पुतली जयलक्ष्मी की कथा

छब्बीसवें दिन राजा भोज ने राजदरबार में पहुंचकर ब्राह्मणों से कहा-"आज हम सिंहासन पर जरूर बैठेंगे। हमें किसी मुहूर्त की आवश्यकता नहीं है।' यह कहकर उन्होंने जैसे ही सिंहासन की ओर कदम बढाना चाहा तभी सिंहासन से प्रकट होकर जयलक्ष्मी नाम की पुतली हंसती हुई उनके सामने प्रकट होकर बोली- 'ठहरो राजा भोज! मेरी कथा सुने बगैर तुम इस सिंहासन पर नहीं बैठ सकते। पहले मेरी कथा सुनो उसके बाद तुम खुद निर्णय कर लेना कि तुम इस सिंहासन पर बैठने के हकदार हो या नहीं?" यह कहकर पुतली ने राजा भोज को विक्रमादित्य की कथा सुनानी आरंभ कर दी-

"एक बार राजा विक्रमादित्य शिकार खेलते-खेलते दूर जंगल में निकल गए। तभी उन्हें एक दिशा से किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनाई दी। यह सुनकर उन्होंने अपना घोड़ा उसी दिशा में दौड़ा दिया। कुछ दूर जाकर उन्होने देखा कि एक स्त्री एक योगी के पास बैठी रो रही है और योगी उसे चुप कराने की असफल कोशिश कर रहा है। विक्रमादित्य ने निकट जाकर योगी से पूछा-"योगीराज, यह स्त्री कौन है और इतना विलाप क्यों कर रही है?"

योगी ने पूछा-आप कौन हैं और इस जंगल में क्या करने आए हैं?

विक्रमादित्य ने योगी को अपना परिचय दिया। परिचय जानकर योगी ने उन्हें प्रणाम करके कहा-"राजन्, यह स्त्री साधारण स्त्री नहीं है। यह एक राजकुमारी है लेकिन अपने माता-पिता की एक भूल के कारण इस जंगल में अपना जीवन निर्वाह कर रही है।' यह सुनकर विक्रमादित्य को उस स्त्री के बारे में जानने की उत्सुकता और बढ गई। उन्होंने कहा-'योगीराज, मुझे स्पष्ट रुप से पूरी बात बताएं।'

योगी ने कहा-"महाराज, उज्जैन नगरी से पश्चिम की ओर लक्ष्य नाम का एक नगर है। मैं वहां के राजा का राजपुरोहित हूँ। राजा के विवाह के कई वर्ष बाद भी जब उनकी कोई संतान नहीं हुई तो उन्होने मेरे कहने पर यज्ञ करवाया। यज्ञ में उन्होंने सारे ब्राह्मणों, पुरोहितों, विद्वानों को आमंत्रित किया लेकिन भूलवश उसी राज्य के एक योगी को निमंत्रण नहीं दिया। इस कारण योगी ने राजा को शाप दिया कि तेरे यहां जो भी संतान पैदा होगी, उसका चेहरा देखते ही तेरी मृत्यु हो जाएगी। राजा योगी के सामने बहुत गिड़गिड़ाया। तब योगी ने उसे वचन दिया कि अगर तू अपनी संतान के विवाह के बाद उसको देखेगा तो शाप नहीं लगेगा लेकिन विवाह से पहले देखेगा तो तेरे लिए यह उचित नहीं है।'

तब राजा ने पूछा-"क्या मैं अपनी संतान का बाल विवाह कर उसे देख सकता हूँ?"

