तेईसवें दिन राजा भोज सिंहासन पर बैठने के लिए राजदरबार में पंहुचे। सारे दरबारियों ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया। जैसे ही उन्होंने सिंहासन पर बैठने के लिए कदम बढाया तो सिंहासन पर जड़ित तेईसवीं पुतली राजा भोज के सामने प्रकट होकर बोली-"ठहरो राजा भोज! सिंहासन पर बैठने से पहले मैं तुम्हें अपने स्वामी राजा विक्रमादित्य की दान और कल्याण की एक अद्भुत कथा सुनाती हूँ। उसे सुनने के बाद ही तुम निर्णय लेना कि तुम इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो?"
यह कहकर पुतली ने राजा भोज को कथा सुनानी आरंभ की-"उज्जैन नगरी में एक धनवान व्यापारी रहता था। उसका व्यापार दूर-दूर के राज्यों तक फैला हुआ था। वह बहुत दयालु और परोपकारी था। उसके पास जो भी दीन-हीन व्यक्ति जिस इच्छा से आता था, उसकी इच्छा पूरी होती थी। उसका एक बड़ा पुत्र था जो गुण और स्वभाव से अपने पिता पर गया था। वह बुद्धिमान तो था ही माता-पिता का बड़ा भक्त भी था।
जब वह विवाह योग्य हुआ तो व्यापारी को उसके विवाह की चिंता हुई। उसने सोचा, उसके पुत्र का विवाह किसी ऎसी कन्या के साथ होना चाहिए, जो उसी के समान सुन्दर और गुणवती हो लेकिन उन्हें ऎसी योग्य कन्या कहीं नहीं मिला। इसी सोच विचार में एक दिन वह अपने घर में इधर-उधर टहल रहा था। उसे चिंतित देखकर उसकी पत्नी ने पूछा-"स्वामी! इस प्रकार टहलने या चिंता करने से कोई बात नहीं बनने वाली है। आप किसी अच्छे से पुरोहित को बुलवाओ और उनसे इस बारे में बात करो।'
पत्नी की बात मानकर व्यापारी ने नगर में एक बहुत बड़े विद्वान पुरोहित को बुलवाया और उनसे पूछा-'पुरोहित जी मैंने आपको इसलिए कष्ट दिया है कि मैं अपने पुत्र का विवाह किसी ऎसी लड़की के साथ करना चाहता हूँ जो मेरे बेटे के समान सुन्दर हो, गुणवती हो। आप किसी ऎसी लड़की का पता अवश्य लगाएं।'
यह सुनकर पुरोहित बोला-'सेठ जी, आपके पुत्र के योग्य एक कन्या मेरी नजर में है, लेकिन वह यहां से बहुत दूर समुद्र पास एक राज्य में है। मैं हर वर्ष उनके यहां यज्ञ कराने जाता हूँ। लड़की का पिता भी आप जैसे ही भले और सज्जन व्यक्ति हैं। उनका व्यापार भी दूर-दूर तक फैला हुआ है।'
व्यापारी बोला-"पुरोहित जी, अगर ऎसी बात है तो आप यथाशीघ्र उनके पास जाइए और उनसे विवाह की बात चलाइए।" यह कहकर व्यापारी ने पुरोहित को राह के लिए धन देकर विदा किया।
कई दिनों की यात्रा के बाद पुरोहित समुद्र पास उस द्वीप में पहुंचा। उसने व्यापारी से मिलकर अपना मंतव्य बताया। यह सुनकर व्यापारी बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने अपनी लड़की पुरोहित को दिखाई। लड़की सचमुच बड़ी सुशील और गुणवती थी। तब पुरोहित ने व्यापारी से कहा-"मैंने तो आपकी पसंद कर ली अब आप अपने पुरोहित को मेरे साथ उज्जैन भेज दीजिए। वह चलकर लड़के को देख ले। यदि उसे लड़का पसंद आ जाए, तो वह विवाह पक्का कर दे। लड़की का पिता तैयार हो गया। उसने अपने पुरोहित को उज्जैन भेज दिया। पुरोहित ने उज्जैन जाकर लड़के को देखा। उसने लड़के को पसंद कर लिया और विवाह का दिन पक्का कर दिया लेकिन विवाह के लिए जो मुहूर्त निकला, वह बहुत निकट था अर्थात केवल चार-पांच दिन का ही। पुरोहित तो विवाह का दिन निश्चित करके चला गया लेकिन उज्जैन का व्यापारी चिंता में पड़ गया। वह सोचने लगा कि वह चार पांच दिन में किस तरह विवाह का प्रबंध कर सकता है। मान लो विवाह का प्रबंध हो भी जाए, तो इतनी दूर बारात लेकर किस प्रकार ठीक से पहुंचा जा सकता है। वहां पहुंचने में तो कम से कम दस-बारह दिन लग जाएंगे।
