पुतली धर्मवती की कथा

पच्चीसवें दिन प्रातः जगने के बाद राजा भोज को देवताओं के उस अद्वितीय सिंहासन पर बैठने का लोभ फिर सताने लगा। वे अपने नित्यकर्मों से निवृत्त होकर राजदरबार पहुंचे और जैसे ही सिंहासन की ओर कदम बढाया, सहसा सिंहासन से पच्चीसवीं पुतली प्रकट होकर उनके सामने खड़ी हो गई और उनका रास्ता रोकते हुए बोली-"हे राजा भोज तुम यशस्वी हो, गुणवान हो, और प्रजापालक हो। इसी कारण देवताओं का यह सिंहासन तुम्हारे हाथ लगा है लेकिन इस पर बैठने के लिए तुम इतने उतावले मत हो। मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य के अद्वितीय पुरुषार्थ और जन कल्याण भावना से भरी एक कथा सुनाती हूँ। धैर्य-धारण करके सुनो और फिर विचार करना कि तुम इस सिंहासन पर बैठने के सच्चे अधिकारी हो, अथवा नहीं।' यह कहकर पुतली ने कथा सुनानी आरंभ कर दी-

"राजा विक्रमादित्य अपनी प्रजा के दुःख-सुख का बहुत ध्यान रखते थे। उनके राज्य में एक भाट परिवार रहता था। वे दरिद्रता में जीवन यापन करते थे लेकिन वे अपनी दरिद्रता का रोना किसी के सामने नहीं रोते थे। भाट नित्य नाच गाकर ही अपने परिवार की आजीविका चलाता था। वह दिन भर जो कमाता था अगली सुबह फिर खाली हाथ हो जाता था। प्रतिदिन उसका यह हाल था। भाट की पत्नी उसकी इस अवस्था के साथ लम्बा समय व्यतीत कर चुकी थी। उसे अपने पति से कोई शिकायत नहीं थी लेकिन अपनी बेटी को जवान होते देख एक दिन उसने अपने पति से कहा-"अब तुम एक जवान बेटी के पिता हो। कुछ बचा कर भी रखो। अब वह विवाह योग्य हो गई है। कल उसकी शादी होगी तो उस समय क्या करोगे? किसके सामने हाथ फैलाओगे?"

पत्नी की बात सुनकर हंसता हुआ बोला-'भाग्यवान तुम चिंता मत करो। जिसने हमें कन्या दी है, वही ईश्वर हमारी कन्या के विवाह की भी चिंता करेगा। हमें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। तुम निश्चित होकर सो जाओ।'

अगले दिन जब भाट सोकर उठा तो पत्नी ने उसे फिर बेटी के विवाह की चिंता से अवगत कराया। पत्नी की यह जिद देख कर भाट ने बाहर जाने की तैयार करते हुए कहा-"ठीक है, मैं प्रयास करता हूँ।" यह कहकर भाट घर से निकल गया। वह घूमता हुआ कई राज्यों में गया। बेटी के विवाह की चिंता बताई। कुछ दान की आशा लगाई। लोगों ने दान तो दिया लेकिन इतना नहीं कि उससे बेटी का विवाह कर सके।

कुछ दिनों बाद जब वह घर लौट रहा था तभी सुनसान मार्ग में चोर लुटेरों को उसके पास धन होने की गंध लग गई। उसने जो भी धन एकत्रित किया था चोरों ने उसे लूट लिया। बड़ी कठिनाई से वह अपनी जान बचाकर खाली हाथ घर वापस आ गया। सारी बात पत्नी को बता दी।

यह सुनकर पत्नी बोली-"ईश्वर पर भरोसा किए बैठे थे, अब बताओ क्या करोगे? मैं कहती थी न कि थोड़ा-बहुत बचाकर भी रखो। अब कहां गया तुम्हारा ईश्वर?"

