पुतली ज्ञानवती की कथा

बाईसवें दिन राजा भोज राजदरबार में आए। सिंहासन पर बैठने की इच्छा से जैसे ही वे आगे बढे तो सिंहासन में जड़ी बाइसवीं पुतली प्रकट होकर उनके सामने आ खड़ी हुई और उनका रास्ता रोकते हुए बोली-'ठहरों राजा भोज! इस सिंहासन पर बैठना तुम्हारे लिए ठीक नहीं है। यह कोई साधारण सिंहासन नहीं है। यह इंद्रदेव का सिंहासन है। जिस पर बैठने की इच्छा देवताओं की भी होती है। यह सिंहासन पहले बाहुबल और फिर राजा विक्रमादित्य को मिला। इस पर तुम विचार करो कि विक्रमादित्य कितने महान थे। वे एक महापुरुष, महादानी, प्रजापालक एवं प्रजा कल्याण के लिए अपने प्राणॊं की बाजी लगाने से भी नहीं झिझकते थे। खैर, मैं तुम्हें विक्रमादित्य की दानवीरता की एक कथा सुनाती हूँ उसे सुनने के बाद ही तुम सिंहासन पर बैठने का विचार करना।' यह कह कर पुतली ने कथा सुनानी आरंभ कर दी-

"राजा विक्रमादित्य विद्वानों का बहुत आदर-सत्कार और यथासंभव सहायता करते थे। उनकी उदारता का यह आलम था कि उनके दरबार में पहुंचा कोई भी ज्ञानी खाली हाथ नहीं लौटता था। उनके राज्य में ज्ञानदत्त नाम का एक ब्राह्मण रहता था। विद्वान एवं गुणवान होने के बावजूद गरीबी उसका पीछा नहीं छोड़ती थी। उसकी गरीबी का आलम यह था कि उसके परिवार वालों को अन्न के अभाव में कई बार उपवास तक करना पड़ता था। एक दिन तंग आकर ब्राह्मण की पत्नी ने उससे कहा- 'स्वामी हम कब तक ऎसी गरीबी में दिन बिताएंगे? आपको कुछ करना चाहिए। इस प्रकार केवल भाग्य के भरोसे बैठे रहना उचित नहीं है।'

पत्नी की बात सुनकर ब्राह्मण बोला-'मैं स्वयं भी अपनी गरीबी से परेशान हूँ लेकिन कोई रास्ता ही नहीं सूझता। अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करुं?' इस पर पत्नी बोली-" सुना है राजा विक्रमादित्य गुणियों का बहुत आदर करते हैं, आप उनके दरबार में क्यों नही जाते? मुझे पुरा विश्वास है कि आप के वहां जाने पर राजा हमारी सहायता अवश्य करेंगे।'

पत्नी की बात सुनकर ब्राह्मण ने सोचा, यह ठीक कह रही है। मुझे जरूर उनके पास जाना चाहिए। वही मेरी मदद कर सकते है, ब्राह्मण ने विक्रमादित्य के पास जाने का निश्चय कर लिया।

अगले ही दिन ब्राह्मण राजधानी की ओर चल पड़ा। राजा की प्रसन्नता के लिए वह अच्छे-अच्छे श्लोक बनाता चला जा रहा था। विक्रमादित्य के दरबार में पहुंचने पर उसे राजा के सामने प्रस्तुत किया गया। विक्रमादित्य ने उसका स्वागत-सत्कार करते हुए कहा-"आइए ब्राह्मण देवता आपका स्वागत है। आप कहां से पधारे हैं?"

ब्राह्मण बोला-"महाराज, मैं कैलाश पर्वत से आ रहा हूँ।' विक्रमादित्य भगवान शिव के भक्त थे। ब्राह्मण को भगवान शिव के निवास कैलाश पर्वत से आया जान वे बड़े प्रसन्न हुए और जिज्ञासावश ब्राह्मण से प्रश्न किया-'यह तो बड़ी प्रसन्नता की बात है कि आप कैलाश पर्वत से आ रहे हैं। बताइए भगवान शंकर वहां कुशल से तो हैं न?"

ब्राह्मण बोला-'महाराज, क्या आपको मालूम नहीं कि भगवान शंकर का स्वर्गवास हुए तो काफी समय हो गया है।'

ब्राह्मण के मुख से ऎसी अनहोनी बात सुनकर राजा विक्रमादित्य चौंक पड़ॆ लेकिन अपने को संयत करते हुए उन्होंने पुनः पूछा-"आप यह क्या कह रहें हैं ब्राह्मण देवता? भगवान शंकर का स्वर्गवास हो गया? वह तो अजर-अमर हैं, फिर उनका स्वर्गवास कैसे हो गया?"

