चौबींसवें दिन दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर जैसे ही राजा भोज दरबार में उपस्थित हुए तो सभी दरबारीजन उनके अभिवादन के लिए उठ खड़े हो गए। राजा भोज ने सभी का अभिवादन स्वीकार कर उन्हें बैठने के लिए कहा और स्वयं सिंहासन की ओर चल पड़े लेकिन जैसे ही उन्होंने सिंहासन की पहली सीढी पर कदम रखना चाहा तभी सिंहासन में जड़ित चौबीसवीं पुतली उनके सामने प्रकट होकर बोली-"ठहरो राजा भोज! पहले मेरे मुख से राजा विक्रमादित्य के कला मर्मज्ञ होने से संबंधित एक कथा सुन लो। उसे सुनने के बाद ही तुम सिंहासन पर बैठने का विचार करना।' इतना कहकर पुतली राजा भोज को कथा सुनाने लगी-
'राजा विक्रमादित्य सच्चे ज्ञानियों के बहुत पारखी थे। वे उनके अनुभव और ज्ञान का भरपूर सम्मान करते थे। एक दिन वे वन में किसी कारण विचरण कर रहे थे। तभी अचानक उन्होंने दो आदमियों की बातचीत सुनी। उनकी बातचीत सुनकर विक्रमादित्य समझ गए कि उनमें एक ज्योतिषी है। उन्होंने सोचा इन दोनों की बातें सुननी चाहिए। यह विचार कर उन्होंने अपनी जेब से अदृश्य होने वाला चंदन का टीका निकाला। उन्होंने उसे माथे पर लगाया और अदृश्य होकर उनकी बातें सुनने लगे।
ज्योतिषी बोला - मित्र मैने जोतिषी का पूरा ज्ञान अर्जित कर लिया है और अब मै तुम्हारे भूत वर्त्तमान और भविष्य के बारे मे सब कुछ बता सकता हूँ । यह कहकर उसने बड़े गर्व से अपने साथी को एक मृत पशु की हड्डी दिखाते हुए कहा - यह हिरण की हड्डी है , इसे शरीर छोड़े हुए चार वर्ष हो चुके हैं ।
ज्योतिषी की बातों पर उसके मित्र साथी ने कोई रुचि नही जताई । तभी ज्योतिषी की नजर जमीन पर अदृश्य विक्रमादित्य के पदचिन्हो पर पड़ी । यह देखकर उसने अपने साथी से कहा - इन पदचिन्हो को देख रहे हो ? ये किसी साधारण मनुष्य के नहीं हैं । मेरे ज्योतिषी ज्ञान के अनुसार यह पदचिन्ह किसी राजा के होने चाहिए । मुझे लगता है कोई राजा नंगे पांव यहां से गया है यह कहकर ज्योतिषी अपने मित्र को साथ लेकर पदचिन्हो का अनुसरण करता हुआ आगे बढने लगा। काफी दूर आगे निकलने पर उसे एक लकरहारा पेड़ के नीचे लकड़ियां बटोरता हुआ दिखाई दिया । उसने लकड़हारे से पूछा - क्यो भाई, तुम इस पेड़ पर लकड़ी कब से काट रहे हो ? क्या तुमने इधर से किसी राजा को नंगे पांव पैदल चलते देखा ?
यह सुनकर लकड़हारा बोला मैं सूर्य निकलने से पहले ही , इस पेड़ पर लकड़ी काट रहा हूं । इधर से कोई राजा तो क्या, कोई घास काटनेवाला भी नही गया। फिर राजा वन में क्यों चलने लगा?"
ज्योतिषी सोचने लगा-इधर से जब कोई राजा नहीं गया तो फिर यह किसके पांव के निशान हैं। साधारण आदमियों के तलवों में ऊर्ध्व रेखा और कमल के फूल होते नहीं। यह सोचकर ज्योतिषी ने लकड़हारे से कहा-"भाई, क्या तुम अपने दाहिने पैर का तलवा मुझे दिखा सकते हो?"