योगी बोला-"हां, ऎसा हो सकता है, लेकिन यदि तुम्हारे यहां पुत्र पैदा होता है तो तुम उसका बाल-विवाह कर सकते हो, लेकिन यदि पुत्री पैदा होती है तो उसके विवाह के लिए तुम्हें स्वयंवर रचाना होगा लेकिन वह स्वयंवर बड़ा कठिन है। उसके लिए तुम्हें एक कड़ाह में खौलता तेल रखना होगा और जो भी व्यक्ति उस खौलते तेल के कड़ाहे में डूब कर जिंदा निकलेगा उसी से तेरी पुत्री का विवाह होगा।"

कुछ समय बाद राजा के यहां एक कन्या ने जन्म लिया। कन्या जन्म लेते ही राजा ने उसे मेरे हवाले कर दिया और जंगल में मेरे लिए कुटिया बनवा दी। तभी से यह राजकुमारी मेरे पास है।

योगी की बातें सुनकर विक्रमादित्य ने राजकुमारी से रोने का कारण पूछा तो उसने कहा-'राजन्, मेरा नाम वसुधंरा है। यहां अनेक नगरों के राजकुमार शिकार खेलने आते रहते हैं। एक दिन अभय नाम का एक राजकुमार यहां आया, उसे देखते ही मैं उस पर मोहित हो गई। धीरे-धीरे हम एक दूसरे को चाहने लगे। जब मैंने उसे अपने स्वयंवर की बात बताई तो उसने कहा मैं तुम्हारे लिए प्राणों तक की बाजी लगा दूंगा। अब आप ही बताओ राजन्! कोई खौलते तेल में डूब कर जीवित रह सकता है। इसलिए में रो रही हूँ।

राजकुमारी की व्यथा सुनकर विक्रमादित्य बोले-'तुम चिंता मत करो। मैं शीघ्र ही कोई न कॊई रास्ता निकालूंगा।' यह कह कर विक्रमादित्य ने देवी द्वारा दिए दोनो बेतालों को याद किया। याद करते ही तुरंत दोनों बेताल उनके सामने हाजिर हो गए। उन्होंने बेतालों को आज्ञा दी कि वे उन्हें रुप नगर के राजकुमार अभय के पास ले चलें। बेतालों ने तुरंत उनकी आज्ञा का पालन किया और रुपनगर की ओर उड़ पड़े। कुछ ही देर बाद उन्होंने विक्रमादित्य का रुपनगर को सीमा पर छोड़ दिया।

विक्रमादित्य वहां से पैदल ही चलते हुए आगे बढने लगे। तभी उनकी नजर एक पेड़ पर रस्सी फेंक कर उसका फंदा बना कर अपने गले में डालते हुए एक युवक पर पड़ी। यह देख कर वे दौडे-दौडॆ उस युवक के पास आए उसे रोकते हुए बोले-"ठहरो यह तुम क्या करने जा रहे हो? तुम कौन हो और इस प्रकार आत्महत्या क्यों करना चाहते हो?"

युवक बोला मैं एक राज कुमार हूँ। मेरा नाम अभय है। मैं एक राजकुमारी वसुंधरा से बहुत प्रेम करता हूँ। स्वयंवर की बात सुनकर मैं लक्ष्य नगर गया लेकिन स्वयंवर की शर्त सुनकर मेरी हिम्मत जवाब दे गई । जब मैं वहा से लौटा तो मेरे सेनानायक ने विद्रोह कर मेरे पिता की हत्या कर स्वयं राजा बन बैठा। अब मेरे पास आत्महत्या करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। "

यह सुनकर विक्रमादित्य बोले- "चिंता मत करो। बहादुर बनो, मैं तुम्हारे साथ हूँ।" वे अभय को अपने नगर ले आए। उन्होंने अभय को अपनी सेना दी और विद्रोही सेनानायक के साथ युद्ध करने के लिए पुनः उसके नगर भेज दिया। वहां उसकी विद्रोहियों से घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में विजय अभय की हुई। विजय का समाचार सुनकर विक्रमादित्य रुपनगर अभय के महल में आए और उसे राजमुकुट पहनाकर राजा घोषित कर दिया। राज्य में फिर से खुशहाली दौड़ गई।

