उन्तीसवें दिन्राजा भोज ने निश्चय कर लिया कि आज चाहे कोई भी पुतली सामने आए उसके रोकने पर वे नहीं रुकेंगे। वे राजदरबार में आए और जैसे ही उन्होंने सिंहासन की ओर कदम बढाए। तभी सिंहासन से निकल कर उन्तीसवीं पुतली ने राजा भोज को चेतावनी देते हुए कहा-"ठहरो राजा भोज! तुम्हारे मन में जो है उसका आभास मुझे हो चुका है। सिंहासन पर बैठने की चेष्टा मत करो वरना तुम्हें बहुत पछताना पड़ेगा।'
यह सुनकर राजा भोज ने कहा-"अब मैं तुम्हारे बहकावे में नहीं आने वाला, आज तो मैं सिंहासन पर अवश्य बैठूंगा। मैं तुम्हारी कहानियां सुन-सुन कर ऊब चुका हूँ। देखता हूँ आज मुझे कौन रोकता है।' यह कहकर जैसे ही राजा भोज ने सिंहासन की पहली सीढी में कदम रखा उसी समय सिंहासन से एक प्रकाश पुंज निकला और तेजी से राजा भोज से जा टकराया। प्रकाश पुंज के टकराते ही वे धड़ाम से नीचे गिर पड़े। उन्होंने उठने की बहुत कोशिश की लेकिन उठ न सके। उन्हें लगा जैसे उनकी सारी शक्ति क्षीण हो गई है। तब उन्होंने गिड़गिड़ाते हुए पुतली से कहा-"मुझे क्षमा कर दो। मैने तुम्हारी बात न मान कर बड़ी भूल की है। अब कुछ ऎसा उपाय करो जिससे मेरी शक्ति पुनः वापस लौट सके।'
राजा भोज की विनती सुन कर पुतली बोली-'राजा भोज, जिसने तुम्हें यह कष्ट दिया है, वही तुम्हें मुक्ति भी देगा। तुम राजा विक्रमादित्य का स्मरण करके उनसे क्षमा मांगो।' राजा भोज ने विक्रमादित्य का स्मरण करके माफी मांगी तो उनके शरीर में पुनः नवशक्ति संचारित हो गई और वे उठ खड़े हुए। तब पुतली ने उन्हें कथा सुनानी आरंभ की-
"महाराज विक्रमादित्य के राजदरबार में लोग अपनी समस्याएं लेकर न्याय के लिए तो आते ही थे कभी-कभी उन प्रश्नों को लेकर भी उपस्थित होते थे जिनका कोई समाधान उन्हें नहीं सूझता था। विक्रमादित्य उस प्रश्नों का ऎसा सटीक हल निकालने थे कि प्रश्नकर्ता पूर्ण संतुष्ट होकर जाता था।
एक दिन विक्रमादित्य अपने दरबार में सिंहासन पर बैठे किसी जटिल विषय पर न्याय कर रहे थे। तभी दो संन्यासी किसी विवादित विषय को लेकर राजदरवार में उपस्थित हुए और बोले- "महराज,हमारा विवाद सुलझाने में हमारी सहायता कीजिए।"
यह सुनकर विक्रमादित्य ने संन्यासियों से पूछा- "क्या विवाद है आप दोनों का?
एक सन्यासी बोला- "महराज, ज्ञान के बिना भला मन क्या कर सकता है? जब लोगों को इस बात का ज्ञान है कि राजा विक्रमादित्य ने राज्य में अपराध करने वाले को कड़ा दण्ड मिलता है, तो अपराधी मन का कहना नहीं मान सकता। वह अपना मन मसोसकर रह जाता है, इस प्रकार ज्ञान मन से बड़ा हुआ की नहीं। दूसरा संन्यासी बोला- "महराज,इसका कहना सही नहीं है। मन से ही ज्ञान उत्पन्न होता है। अगर मन न चाहे तो भला कौन ज्ञान प्राप्त कर सकता है? आपका यदि मन न हो तो भला आप प्रजा का कल्याण कर सकते हैं। इसलिए ज्ञान मन से छोटा है।"
राजा विक्रमादित्य ने दोनों संन्यासियों के विवाद के विषय में गौर से सुना लेकिन वे किसी निर्णय पर नहीं पहुंच सके। उन्होंने कुछ देर विचार करके कहा-"यह विषय ऎसा है, जिसका निर्णय तुरंत नहीं दिया जा सकता। इसलिए आप लोग एक सप्ताह बाद आना।' दोनों सन्यासी विक्रमादित्य दोनों की बात पर विचार करने लगे लेकिन वे इस निर्णय पर नहीं पहुंच पा रहे थे कि मन बड़ा है या ज्ञान-दोनों ही एक-दूसरे से कहीं न कहीं बढ-चढकर नजर आते थे। इस बात का फैसला करना टेडी खीर थी। इसी सोच-विचार में उन्हें दो दिन बीत गए। इस तरह के उलझे हुए प्रश्न जब भी उन्हें आ घेरते थे, तो वे उसका निदान लोगों के बीच ढूंढा करते थे।
तीसरे दिन वे एक साधारण नागरिक का वेश धारण करके नगर में घूमने लगे। तभी उनकी नजर एक दरिद्र युवक पर पड़ी। उसके पास जाकर उन्होंने उस युवक से पूछा-"तुम कौन हो, और तुम्हारी यह दशा कैसे हुई?"
