इकत्तीसवें दिन भी राजा भोज शुभ मुहुर्त पर सिंहासन पर आसीन होने की आस लिए राजदरवार में पहुंचे। वह इस आसा में थे कि संभव है कोई पुतली विक्रमादित्य की कोई ऎसी कथा सुनाए, जिसकी वह बराबरी कर सकें। उन्हें सिंहासन पर बैठने का अवसर मिल जाए।
इसी आशा को लिए जैसे ही उन्होंने सिंहासन पर बैठने के लिए अपने कदम आगे बढाए, तभी सिंहासन से सुनयना नाम की इकत्तीसवीं पुतली उनके सामने प्रकट हो गई और मुस्कराते हुई बोली- "ठहरो राजा भोज! मेरी कथा सुने बगैर तुम इस सिंहासन पर नहीं बैठ सकते। मैं अपनी कथा में तुन्हें यह भी बताऊंगी कि राजा विक्रमादित्य के बाद उनका खुद का बेटा इस सिंहासन पर न बैठ पाया। यह कहकर पुतली ने कथा सुनानी आरंभ की-
"राजा विक्रमादित्य जब बूढे हो गए तो उन्होंने अपने योगबल से जान लिया कि अब उनका अतं समय निकट आ गया है।
उन दिनों वे वन के अपने आवास में साधना -रत थे।
एक दिन उसी आवास में एक रात उन्हें अलौकिक प्रकाश कहीं दूर से आता मालूम पड़ा। उन्होंने गौर से देखा तो पता चला कि सारा प्रकाश सामने वाली पहाड़ियों से आ रहा है। इस प्रकाश के बीच उन्हें एक दमकता हुआ भवन दिखाई पड़ा।
उनके मन में भवन को देखने की जिज्ञासा हुई। उन्होंने देवी द्वारा प्रदत्त बेतालॊं को याद किया। याद करते ही दोनों बेताल उनके सामने उपस्थित होकर बोले-"क्या हुक्म है मालिक?"
विक्रमादित्य ने पहाड़ियों की तरफ इशारा करके कहा-'मुझे उस स्थान तक पहुंचाओ जहां वह स्वर्ण भवन दिख रहा है।'
आज्ञा पाते ही दोनों बेताल विक्रमादित्य को अपने कंधों पर विठाकर उड़ चले।
कुछ ही देर में उन्होंने विक्रमादित्य को उस पहाड़ी से कुछ दूर पहले वहां उतार दिया जहां ज्योतिपुंज दमक रहा था। उन्होंने कहा-"स्वामी, इससे आगे हमारा जाना ठीक नहीं है। वह एक योगी का महल है।
उसने अपने महल के चारों ओर तंत्र का घेरा बना रखा है। उस घेरे को पारकर वही आगे बढ सकता है, जिसने उस योगी से भी अधिक पुण्य अर्जित कर रखे हों।'
यह सुनकर विक्रमादित्य इस बात को परखने के लिए कि उसका पुण्य कितना है, उस भवन की ओर बढने लगे। चलते-चलते वे भवन के द्वार तक पहुंच गए। तभी अचानक कहीं से चलकर एक अग्नि पिण्ड आया और उनके पास स्थिर हो गया।
उसी समय भवन के अंदर से आवाज आई-'जो कोई भी है, उसे आने दो। इसका पुण्य मुझसे कहीं ज्यादा है।'
यह सुनकर अग्निपिण्ड सरककर पीछे चला गया। रास्ता साफ देख विक्रमादित्य निडर होकर महल में प्रवेश कर गए।
किसी मनुष्य के आगमन की आहट पाकर वहां हो रहा गायन, संगीत और नृत्य एक झटके में रुक गया।
सुन्दरियां घबराकर इधर-उधर भागने लगीं। योगी की भृकुटि तन गई। वह कुपित होकर उठ खड़ा हुआ और क्रोधित होकर बोला-'कौन है तू और तुझे किसने यहां तक आने दिया? जल्दी बोल, वरना मैं अपने शाप से अभी तुझे भस्म कर दूंगा।"
मैं राजा विक्रमादित्य हूँ। मुझे किसी ने रोका नहीं इसलिए यहां तक आ गया। मुझे आपके दर्शन की उत्सुकता थी।'
विक्रमादित्य का नाम सुनते ही साधू चौंक गया।
उसने हाथ जोड़कर कहा-'महाराज, मैं बड़ी भाग्यशाली हूँ। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मुझे कभी आप जैसे महापुरुष के दर्शन होंगे।
मैं धन्य हो गया महाराज!" यह कहकर उसने विक्रमादित्य का स्वागत-सत्कार किया, फिर भावपूर्ण स्वर में पूछा-'बोलिए राजन क्या चाहते हैं आप जो मांगोगे वही मिलेगा।"
विक्रमादित्य बोले-'ऋषिवर, अगर आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मुझे यह अद्भुत भवन और यहां की सुख-सुविधाएं दे दें।'
योगी बोला-"ठीक है राजन्, मैं यह भवन आपको देता हूँ।
योगी उस अदभुत भवन को विक्रमादित्य को सौंपकर उसी समय वन में कहीं चला गया। चलते-चलते वह जंगल में काफी दूर पहुंच गया।
वह कई दिनों तक वन में भटकता रहा। एक दिन अचानक उसकी भेंट अपने गुरु से हो गई। उसके गुरु ने उसे इस तरह वन में भटकने का कारण पूछा तो वह बोला-"गुरुदेव मैंने अपना भवन विक्रमादित्य को दान कर दिया है।'
