सत्ताइसवें दिन शुभ मुहूर्त की घड़ी आई तो राजा भोज सिंहासन पर बैठने की लालसा से फिर राजदरबार पहुंचे। सिंहासन के नजदीक पहुंचकर जैसे ही उन्होंने अपना कदम पहली सीढी पर रखा तभी मृगनयनी नाम की पुतली ने उनकी आशाओं पर पानी फेर दिया।
वह उनको रोकती हुई बोली-"ठहरो राजा भोज! सिंहासन पर बैठने से पहले मैं तुम्हें विक्रमादित्य के एक विश्वासघाती सेवक की कथा सुनाती हूँ।
उसे सुनने के बाद तुम सिंहासन पर बैठने का विचार करना।' यह कहकर पुतली राजा भोज को कथा सुनाने लगी-'विक्रमादित्य का एक सेवक था जो हर समय उसकी सेवा में लगा रहता था। वह स्वभाव से लालची था और हमेशा धनवान बनने के उपाय सोचा था। राजा को वह बहुत प्रिय था।
एक बार एक पहुंचे हुए साधू उज्जैन नगरी आए। वे बहुत ज्ञानी पुरुष थे, और उन्होंने अनेक सिद्धियां प्राप्त कर रखी थीं।
राजा विक्रमादित्य ने उनकी खूब सेवा की, जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने उन्हें एक मंत्र देते हुए कहा-''राजन, यह मंत्र बड़ा चमत्कारी है।
इसके आह्वन से तुम किसी भी योनी के मृत शरीर में प्रवेश कर सकते हो लेकिन जब तक तुम्हारी आत्मा उस मृत शरीर में रहेगी तुम्हारा शरीर निर्जीव पड़ा रहेगा। यह मंत्र भूल कर भी किसी को मत बताना नहीं तो तुम्हारा जीवन संकट में पड़ जाएगा।'
विक्रमादित्य ने कहा-'महात्मन मैं आपको वचन देता हूँ मैं यह मंत्र किसी को नहीं बताऊंगा।' विक्रमादित्य से वचन पाकर साधू ने वह मंत्र उनके कानों में फूंक दिया लेकिन उन दोनों की बातें सेवक ने सुन ली। वह उस मंत्र को पाने का निश्चिय कर चुका था। अब वह विक्रमादित्य की और भी जान से सेवा करने लगा। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर विक्रमादित्य ने उससे कहा-'तुमने हमारी बहुत सेवा की है। मैं तुम्हारी इस स्वामीभक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ, मांगो तुम्हें क्या चाहिए?
सेवक को तो इसी दिन का इंतजार था। उसने कहा-"महाराज, आपकी सेवा करना मेरा धर्म है। यह तो मेरा सौभाग्य है कि आपकी सेवा करने का मौका मिला। आपकी कृपा से मेरे पास सब कुछ है मुझे कुछ नहीं चाहिए।'
यह सुनकर विक्रमादित्य बोले-'लेकिन हम तुम्हें कुछ देना चाहते हैं। मांगो तुम्हें जो भी चाहिए।'
विक्रमादित्य के ज्यादा जोर देने पर उसने कहा-"महाराज, यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मुझे वह मंत्र दे दीजिए जो आपको साधू महाराज ने दिया था।'
सेवक की बात सुनकर विक्रमादित्य हतप्रभ रह गए। उन्होंने कहा-'यह संभव नहीं है। तुम कुछ और मांग लो।'
सेवक बोला-'नहीं महाराज, मुझे तो वही मंत्र चाहिए। अगर आप मेरी सेवा से प्रसन्न हैं तो और कुछ देना ही चाहते हैं तो वह मंत्र दे दीजिए।'
विक्रमादित्य के लिए यह संभव नहीं था लेकिन अपनी बात से मुकर जाना भी उन्हें शोभा नहीं देता। वे घोर संकट में पड़ गए। काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने सेवक को वह मंत्र सुना दिया।
एक रात वह साधू विक्रमादित्य के सपने में आया और बोला-"राजन्, तुमने वचन तोड़ा है। अतः आज से तुम्हारे बुरे दिन शुरू हो गए हैं ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे।' इतने में राजा की नींद टूट गई वह उठ बैठे और अपने कक्ष में चहल-कदमी करने लगे। रानी ने राजा को इस तरह परेशान देखकर पूछा-"महाराज, आप इतने चिंतित क्यों हो?"