लकड़हारे ने आश्चर्य से कहा-"क्यों किस उद्देश्य से?" ज्योतिषी बोला-"भाई, मैं ज्योतिषी विद्या का ज्ञानी हूँ।"
लेकिन लकड़हारे ने अपने पैर के तलवे दिखाने से इनकार कर दिया। तब ज्योतिषी ने कहा-'अरे भाई, मेरी बात समझने की कोशिश करो।' फिर उसने कुछ दूर स्पष्ट नजर आ रहे पदचिह्नों की ओर संकेत करके कहा-"मैं उनके विषय में निश्चित होना चाहता हूँ कि वे तुम्हारे पैरों के हैं या किसी और के?"
आखिर लकड़हारे ने ज्योतिषी को अपने दाहिने पैर का तलवा दिखा दिया। ज्योतिषी उस आदमी के तलवे में देखकर आश्चर्य चकित हो उठा, क्योंकि उसके तलवे में ऊर्ध्व रेखा और कमल के फूल थे। ऊर्ध्व रेखा और कमल के फूल राजा के पैर के तलवे में होते हैं लेकिन यह लकड़हारा तो साधारण आदमी है।
ज्योतिषी के मित्र ने भी लकड़हारे के पैर में बनी कमल आकृति को देखा और इस बात से संतुष्ट हो गया कि पदचिह्न के आधार पर उसके ज्योतिषी मित्र ने वैसा पांव ढूंढ लिया। उसने कहा-"मित्र, अब तुम इस बात को साबित करो कि यह ऊर्ध्व रेखा और कमल आकृति वाला पांव युक्त व्यक्ति राजा ही है।"
ज्योतिषी बुरी तरह चकरा गया। उसने लकड़हारे से पूछा-'तुम लकड़िया काटने का काम कब से कर रहे हो?"
लकड़हारा बोला-"जब से मैंने होश संभाला है। यह तो अपना पुश्तैनी काम हैं। मेरे पिता और दादा भी इसी काम को करते थे।"
यह सुनकर ज्योतिषी चुप हो गया। उसके हृदय को बड़ा आघात लगा। वह सोचने लगा, उसने इतनी मेहनत से ज्योतिषी विद्या पढी है, क्या उसकी मेहनत व्यर्थ गई। मेरी ज्योतिषी विद्या के अनुसार ऊर्ध्व रेखा और कमल के फूल से युक्त तलवे वाले मनुष्य को राजा होना चाहिए लेकिन यह तो एक साधारण लकड़हारा है। नहीं, मेरा ज्योतिषी ज्ञान गलत नहीं हो सकता। यह लकड़हारा जरूर किसी राजकुल से है तथा किसी परिस्थितिवश लकड़ी काटने का काम करता है।
अपने ज्योतिषी मित्र को इस प्रकार सोच-विचारों में डूबा देख उसका मित्र बोला-'अब कहो क्या कहते हो? पहले ही परीक्षण में तुम खोटे सिक्के निकले।"
ज्योतिषी बोला-"नहीं मित्र ऎसी बात नहीं है। मेरा ज्ञान कदापि झूठा नहीं हो सकता। प्रमाण के लिए मैं राजा विक्रमादित्य के पैर देखना चाहता हूँ। देखूं उनके पांव के ये लक्षण हैं या नहीं।' अगर उनके पांव में ये लक्षण हैं या नहीं हुए तो मैं अपनी ज्योतिषी शास्त्र की पुस्तकों को जला दूंगा।'
उसी दिन दोनों मित्र उज्जैन नगर पहुंचे। राजा विक्रमादित्य के दरबार में पहुंचकर ज्योतिषी मित्र ने निवेदन किया-"महाराज मैं ज्योतिषशास्त्र का पंडित हूँ। मैं आपके पैंरो के तलवे की रेखाएं देखना चाहता हूँ।
विक्रमादित्य ने मुस्कराकर अपना पैर आगे बढा दिए लेकिन यह क्या? विक्रमादित्य के पैंरों के तलवों में न तो ऊर्ध्व रेखा थी और न कमल के फूल। यह देखकर ज्योतिषी की आंखों के सामने अंधेरा छा गया। उसे जबरदस्त धक्का लगा और वह बिना कुछ कहे वहां से जाने लगा। ज्योतिषी को इस प्रकार उदास जाते देख विक्रमादित्य ने पूछा-'क्यों ज्योतिषी जी क्या बात है? मेरे पैरों की रेखाएं देखकर आप इतने दुखी क्यों हो गए? सब कुशल तो है न? आप बिना कुछ बताए ही क्यों जा रहे हैं?