यह सुनकर गुरु ने मुस्कराकर कहा-'तू भी किसकी बातों में आ गया। वह तो स्वयं इस पृथ्वी का सबसे बड़ा दानी है। उसे तेरे भवन से क्या काम? अपनी मृत्यु को निकट जानकर वह अपनी कुटिया में ईश्वर का भजन करता हुआ परलोक सिधार रहा होगा।
तू वापस लौट कर कुटिया के सामने ब्राह्मण का रुप बनाकर जा और उनसे अपने रहने की जगह के बारे में बात कर। जब वह स्थान के बारे में पूछे तो तू उसी भवन को मांग लेना।'
गुरु का परामर्श मानकर वह योगी ब्राह्मण का वेश बना कर उस कुटिया में जाकर विक्रमादित्य से मिला जिसमें वे साधना कर रहे थे।
उसने विक्रमादित्य से अपने रहने के लिए जगह की याचना की। विक्रमादित्य ने सहज भाव से कहा-'ब्राह्मण देवता, जहां आपका जी चाहे उसी स्थान का चयन कर लें।'
ब्राह्मण वेशधारी योगी बोला-"राजन् अगर आप मुझे जगह देना ही चाहते हैं तो मुझे वह भवन दे दीजिए जिसे मैंने आपको दान में दिया है।'
यह सुनकर विक्रमादित्य मुस्कराते हुए बोले-'योगीराज, उस भवन को तो मैं उसी समय छोड़कर अपनी कुटिया में आ गया था। मैंने तो बस आपकी परिक्षा के लिए वह भवन लिया था।'
यह कथा सुनकर पुतली बोली-"सुना तुमने राजा भोज! ऎसे थे हमारे महाराजा विक्रमादित्य। वे धर्म-कर्म वाले तो थे ही, त्यागी भी इतने ही थे कि स्वर्ण भवन पाकर भी क्षण भर में त्याग दिया था। क्या ऎसा तपस्वी राजा दूसरा हो सकता है?"
पुतली ने अपनी कथा जारी रखते हुए आगे कहा-"राजा विक्रमादित्य भले ही देवताओं से आगे बढकर गुण वाले थे और इंद्रासन के अधिकारी माने जाते थे, वे थे तो मानव ही। मृत्यु लोक में जन्म लिया था, इसलिए एक दिन उन्होंने देहलीला त्याग दी। उनके मरते ही सर्वत्र हा हा कार मच गया। उनकी प्रजा शोकाकुल होकर रोने लगी देवताओं ने उनकी चिता पर फूलों की वर्षा की।
उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके जेष्ठ पुत्र जैतपाल को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया गया।
जब जैतपाल राजदरबार चलाने के लिए सिंहासन पर बैठा, उसका सिर चकरा गया और वह नीचे गिर कर अचेत हो गया। मूर्च्छा की अवस्था में उसने एक स्वप्न देखा।
स्वप्न में उसे अपने पिता दिखाई दिए, जो उससे कह रहे थे-'पुत्र यह सिंहासन देवताओं का है। इस पर बैठने का प्रयास मत करना।
इस सिंहासन पर सिर्फ वही बैठ सकता है जो परम गुणी हो, जिसमें देवत्व हो, वह परोपकारी, दानशील और दूसरों का दुख-दर्द समझने और उनको निवारण करने की पूरी क्षमता रखता हो।
जब तुममें यह गुण आ जाएंगे और तुम सिंहासन पर बैठने लायक हो जाओगे तो मैं खुद तुम्हें स्वप्न में आकर बता दूंगा।'
जब कई दिनों तक विक्रमादित्य जैतपाल के सपने में नहीं आए तो वह चिंतित रहने लगा कि इस सिहासन का क्या किया जाए।
उसने यह बात अपने वृद्ध मंत्री को बताई तो उन्होंने उसे सुझाव दिया कि तुम सच्चे मन से अपने पिता का स्मरण करके सॊओगे तो वे जरूर तुम्हें सपने में आकर बताएंगे कि इस सिंहासन का क्या करना है।
जैतपाल ने रात में सोने से पहले अपने पिता का स्मरण किया।
विक्रमादित्य ने उन्हें सपने में दर्शन दिए और उससे उस सिंहासन को जमीन में गड़वा देने को कहा तथा उसे उज्जैन छोड़कर अम्बावती में अपनी नई राजधानी बनाने की सलाह दी।
उन्होंने यह भी कहा कि कालांतर के प्रवाह से जब भी कोई सर्वगुण संपन्न राजा पैदा होगा, वह इस सिंहासन का उतराधिकारी बनेगा।
पिता के परामर्श के अनुसार जैतपाल ने उस सिंहासन को धरती में गरवा दिया और उज्जैन छोड़कर अम्बावती नगरी जाकर अपना राज्य बसाया।' अपना कथन समाप्त कर पुतली बोली-'राजा भोज! जब विक्रमादित्य का अपना पुत्र जैतपाल ही इस सिंहासन पर न बैठ सका, तो तुम उस पर भला कैसे बैठ सकते हो?" यह कहकर पुतली सिंहासन पर जाकर अपने स्थान पर अदृश्य हो गई।
राजा भोज ने अब निश्चय कर लिया कि अब वे सिंहासन पर नहीं बैठेंगे। वे अपने महल में लौट आए।