अट्ठाइसवें दिन राजा भोज ने शुभ मुहूर्त निकलवाकर सिंहासन पर बैठने के लिए अपने कदम आगे बढाए तभी सिंहासन से प्रकट होकर मानवती नाम की पुतली ने राजा भोज को रोकते हुअ कहा-"राजा भोज! मैं तुम्हारी हिम्मत की प्रशंसा करती हूँ और आशा करती हूँ कि तुम इस सिंहासन पर बैठ सको, लेकिन क्या करुं? बैठा तो देती, मगर यह सिंहासन ही कुछ इस प्रकार बना हुआ है कि जब तक राजा विक्रमादित्य का एक भी गुण इस पर बैठने की इच्छा रखने वालों में न हो, तब तक वह सिंहासन पर बैठ नहीं सकता। अगर बैठने की चेष्टा करेगा तो हानि उठाएगा।
खैर, मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य के पूर्व जन्म के कर्मों के फल की एक कथा सुनाती हूँ।
यह कहकर पुतली ने कथा सुनानी आरंभ कर दी-'एक बार विक्रमादित्य के मन में विचार आया कि उनके दरबारीजन उनके बारे में क्या ख्यालात रखते हैं? इस बात का पता तो उनके घरों में होने वाली बातचीत से ही लग सकती है।
इस बात का पता लगाने के लिए उन्होंने एक साधारण नागरिक का वेष बनाया और चुपके से दरबारियों के घरों में प्रवेश कर उनके यहां होने वाली बातचीत को सुनना शुरु कर दिया।
इसी क्रम में एक दिन वह अपने महांम्त्री के घर गए और उनके परिवार में होने वाले वार्तालाप को सुनने लगे। महामंत्री की पत्नी अपने पति से नाराज होकर कर रही थी-"तुम अपने राजा को इतना समय देते हो कि तुम्हें अपने घर का कुछ भी ख्याल नहीं रहता। हर दम उनकी सेवा में ही लगे रहते हो। हमेशा उनकी चापलूसी ही करते रहोगे, क्या और कोई दायित्व तुम्हारा नहीं है?
मंत्री बोला-"भाग्यवान! राजा की बात मानकर उनकी हां मे हां मिलानी ही पड़ती है।"
पत्नी बोली-'भला राजा का क्या ठिकाना। वह कब क्या कर बैठे।'
मंत्री बोला-"लेकिन भाग्यवान हमारे राजा ऎसे नहीं हैं, जैसा तुम सोच रही हो।"
पती से हंसते हुए बोली-"मुझे सब पता है, अपने सगे भाई की हत्या कर सिंहासन पर बैठे हैं वह। जरा सोचो, जो व्यक्ति अपने सगे भाई की हत्या कर सकता है, वह भला क्या नहीं कर सकता।"
मंत्री बोला-तुम ठीक कहती हो भाग्यवान! लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं हम तो उनके सेवक हैं।
मंत्री और उसकी पत्नी का वार्तालाप सुनकर विक्रमादित्य चुपचाप वहां से चले गए। अगले दिन मंत्री को बिना कुछ कहे उन्होने पद से मुक्त कर दिया। अचानक पद से हटाए जाने पर महामंत्री को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
वह सोचने लगा मुझसे ऎसी क्या गलती हो गई जो राजा ने मुझे पद से हटा दिया है। राजा के इस व्यवहार पर और दरबारीजन भी चकित थे लेकिन किसी में भी इसका कारण पूछने का साहस नहीं था।
घर आकर महामंत्री ने यह बात अपनी पत्नी को बताई तो वह बोली-"मैं कहती थी न ऎसे राजाओं का क्या ठिकाना। वह कब क्या कर बैठें।'
अब महामंत्री का समय काटे न कट रहा था। वह विभिन्न सैर-सपाटों में अपना समय व्यतीत करने लगा और इसे एक दैवीय संकट मान कर नदी के किनारे जाकर पूजा-पाठ करने लगा। पूजा-पाठ करते हुए एक दिन उसने नदी में एक सुन्दर फूल बहता हुआ देखा।
वह फूल उसे बहुत सुन्दर लगा। वह तुरंत नदी में उतरा और उस बहते फूल को उठा लाया।
वह उसके रुप-रंग पर मुग्ध हो गया। उसने आज तक ऎसा फूल कभी नहीं देखा था। अचानक उसके मन में विचार आया कि अगर वह यह फूल राजा को भेंट कर दे तो शायद वह प्रसन्न होकर उसे महामंत्री पद पर फिर से नियुक्त कर दें।
पूजा-पाठ समाप्त कर वह विक्रमादित्य के पास गया और उन्हें आदरपूर्वक फूल भेंट कर दिया।
राजा विक्रमादित्य को भी वह फूल बड़ा अच्छा लगा। उन्होंने महामंत्री से पूछा-'यह तो अद्भुत फूल है। यह तुमको कहां मिला?'
