिन बताया था कि उनकी बेटी कई दिनों से बीमार है।'
पुरोहित की बात सुनकर दोपहर के समय विक्रमादित्य ने राजवैद्य को बुलवाया और उनसे पूछा-'वैद्य जी, महामंत्री की पुत्री की हालत अब कैसी है?'
वैद्य बोला-'महाराज, वह गंभीर रोग से पीड़ित है। उसकी जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है उसे कभी भी कुछ हो सकता है।'
विक्रमादित्य बोले-'वैद्य जी, अगर ऎसी बात है तो आपको उसकी जीवन रक्षा के लिए प्राणपण सेन जुट जाना चाहिए।'
राजवैद्य ने कहा-'महाराज आपका कहना ठीक है लेकिन मैंने अपने अनुभव से पता लगा लिया है कि महामंत्री की पुत्री की बीमारी बड़ी गंभीर है। उसकी जीवन रक्षा के लिए एक काम करना पड़ेगा जो बहुत कठिन है।'
विक्रमादित्य बोले-'वैद्य जी मुझे बताओ वह काम क्या है?' वैद्य ने कहा-"महाराज, नीलगिरि पर्वत की घाटी में खबांग नामक एक पौधा होता है। अगर उस पौधे की पत्तियों को पीसकर उसका रस उसे पिला दिया जाए तो वह ठीक हो जाएगी लेकिन उस पौधे को वहां से लाएगा कौन?"
विक्रमादित्य बोले-'इसमें कौन सी बड़ी बात है। हम किसी दूत को भेज देते हैं।'
यह सुनकर राजवैद्य बोला-'महाराज यह काम किसी दूत के वश का नहीं है। वह स्थान भयानक जीवों और जहरीले सर्पो से घिरा हुआ है। वहां जाकर शायद ही कोई वापस आ पाए।'
विक्रमादित्य ने कहा-'वैद्य जी, मुझे उस पौधे की पहचान बता दीजिए। मैं कोई व्यवस्था करता हूँ, तब तक आप उसकी देखभाल कीजिए।'
वैद्य राजा को पौधे की पहचान बता कर वहां से चला गया। वैद्य के जाने के बाद विक्रमादित्य ने विचार किया, नीलगिरी पर्वत से वह पौधा कैसे मंगवाया जाए? एक बार उनके मन में आया कि वह इस काम को देवी द्वारा दिए बेतालों को सौंप दे लेकिन फिर सोचा कि परोपकार का काम स्वयं क्यों न करें। यह विचार कर उन्होंने स्वयं नीलगिरी पर्वत पर जाने का निर्णय कर लिया।
दूसरे दिन सारी व्यवस्था कर वे नीलगिरी पर्वत की ओर रवाना हो गए । कई दिनो की कठिन यात्रा के बाद वे उस पर्वत पर पहुंच गए । पहाड़ी पर पहुंच कर विक्रमादित्य ने घाटी की ओर रुख किया । घाटी काफी गहरी थी और वहां बिल्कुल अंधकार था । बूटी की तलाश मे वे घाटी मे प्रवेश कर गए । वहां का वातावरण इतना डरावना था कि दिल दहल जाता था । वे कुछ दूर पहुंचे ही थे कि तभी एक सिंह की गर्जना सुनाई दी । उन्होने जैसे ही म्यान से तलवार निकालनी चाही तभी सिंह उन पर छलांग लगा दी । विक्रमादित्य एक ओर झुककर बचना चाहते थे लेकिन सिंह ने अपने पंजे का भरपूर वार करके उनकी बांह को जख्मी कर दिया । जब तक शेर पलट कर दोबारा वार करता विक्रमादित्य ने बड़ी फुर्ती से शेर की गर्दन धड़ से अलग कर दी ।
पौधे की तलाश करते-करते विक्रमादित्य आगे बढते रहे लेकिन उन्हे वह पौधा कहीं नजर नहीं आ रहा था । शाम ढलते ही वे थक हार कर एक पेड़ पर चढ़कर सो गए । पूरी घाटी मे भयानक आवाजें गूंज रही थी । इन सबसे निर्भीक विक्रमादित्य सारी रात आराम से सोए रहे । सुबह होते ही पौधे की तलाश मे आगे निकल पड़े । अभी वे कुछ ही दूर गए थे कि उनके कदम अपने आप पीछे की ओर खिचने लगे । उन्होने पीछे मुड़ कर देखा तो एक विशालकाय अजगर उन्हे निगलने को तैयार था । उन्होने अपने आप को संभालने की बहूत कोशिश की लेकिन अजगर ने उन्हे कोई मौका नही दिया और उन्हे पूरा ही निगल गया ।
अजगर के पेट मे पहुंचते ही विक्रमादित्य को ऎसा महसूस हुआ कि जैसे वह खौलते कड़ाह मे जा गिरे हो लेकिन उन्होने हिम्मत नही हारी । और अपनी तलवार निकालकर अजगर का पेट चीर कर बाहर आ गए । बाहर निकलते ही उन पर बेहोशी सी छाने लगी फिर भी वे हिम्मत जुटाकर पौधे की तलाश मे आगे चल पड़े । पौधे की तलाश मे वे कई दिनो तक भटकते रहे। अचानक एक दिन वह पौधा उन्हें दिखाई दे गया लेकिन यह क्या, उसके चारों ओर बड़े-बड़े बिच्छू डंक उठाए इधर- उधर विचरण कर रहे थे। राजा ने हिम्मत जुटाकर एक डाल तोड़ी और बिच्छुओं को इधर-उधर कर दिया। रास्ता साफ था। उन्होंने आगे बढकर पौधे का एक भाग काटा और अपने पास रख लिया। हालांकि अब वे काफी थक चुके थे इसलिए उन्होंने बेताल उन्हें अपने कंधों पर बिठाकर उनकी नगरी में पहुंचा दिया। राजा ने पौधा राजवैद्य को दे दिया। राजवैद्य ने उस पौधे से महामंत्री की पुत्री का इलाज किया। कुछ ही दिनों में वह स्वस्थ हो गई लेकिन महामंत्री को इस बात का पता नहीं था कि राजा ने उनके लिए क्या किया। जब राजवैद्य ने उन्हें बताया तो राजा विक्रमादित्य के इस परोपकार को देखकर उनकी आंखों में आंसू आ गए।
यह कथा सुनाकर पुतली बोली-"देखो राजा भोज ऎसे परोपकारी थे हमारे महाराजा विक्रमादित्य। अगर तुमने ऎसा कोई परोपकार किया हो तो तुम इस सिंहासन पर बैठ सकते हो अन्यथा नहीं।' यह कहकर पुतली अदृश्य हो गई। इस बार भी राजा भोज कोई निर्णय नहीं ले पाए और निरुत्तर होकर अपने महल में लौट आए।