विक्रमादित्य उदास स्वर मेंं बोले-नहीं, महारानी ऎसी कोई बात नहीं है। बस आज मन बैचैन हो उठा है। ऎसा लगता है कि हमारे राज्य पर घोर आपदा आने वाली है और यही विचार बार-बार मन को व्याकुल कर रहा है।
रानी बोली-"महाराज ऎसा अत्यधिक परिश्रम के कारण हो रहा होगा। आप थोड़ा विश्राम कर लीजिए। मैं कल ही आपके आखेट का प्रबंध करवाती हूँ।
दूसरे दिन विक्रमादित्य अपने कुछ सैनिकों व सेवक के साथ आखेट के लिए जंगल की ओर चल पड़े। शिकार की तलाश करते-करते वे जंगल में काफी दूर निकल गए । थकान के कारण विक्रमादित्य का प्यास के मारे गला सूखने लगा। उन्होंने सेवक से कहा-"मुझे बहुत जोरों की प्यास लगी है। कहीं से पानी का प्रबंध करो।"
राजा की आज्ञा का पालन कर सेवक पानी की तलाश में चला गया। इधर विक्रमादित्य एक पेड़ की छाया में जाकर खड़े हो गए। तभी उनकी नजर एक मृत हिरण पर पड़ी। वे हिरण के पास गए और उसे सहलाते हुए मन ही मन कहने लगे, लगता है गर्मी और प्यास से बहाल होकर यह निर्दोष हिरण मर गया है। अचानक उनके मन में एक विचार आया। उन्होंने सोचा, इसके शरीर में प्रवेश करके देखूं कि एक हिरण की नजर में ये संसार कैसा दिखता है। यह सोचकर उन्होंने मंत्र पढा और हिरण जीवित हो गया और उनका शरीर निष्प्राण होकर गिर पड़ा। हिरण कुलांचे मारता हुआ इधर-उधर दौने लगा। दौड़ते-दौड़ते वह काफी दूर निकल गया।
कुछ देर बाद सेवक पानी लेकर वहां आया। राजा का मृत शरीर देखकर वह घबरा गया। उसने सोचा, लगता है महाराज की गर्मी और प्यास के कारण मृत्यु हो गई है। अब सभी मुझे अपराधी मानेगें। अब क्या करुं? तभी उसके मन में एक विचार आया, यदि मैं महाराज का शरीर धारण कर लूं तो उज्जैन नगरी अनाथ नहीं होगी, और मैं भी राजा बन जाऊंगा। लालची तो वह था ही। उसकी आंखों के आगे राजसी वैभव, ठाठ-बाट का रंगीन नजारा घूमने लगा। फिर उसने मंत्र की स्तुति की और राजा विक्रमादित्य का शरीर फिर से जीवित हो गया और उसका शरीर निष्प्राण होकर गिर पड़ा।
उधर हिरण बने विक्रमादित्य की विस्मृति लौटी और वे उसी स्थान पर पहुंचे जहां पर अपना निर्जीव शरीर छोड़ा था। मगर वहां सेवक का मृत शरीर पाकर वे समझ गए । वे मन ही मन कहने लगे, सेवक ने मेरा शरीर धारण कर लिया है। अगर उसे रोका नहीं गया तो अनर्थ हो जाएगा। उस संन्यासी की भविष्यवाणी सच्ची निकली। अब मेरे जीवन पर ही नहीं मेरे राज्य पर भी संकट के बादल छा गए हैं। तभी उन्हें महसूस हुआ कि कोई पीछे खड़ा है। पलट कर देखा तो उनके पीछे एक शेर था। हिरण पूरी ताकत से दौड़ा और काफी देर तक दौड़ता रहा। जब वह शेर के गिरफ्त से काफी दूर निकल गया तो निढाल होकर एक तरफ जा पड़ा।
उधर सेवक राजा का शरीर पाकर खुश था लेकिन रानी ने एक पल में पहचान लिया कि यह महाराज नहीं हैं। सेवक ने रानी को भी करागृह में डाल दिया। पूरे राज्य में अव्यवस्था फैल गई। जगह-जगह विद्रोह शुरू हो गए। जनता पर अत्याचार किया जाने लगा। उनकी पुकार सुनने वाला कोई नहीं था।
बहुत दिन ऎसे ही बीत गए। हिरण जंगल में ही भटक रहा था। हिंसक जंगली जानवरों से छिपता फिर रहा था। वह मन ही मन सोचने लगा, लगता है इसी तरह भागते- भागते मर जाऊंगा। वह यह सोच ही रहा था कि अचानक किसी चीज के गिरने की आवाज आई। हिरण ने देखा तो वह तोता था और छटपटा रहा था। कुछ ही देर में उसके प्राण पखेरु उड़ गए। हिरण ने सोचा, इस हिरण के शरीर से तो तोते का शरीर अच्छा है। मैं उड़कर उज्जैन नगरी पहुंच जाऊंगा।
अगले ही पल विक्रमादित्य की जान तोते में थी। तोता उज्जैन नगरी की ओर उड़ चला। उज्जैन नगरी में उसने देखा कि प्रजा पर तरह-तरह के जुल्म किए जा रहे हैं। तोता महारानी की तलाशी में कारागृह में जा पहुंचा और बोला-"महारानी तुम यहां?"