ज्योतिषी ने विक्रमादित्य को पूरी बात बताते हुए कहा-'महाराज, ज्योतिषशास्त्र में लिखा है कि मनुष्य के पैरों के तलवों में ऊर्ध्व रेखा और कमल के फूल होते हैं, वह बहुत बड़ा राजा होता है लेकिन आपके पांव में ऎसा कुछ भी नहीं है फिर भी आप इतने बड़े साम्राज्य का सुख भोग रहे हैं। ऎसा कैसे संभव है? मैंने जंगल में एक ऎसे आदमी को देखा, जिसके पैर के तलवे में ये लक्षण थे लेकिन वह आदमी लकड़ी काट रहा था। महाराज यह सब देखने के बाद में इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि मेरा ज्योतिषी ज्ञान झूठा है।'
ज्योतिषी की बात सुनकर विक्रमादित्य हंसते हुए बोले-'ज्योतिष जी, क्या आपका विश्वास अपने ज्ञान तथा विद्या से उठ गया?" ज्योतिषी बोला-" बिल्कुल महाराज, मुझे अब अपने ज्ञान और विद्या पर रत्तीभर भी विश्वास नहीं रहा।' यह कहकर उसने अपने मित्र से चलने का इशारा किया। जैसे ही वे चलने को तैयार हुए विक्रमादित्य ने उन्हें रोकते हुए कहा-'ठहरो ज्योतिषीजी।'
यह सुनकर दोनों रुक गए। तब विक्रमादित्य ने एक चाकू मंगवाया और उससे अपने पावों के तलवे खुरचने लगे। तब उन्होंने ज्योतिषी से कहा-'अब आप मेरे पांव के तलवे देख लीजिए।'
यह देखकर ज्योतिषी आश्चर्यचकित रह गया। अब उसे राजा के तलवों में ऊर्ध्व रेखा और कमल का फूल स्पष्ट नजर आ रहे थे। तब विक्रमादित्य ने कहा-"जंगल में तुमने जिस लकड़हारे के पैर देखे थे वह मैं ही था। मैंने तुम्हारा भ्रम मिटाने के लिए अपने तलुओं पर खाल की परत चढा दी। ज्योतिषशास्त्र तो पढा है लेकिन अधूरा पढा है, क्योंकि हाथों और पैरों की रेखाओं से ही कोई आदमी बड़ा-छोटा नहीं होता। मनुष्य को बड़ा या छोटा उसके कर्म बनाते हैं। इसके लिए परीक्षणों की आवश्यकता नहीं पड़ती।'
यह सुनकर ज्योतिषी विक्रमादित्य के चरणों में गिर कर बोला-"मैं धन्य हूँ महाराज, जो आप जैसे ज्ञानी और विवेकवान राजा के राज्य में रहता हूँ।
यह कथा सुनाकर पुतली बोली-'राजा भोज, सुना तुमने। अगर तुमने कभी किसी ज्ञानी के अधूरे ज्ञान के प्रति सीख दी है तो तुम इस सिंहासन पर बैठने के हकदार हो अन्यथा नहीं।' यह कहकर पुतली अदृश्य होकर अपने स्थान पर समा गई।
पुतली की बात सुनकर राजा भोज ने अपनी गर्दन झुका ली लेकिन उनके मन में सिंहासन पर बैठने का लोभ नहीं गया। अगले दिन सिंहासन पर बैठने का विचार कर वह अपने महल में लौट आए।