ब्राह्मण बोला-"महाराज, मैं आपको सारी बात सच-सच समझाता हूं। आप जानते ही हैं कि भगवान शंकर के शरीर से आधा भाग तो भगवान विष्णु ने पहले ही हर लिया था, शेष आधा भाग माता पार्वती के हिस्से में आ गया। उनकी जटाओं में विराजी गंगाजी समुद्र में समा गई उनके गले में लिपटे रहने वाले सर्प पाताल लोक में चले गए। उनका यश आपके पास आ गया और बाकी बचा उनका भिक्षा पात्र, वह मुझ विवश ब्राह्मण के हिस्से में आ गया। अब आप ही बताइए राजन् कि भगवान शंकर कहां रहे?"

विक्रमादित्य ब्राह्मण का अर्थ समझ गए। ब्राह्मण की इस चतुरतापूर्ण बातों से वे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने कहा- "ब्राह्मण देवता मैं आपकी बात समझ रहा हूँ। कहिए मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? जो चाहिए निःसंकोच होकर बोलिए।" ब्राह्मण ने विनयपूर्वक कहा- "महाराज,मैं गरीबी से विवश हूँ। एक भैंस व कुछ धन मिल जाए तो मेरा कष्ट दूर हो जाएगा। "

यह सुनकर विक्रमादित्य ने तुरंत खजांची को बुलवाया और पर्याप्त स्वर्ण मुद्राएं लाने को कहा। साथ ही उन्होंने एक दरबारी को आज्ञा दी कि ब्राह्मण को एक अच्छी- सी दुधारु भैंस दी जाए। खजांची ने राजा के हाथों ब्राह्मण को पर्याप्त स्वर्ण मुद्राएं दान करा दी लेकिन जिस दरबारी को भैंस लाने व देने के लिए कहा गया था वह धूर्त था। उसे राजा द्वारा ब्राह्मण का इस प्रकार सम्मान करना व सहायता देना बुरा लगा। उसने एक भैंस मंगवाई और राजा के हाथों ब्राह्मण को दान करवा दी।

भैंस वैसे तो देखने में अच्छी नस्ल की थी किंतु असल में वह दूध देने वाली नहीं थी। जब ब्राह्मण ने भैंस को देखा तो दरबारी की चालाकी समझ गया। भैंस का कोई बच्चा भी नहीं थी। अब क्या किया जाए? ब्राह्मण इसी सोच में पड़ गया। कुछ देर विचार करने के बाद उसके दिमाग में एक तरकीब सूझी। वह भैंस के पास गया और उसने कान के पास अपना मुंह लगाकर कुछ कहने का नाटक करने लगा। फिर उसने भैंस के मुंह के पास अपना कान लगाया, जैसे कुछ सुन रहा हो। विक्रमादित्य सहित सभी दरबारी ब्राह्मण का यह सारा कार्य कौतूहलवश देख रहे थे। भैंस के मुंह के पास कान लगाए कुछ क्षण बाद ब्राम्हण ने अपना मुंह ऎसे बनाया जैसे कोई बुरी बात सुन ली हो। ऎसा करने के बाद वह सीधा खड़ा हो गया। विक्रमादित्य को यह सब बड़ा विचित्र लगा।उन्होंने ब्राह्मण से पूछा- "ब्राह्मण देवता, आप यह क्या कह रहे थे?"

ब्राह्मण बोला-"महाराज मैं इस भैंस से पूछ रहा था कि तुम्हारा बच्चा कहाँ है? क्या बच्चे के बिना दूध दे दोगी?" विक्रमादित्य ने उत्सुकतावश पूछा-"तो क्या कहा इसने?"

ब्राह्मण इसी प्रश्न के इंतजार में था। उसने कहा-"महाराज, यह कह रही है कि इसके पति को सतयुग में महिसासुर ने मार दिया था तभी से यह विधवा है। संतान भी कोई नहीं है। ऎसी परिस्थिति में बस अपनी जीवन नैया खींच रही है।' ब्राह्मण के इस चतुराई भरे उत्तर को सुनकर विक्रमादित्य को समझते देर न लगी कि जिस दरबारी को भैंस लाने का काम सौंपा गया था उसने भैंस के चुनाव में धूर्तता की है और बिना दूध देने वाली बूढी भैंस लाकर दान करा दी। इस पर विक्रमादित्य को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने दरबारी को इस धूर्तता के लिए बहुत फटकारा।

इसके बाद विक्रमादित्य ने एक स्वस्थ दूध देने वाली अच्छी सी भैंस मंगवाकर ब्राह्मण को दान में दे दी। भैंस व धन पाकर ब्राह्मण बहुत खुश हुआ। फिर वह विक्रमादित्य का गुणगान करता हुआ अपने घर की ओर चल दिया।' यह कथा सुनाकर पुतली बोली-'राजा भोज! ऎसे दानी थे विक्रमादित्य। उन्होंने ब्राह्मण की चतुराई पर उसे धन ही नहीं बल्कि एक अच्छी नस्ल की दुधारु भैंस भी दान में दे दी। क्या तुमने कभी ऎसा दान किया है?' यह कहकर पुतली अदृश्य हो गई। राजा भोज के पास पुतली के प्रश्न का कोई जवाब नहीं था। अतः वह उस दिन भी सिंहासन पर बैठे बिना ही वापस अपने महल में लौट आए।