युवक बोला-"मेरे पिताजी इस नगर के बहुत बड़े धनवान थे। उनकी मृत्यु के बाद, मैं अपने मन की चंचलता को वश में न रख सका। उनके धन के मद में चूर होकर मैंने वे समस्त दुर्व्यसन अपना लिए, जो धन की बर्बादी की ओर ले जाते हैं। मैंने मदिरापान, वैश्यागमन और जुए की लत डाल ली। एक वर्ष के अंदर मैं अपने पिता के धन से हाथ धो बैठा और जब मेहनत मजदूरी करके किसी तरह अपना पेट भर रहा हूँ।'
यह सुनकर विक्रमादित्य सोचने लगे, इस युवक के कथन ने मन की चंचलता, मन को वश में न रख पाने की बात कही। चंचल मन को वश में न रख पाने के कारण यह धनिक पुत्र बरबादी के कगार पर पहुंच गया। इससे विक्रमादित्य को दोनों सन्यासियों के विवाद का आधा उत्तर मिल गया था। उन्होंने फिर उस युवक से पूछा-" अब तुम क्या सोचते हो?"
युवक बोला-"अब मुझे सद्बुद्धि आ गई है। मैं बहुत ठोकर खा चुका हूँ। अब मैंने सोच लिया है कि मेहनत-मजदूरी करके थोड़ा पैसा बचाकर एक बैलगाड़ी खरीद लूं और बाजार में सामान ढोकर अपना गुजारा करुं।'
यह सुनकर विक्रमादित्य ने पूछा-'सदबुद्धि यानि ठोकर खाने के बाद तुम्हें मन की चंचलता को वश में रखने का ज्ञान प्राप्त हो चुका है और अब इस ज्ञान के बल पर मन की चंचलता पर विजय पाते रहोगे।'
युवक बोला - 'अवश्य इतनी ठोकरें खाने के बाद भी अगर मुझे यह सद्बुद्धि न आई तो मेरे मनुष्य जीवन धिक्कार है ।'
विक्रमादित्य को दूसरी बात का भी जबाब मिल गया । सद्बुद्धि अर्थात ज्ञान के बल पर उसके मन को बश में कर लिया था । उस युवक के उत्साह से प्रसन्न होकर विक्रमादित्य ने उसे पचास हजार मुद्राएं देते हुए कहा - 'इन्हे रख लो और इससे अपना स्वयं का व्यापार करो ।'
विक्रमादित्य बोले - 'मैं इस नगर का राजा विक्रमादित्य हूंँ ।' राजा विक्रमादित्य का नाम सुनते ही उस युवक ने उन्हे दण्डवत प्रणाम किया और उनका आभार प्रकट करते हुए स्वर्ण मुद्राएं ले ली ।
राजा विक्रमादित्य को संन्यासियों के विवाद को सुलझाने का समाधान मिल गया था ।
वे अपने महल लौट आए ।
एक सप्ताह बाद दोनो सन्यासी राज दरबार मे उपस्थित हुए और विक्रमादित्य से निवेदन किया कि वे अपना निर्णय सुनाएं ।
विक्रमादित्य ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा - "इसमे संदेह नही है कि मनुष्य के शरीर पर मन बार-बार नियंत्रण करने का प्रयास करता है लेकिन जो मन के नियंत्रण मे हो जाता है वह विनाश को पहुंचता है ।
अतः मन पर नियंत्रण रखने के लिए ज्ञान का होना आवश्यक है मन शरीर रुपी रथ मे जुड़ा घोड़ा है तो ज्ञान उसका सारथी ।
बिना सारथी के रथ अधुरा है । इसलिए मेरे विचार से ज्ञान ही मन है और मन ही ज्ञान है। दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। इनको अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। दोनों ही बराबर हैं।'
विक्रमादित्य का निर्णय सुनकर दोनों संन्यासी संतुष्ट होकर उनका अभिवादन करके वहां से चले गए। इतनी कथा सुनकर पुतली बोली-"सुना तुमने राजा भोज, हमारे महाराज विक्रमादित्य किस प्रकार प्रत्येक समस्या का सही हल ढूंढ लेते थे। अगर तुमने भी ऎसा समस्या का हल किया हो तो तुम इस सिंहासन पर बैठ सकते हो।' यह कहकर पुतली सिंहासन पर अपने स्थान मे समा गई। राजा भोज निराश होकर उस दिन भी अपने शयन कक्ष में लौट आए।