महारानी ने चौंक कर इधर-उधर देखते हुए कहा-"क....कौन है?" तोता उड़कर उसके सामने आ बैठा और बोला-"महारानी मैं विक्रमादित्य हूँ।'
यह सुनकर महारानी ने आश्चर्य से पूछा-"आप और तोते में?" तोते ने कहा-"हां महारानी! मैं अपनी एक भूल की सजा पा रहा हूँ।" यह कह कर तोते ने अपनी आप बीती रानी को कह सुनाई।"
यह सुनकर रानी बोली- "महाराज अब क्या होगा। उस पापी के हाथों उस राज्य को नष्ट होने से कैसे बचाएं। "
"तुम चिंता मत करो। मेरे पास एक उपाय है।" यह कहकर तोते ने रानी को सारी योजना सुना डाली।
उधर विक्रमादित्य बने सेवक को रानी ने संदेश भेजा कि यदि वह असली विक्रमादित्य है तो सिद्ध करके दिखाए। संदेश सुनकर विक्रमादित्य बने सेवक ने रानी को राजदरबार में बुलवाया और पूछा-'कहो, हमें क्या सिद्ध करना पड़ेगा?"
रानी बोली-"अगर आप असली राजा हैं तो इस मृत बकरे को फिर से जीवित करो, मैं आपको स्वीकार कर लूगीं।'
तब तक तोता भी राजदरबार में आ गया था। सेवक ने कहा-"बस इतनी सी बात! यह तो मेरे बांए हाथ का खेल है।" यह कहकर वह मंत्र पढने लगा। उधर तोता बना विक्रमादित्य भी मंत्र जाप करने लगा। सभी दरबारी सांस रोके इस अद्वितीय घटना को देखने लगे। कुछ ही क्षण में बकरा जीवित हो गया और राजा का मृत शरीर सिंहासन पर लुढक गया। बकरा बोला-"लो महारानी अब तो तुम मानती हो न हम ही विक्रमादित्य हैं?'
तभी पीछे से आवाज आई-"तो फिर हम कौन हैं?" सेवक ने पलट कर देखा तो चीख हलक में ही दब गई। विक्रमादित्य ने मुस्कुराते हुए कहा-"क्यों बकरे का शरीर कैसा लगा? अब समझ में आया लालच कितनी बुरी बला है। तुमने लालच किया और अपना शरीर भी खो दिया।"
बकरा बना सेवक विक्रमादित्य के सामने बहुत गिड़गिड़ाया बोला-'महाराज मुझे माफ कर दो। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। आप तो दया के सागर हैं।'
विक्रमादित्य को उस पर दया आ गई। उन्होंने सैनिको को आदेश दिया-"जाओ इस बकरे को वहां ले जाओ जहां इसने अपने शरीर छोड़ा था।'
सैनिक बकरे को लेकर उस जगह पहुंचे। वहां जाकर बकरे ने मंत्र पढा। मंत्र पढते ही उसकी जान आ गई और बकरा निष्प्राण हो कर एक तरफ लुढक गया। फिर सैनिको को लेकर दरबार में हाजिर हुए। राजा ने कहा तुमने मेरे साथ विश्वासघात किया। इसके लिए मैं तुम्हें यही सजा दूंगा कि तुम उज्जैन नगरी छोड़कर कहीं और चले जाओ।' यह कहकर विक्रमादित्य ने उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राएं भी दी और वहां वे विदा कर दिया।
यह कहकर पुतली बोली-'सुना तुमने राजा भोज! ऎसे थे विक्रमादित्य। इतना बड़ा विश्वासघात करने पर भी उन्होंने उस सेवक को माफ कर दिया। क्या तुमने कभी ऎसा किया है?" यह कहकर पुतली अदृश्य हो गई।
पुतली के इस प्रश्न का राजा भोज के पास कोई उत्तर नहीं था। वे निराश होकर अपने महल में लौट गए।