भाट बोला-"भाग्यवान मैंने कहा था कि ईश्वर ही देगा। तुमने जिद करके मुझे भेजा, मैंने व्यवस्था की लेकिन जब ईश्वर को मेरे द्वारा व्यवस्था करके लाए गए धन से विवाह करना स्वीकार न था तो उस धन को घर कैसे लाता? लेकिन तुम चिंता मत करो एक जगह मैं अभी भी नहीं गया। कहते हैं जिसे ईश्वर नहीं देता, उसे राजा विक्रमादित्य देता है। उन जैसा दानी इस पृथ्वी पर पैदा नहीं हुआ है। उनके द्वार से आज तक कोई खाली हाथ लौट कर नहीं गया है।' यह कहकर भाट विक्रमादित्य के महल की ओर चल पड़ा।

राजदरबार में पहुंचकर उसने राजा का अभिनंदन करते हुए कहा-"महाराज, मैं कर्म से एक भाट हूँ। नाच-गाकर मैं अपने परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। मेरी एक कन्या है और वह विवाह योग्य हो गई है। मैं उसके विवाह के लिए चिंतित हूँ। मैंने आपकी दानवीरता का बहुत नाम सुना है। वैसे मैं अपनी पत्नी को विश्वास दिलाकर आया हूँ कि जिसे ईश्वर नहीं देता, उसे विक्रमादित्य देता है।"

भाट की बात सुनकर विक्रमादित्य ने अपने मंत्री से कहा-"मंत्री जी, आप अपनी कन्या के विवाह के बराबर खर्च इस भाट की कन्या के विवाह में खर्च होने के निमित्त दे दें।'

भाट बोला-"महाराज, जो कुछ देना है आप वह अपने हाथों से देने की कृपा करें।'

यह सुनकर विक्रमादित्य ने अपने हाथों से दस लाख स्वर्ण मुद्राएं देते हुए भाट से पूछा-'लेकिन तुम यह बताओ कि तुमने मेरे ही हाथों से धन लेना पसंद क्यों किया?"

भाट बोला-"महाराज आप अन्नदाता हैं, मुझे आपकी कृपा चाहिए। मैंने सोचा कि दीवान के हाथ की अपेक्षा आपके हाथ से धन मेरे हाथ में अधिक ही आएगा। इसलिए मैंने आपके हाथों से धन लेना उचित समझा।'

यह सुनकर विक्रमादित्य बहुत प्रसन्न हुए भाट धन लेकर वहां से चला गया। भाट के जाते ही विक्रमादित्य ने उसके पीछे दो जासूस इस बात को जानने के लिए लगा दिए कि दस लाख स्वर्ण मुद्राओं का वह क्या करता है। भाट ने धूम-धाम से अपनी कन्या का विवाह करके उसे विदा कर दिया। जासूसों ने आकर राजा को खबर दी- "महाराज, भाट ने वह सारा धन अपनी कन्या के विवाह में खर्च कर दिया है। अब उसके पास इतना भी धन नहीं बचा है कि वह अगले दिन के भोजन का प्रबंध कर सके।"

विक्रमादित्य ने भाट को बुलवा कर उससे सारा धन खर्च करने का कारण पूछा तो भाट ने बताया-"अन्नदाता, कन्या आपकी थी, धन आपका था। मैं तो सिर्फ धन खर्च करने ही वाला था। अगर मैं उसमे से कुछ बचाता तो यह सरासर बेईमानी होती।'

विक्रमादित्य भाट के इस उत्तर पर प्रसन्न हुए कि उन्होंने उसे कई लाख स्वर्ण-मुद्राएं एवं कई गांव दान कर दिए। धन और कई गांवों को दान में पाकर भाट विक्रमादित्य का गुणगान करता हुआ वहां से चला गया।'

इतनी कथा सुनाकर पुतली बोली-'सुना राजा भोज! ऎसे दानी थे राजा विक्रमादित्य कि एक गरीब कन्या के विवाह के लिए दस लाख स्वर्ण मुद्राएं दान में दी। यही नहीं शादी के बाद उन्होंने कन्या के पिता को कई लाख स्वर्ण मुद्राओं के साथ-साथ कई गांव भी दान में दे दिए थे। क्या तुमने ऎसा दान किया है? यह कहकर पुतली अदृश्य हो गई।

पुतली के इस प्रश्न का राजा भोज के पास कोई उत्तर नहीं था। अतः वे निराश होकर अपने महल लौट आए और अगले दिन की योजना बना कर अपने शयन कक्ष में जाकर लेट गए।