इसके बाद विक्रमादित्य ने अपने दोनों बेतालों को याद किया। बेतालों के हाजिर होते ही विक्रमादित्य ने उन्हें आदेश दिया कि हम लक्ष्य नगर ले चलो। आदेश पाते ही बेताल वसु और विक्रमादित्य को लेकर लक्ष्य नगर की ओर उड़ चले। उड़ते-उड़ते वे उस जंगल के ऊपर पहुंचे जहां राजकुमारी वसुंधरा योगी की कुटिया में रहती थी। विक्रमादित्य ने बेतालों के वहां उतरने का आदेश दिया। नीचे उतरते ही विक्रमादित्य योगी की कुटिया मेंं गए और राजकुमारी से बोले-"मैं तुम्हारे अभय को लाया हूँ।"

यह सुनते ही राजकुमारी की खुशी का ठिकाना न रहा। वह जाकर अभय से लिपट गई। तब विक्रमादित्य ने योगी से कहा-"योगीराज, मैं राजकुमारी का विवाह अभय से करना चाहता हूँ। मैंने उसे उसकी प्रेमिका से विवाह करने का वचन दिया है। मैं उसके लिए खौलते कड़ाह में डूबकर राजकुमारी का हाथ मांगने आया हूँ। अतः आप हमारे साथ लक्ष्य नगर चलो और राजा से कहकर स्वयंवर की तैयारी कराओ।

विक्रमादित्य की बात सुनकर योगी उन सबको लेकर लक्ष्य नगर आया और वहां के राजा को सारी बातों से अवगत कराया। यह सुनकर राजा ने स्वयंवर की तैयारी करने का आदेश दिया। शर्त के अनुसार एक कड़ाह में तेल भरा गया और उसे भट्टी पर चढाया गया। कुछ ही देर बाद तेल खौलने लगा। तभी एक सेवक ने राजा के आने की सूचना दी। राजा के आते ही विक्रमादित्य ने कहा-"विक्रमादित्य! इस खौलते कड़ाह को देख रहे हो न, इसी तेल में डूबकर तुम्हें जीवित वापस निकलना है। तभी तुम अपने मकसद में सफल हो सकोगे।"

यह सुनकर विक्रमादित्य ने मन ही मन बेतालों को याद किया। उनके आने पर उन्होंने बेतालों को कुछ समझाया और खौलते कड़ाह में कूद पड़े। कड़ाह में गिरते ही तुरंत बेतालों ने उन्हें कड़ाह से बाहर निकाल दिया। वे बुरी तरह जल गए थे। तब उन्होंने कराह कर कहा-"मैंने स्वयंवर की शर्त को पूरा किया है। अब मैं राजकुमारी वसुंधरा का हाथ अभय को देने की विनती करता हूँ।'

विक्रमादित्य की बात सुनकर फौरन विवाह की तैयारियां होने लगी। वहां सभी उपस्थित लोग विक्रमादित्य की परोपकार की भावना से आश्चर्यचकित थे। अब विक्रमादित्य की सांसे उखड़ने लगी थीं, उन्होंने मन ही मन इंद्र देवता को याद किया। इंद्र देवता तुरंत उनके सामने उपस्थित होकर बोले-विक्रमादित्य! अगर तुम मुझे याद न भी करते तो भी मैं स्वयं तुम्हारी सहायता के लिए उपस्थित होता।' यह कहकर इंद्र ने उस पर अमृत छिड़क दिया। अमृत छिड़कते ही विक्रमादित्य पूर्ण रुप से स्वस्थ हो गए। फिर राजकुमारी वसुंधरा का विवाह अभय से हो गया। दोनों ने विक्रमादित्य का बहुत आभार माना क्योंकि उन्हीं के कारण दोनों को दुख से मुक्ति मिली थी।

यह कथा सुनाकर पुतली बोली-"सुना तुमने राजा भोज! किस तरह प्राणॊं की बाजी लगाकर विक्रमादित्य ने राजकुमारी वसुंधरा का विवाह राजकुमार अभय के साथ कराया। अगर तुमने भी ऎसा त्याग किया हो, तो तुम बेझिझक इस सिंहासस्न पर बैठ सकते हो, अन्यथा वापस लौट जाओ। यह कहकर पुतली अदृश्य हो गई।

पुतली की बात सुनकर राजा भोज ने एक ठण्डी सांस भरी और निराश होकर अपने महल में वापस लौट आए और शयन कक्ष में जाकर सो गए।