महामंत्री बोला-'महाराज, यह फूल मुझे नदी में बहता हुआ मिला।' यह सुनकर विक्रमादित्य बड़े प्रसन्न हुए। उन्हें प्रसन्न देख कर महामंत्री की कुछ आशा बंधी उसने सोचा अब मुझे अपना खोया हुआ पद मिल सकता है। महामंत्री को सोच में पड़ा देख विक्रमादित्य ने पूछा-"क्या सोच रहे हो? अब तुम यह मालूम करो कि यह फूल कहां से आया? और यह कहां उगता है? जल्दी पता करके बताओ।'
'ठीक है महाराज!' महामंत्री ने इस बात को तो स्वीकार कर लिया, लेकिन वह परेशान हो गया। राजा ने तो उसे एक बहुत मुश्किल काम सौंप दिया था। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। वह नदी तट पर गया और जिस दिशा से नदी में वह फूल बहता हुआ आ रहा था, उसी दिशा में वह नाव द्वारा उसकी खोज में निकल पड़ा।
कई दिनों की लगातार यात्रा के बाद भी उसे उस फूल के पौधे नहीं दिखाई दिए। फिर भी उसने अपनी यात्रा अनवरत जारी रखी, अंततः वह नदी के उद्गम स्थल पर पहुंच ही गया। वहां उतर कर उसने उस फूल के पौधे की तलाश शुरू कर दी।
पौधे की तलाश करते-करते अचानक एक दृश्य देखकर वह चौंक पड़ा।
उसने देखा कि एक वृक्ष पर एक आदमी उल्टा लटका हुआ था।
उसके आसपास और कई लोग वैसे ही लटके पड़े थे। यह दृश्य देखकर वह हैरान रह गया।
तभी अचानक उसने दृश्य देखा, जिससे वह आश्चर्यचकित रह गया।
उसने देखा कि पहले वाले लटके आदमी के मुंह से खून की बूंद पानी में टपकती और पानी में गिरते ही फौरन वैसा ही फूल उत्पन्न होकर जल में प्रवाहित हो जाता।
डरते-डरते वह उस पेड़ के पास पहुंचा। उसने उस लटके आदमी को ध्यान से देखा जिसके मुंह से खून टपक रहा था।
उसका चेहरा देखते ही वह चौंक पड़ा। वह मन ही मन बोला-'अरे यह तो विक्रमादित्य हैं। आश्चर्य से उसकी आंखें फटी की फटी रह गई। फिर उसने अन्य लोगों को देखा। सब प्रभाव वाले व्यक्ति लग रहे थे।
राजपुरोहित को तो उसने सबसे पहले पहचान लिया। फिर राजवैद्य को पहचानने में उससे कोई भूल नहीं हुई। उसकी पुत्री की प्राण रक्षा भी तो उन्होंने की थी।
वह हैरानी से एक-एक कर सब लोगों को देखता रहा। फिर उसने वहां से अपनी नजर हटा ली और वहां से लौट पड़ा। वह हैरान तो था, लेकिन खुश भी थॆ। उसे फूल के उद्गम और उत्पत्ति का पता लग गया था।
अपनी यात्रा समाप्त कर वह विक्रमादित्य के दरबार में पहुंचा और उन्हें सारा वृतांत कह सुनाया।
यह वृत्तांत सुन विक्रमादित्य ने उसे बताया-"मंत्री जी, तुम्हारे कथन के अनुसार पहला लटका हुआ आदमी मैं था, वह मेरा पूर्वजन्म है।
उसी की तपस्या के फलस्वरुप मैंने राज्यपर, यश और सम्मान प्राप्त किया है।
बाकी व्यक्ति मेरे ही दरबारी हैं। एक दिन मैंने चोरी-छिपे तुम दोनों पति-पत्नी की बात सुन ली थी।
तुम्हारी पत्नी कह रही थी कि मैंने अपने भाई की हत्या कर यह राज्य हथियाया है, इसी कारण मैंने तुमको मंत्री पद से हटाकर इस हकीकत को दिखाया।
याद रखो, बिना सोचे-समझे, किसी पर कोई इल्जाम लगाना कदापि उचित नहीं होता। अब तुम अपना महामंत्री पद दोबारा संभाल सकते हो।'
यह कथा सुनाकर पुतली बोली-'सुना तुमने राजा भोज! ऎसे थे हमारे महाराजा विक्रमादित्य। अपने पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण वे चक्रवर्ती सम्राट बने। क्या तुममें में भी ऎसे गुण हैं? अच्छी तरह सोच-विचार कर लो उसके बाद ही सिंहासन पर बैठने का साहस करना।' यह कहकर पुतली अदृश्य हो गई। राजा भोज काफी देर तक सोच-विचार करते रहे लेकिन पुतली के इस प्रश्न का जवाब उन्हें नहीं मिला।
अंततः वे निरुत्तर होकर दुखी मन से अपने महल में लौट आए लेकिन उन्होंने आशा का दामन नहीं छोड़ा। उन्हें विश्वास था कि एक दिन वह जरूर सिंहासन पर बैठेगें। एक दिन पुतलियों का यह तमाशा खत्म होगा और उनका स्वप्न अवश्य साकार होगा।