लेकिन विवाह पक्का कर लिया गया था। अब व्यापारी के सामने प्रश्न लड़के विवाह का नहीं, उसकी प्रतिष्ठा का था। उसने सोचा यदि वह ठीक समय पर बारात सजाकर लड़की के दरवाजे पर नहीं पहुंचेगा, तो लोग उसकी हंसी उडाएंगे। केवल उसी की हंसी नही उड़ाएंगे, बल्कि उसके समाज और देश की भी हंसी उडाएंगे। यह सोच-सोच कर वह चिंतित रहने लगा। पति को इस प्रकार चिंतित देखकर उनकी पत्नी ने कहा-"स्वामी इस प्रकार चिंता करने से कोई फायदा नहीं। आप महाराज विक्रमादित्य के पास जाइए वे आपकी मदद जरूर करेंगे।"
पत्नी की बात सुनकर व्यापारी राजा विक्रमादित्य के पास गया और बोला-"महाराज, मैं एक व्यापारी हूँ और अपने पुत्र का विवाह मैंने दूर समुद्र पार एक राज्य में तय किया है। विवाह के चार दिन रह गये है, किन्तु मार्ग अवरुद्ध है ऎसे में वहां चार दिनों में पहुच पाना मुश्किल है। आप कोई ऎसी व्यवस्था करें जिससे मैं बारात लेकर सही समय पर पहुंच जाऊं और विवाह सम्पन्न करा सकूं।'
यह सुनकर विक्रमादित्य ने बड़ी ही सहानुभूति के साथ कहा-"आप बिल्कुल चिंता न करें। आप मेरी प्रजा हैं। आपकी इज्जत मेरी इज्जत है। आप मेरे उड़न खटोला को ले जाइए।' यह कहकर उन्होनें उड़न खटोला व्यापारी को दे दिया।
व्यापारी की चिंता दूर हो गई। वह विवाह की तैयारी करके, निश्चित समय पर बारात लेकर दूर समुद्र पार उस व्यापारी के राज्य में जा पहुंचा। उसे जब बरात के आने की खबर मिली, तो वह बहुत घबराया। उसने विवाह की कोई तैयारी भी नहीं की थी, क्योंकि उसे विश्वास था कि उज्जैन का व्यापारी इतने कम समय में बरात के साथ वहां नहीं पहुंच सकेगा लेकिन वह भी बहुत धनवान था। जब उसे बारात आने की खबर मिली तो, धन के बल पर उसने शीघ्र ही सारा प्रबंध पूरा कर लिया। विवाह बड़ी धूमधाम से हुआ। उसने दहेज में बहुत सारा धन देकर लड़की को विदा किया। उज्जैन पहुंचकर व्यापारी राजा विक्रमादित्य के पास गया और उनसे निवेदन किया -" महाराज, आपकी दया से मेरी इज्जत बच गई मैं बारात सहित आपके उड़न खटोले पर सवार होकर के पिता के राज्य में गया और विवाह करके फिर अपने नगर में आ गया। अब आप अपना विमान ले लीजिए। मुझे लड़के के विवाह में दहेज के रुप में बहुत-सा धन मिला है। आपकी बड़ी दया होगी, यदि आप उस धन को भी भेंट- स्वरुप स्वीकार करें।'
व्यापारी की बात सुनकर विक्रमादित्य मुस्कराते हुए बोले-'आप जो कुछ कह रहें है अपने स्वभाव के अनुसार कह रहे हैं लेकिन मैं अपने स्वभाव को कैसे छोड़ सकता हूँ? मैं जो चीज एक बार दे देता हूँ उसे फिर वापस नहीं लेता। आप तो यह जानते ही हैं कि मैं उस धन को ग्रहण करता हूं जो मेरा होता है। मैं धन तो लूंगा नहीं और अब उड़न खटोला भी आप अपने पास रखें।'
राजा विक्रमादित्य की ऎसी दानशीलता देखकर व्यापारी का मुंह आश्चर्यचकित रह गया। उसने विक्रमादित्य को धन्यवाद दिया और उड़न खटोला लेकर अपने घर वापस आ गया। विक्रमादित्य की दानशीलता की कहानी सुनकर पुतली बोली-"राजा भोज! अब बताओ क्या तुमने इस प्रकार का दान देकर किसी की मदद की है? यदि हाँ तो तुम इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो।'यह कहकर पुतली अदृश्य हो गई। कुछ क्षण सोचने के बाद राजा भोज सिंहासन पर बैठने का विचार त्याग कर अपने महल में लौट गए।