बत्तीसवें दिन राजा भोज राजदरबार में इस निश्चय के साथ आए कि वे सिंहासन पर नहीं बैठेगें।
अतः वे चुपचाप एक स्थान पर बैठ गए। राजा भोज को इस प्रकार खामोश बैठा देखकर सिंहासन की बत्तीसवें पुतली को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह प्रकट होकर राजा भोज के सामने आई और मुस्कराती हुई बोली-'मैं इस सिंहासन की पुतलियों की रानी हूँ। आज मैं देख रही हूँ कि तुममें सिंहासन पर बैठने की व्यग्रता नहीं है ऎसा क्यों?
राजा भोज ने कहा-"राजा विक्रमादित्य के देवताओं वाले गुणों की कथाएं सुन-सुनकर मुझे ऎसा लग रहा है कि इतनी विशेषताएं एक मनुष्य में असंभव है। मैं मानता हूँ कि मुझमें बहुत सारी कमियां हैं। इसलिए मैंने विचार किया है कि इस पर बैठने का मोह छोड़कर मैं इसे उसी स्थान पर गड़वा दूंगा, जहां से इसे निकाला गया था।'
राजा भोज का इतना कहना था कि सारी पुतलियां सिंहासन से प्रकट होकर अपनी रानी के पास आ गई।
उन्होंने प्रसन्न होकर राजा भोज को इस निर्णय के लिए धन्यवाद देते हुए कहा-"आज से हम भी मुक्त हो गई हैं। अब यह सिंहासन बिना पुतलियों का हो जाएगा।
राजा भोज! यद्यपि तुम पूर्णरूप से विक्रमादित्य जैसे गुणों वाले नहीं, लेकिन आंशिक रूप से तुम उनके जैसे गुणॊं वाले हो।
इसी योग्यता के चलते तुम्हें इस सिंहासन के दर्शन करने का पुण्य प्रताप मिला। आज से इस सिंहासन की आभा कम पड़ जाएगी और धरती की सारी चीजों की तरह यह भी पुराना होकर नष्ट हो जाएगा। ' यह कहकर पुतलियों ने राजा भोज से विदा ली और देखते ही देखते आकाश में विलीन हो गई।
पुतलियों के जाते ही राजा भोज ने अपने कर्मचारियों को आदेश दिया-'इस सिंहासन को वहीं दबा दो जहां से इसे निकाला गया था।'
राजा का आदेश पाते ही कर्मचारियों एवं मजदूरों ने सिंहासन को उसी उद्यान में दबा दिया जहां से उसे निकाला गया था ।
अब वहां एक टीला नजर आने लगा । समय गुजरता गया अब वह टीला इतना प्रसिद्ध हो चुका था कि दूर दराज के लोग उसे देखने के लिए आने लगे ।
सभी को पता था कि उसके नीचे स्वर्ण जड़ित सिंहासन दबा है । धीरे-धीरे यह बात चोरों के गिरोह के कानो मे पड़ी । उन्होने टीलों से मीलो पहले एक सुरंग खोदनी सुरु कर दी ।
कई महिनों के मेहनत के बाद सुरंग खोदकर वे सिंहासन तक पहुंच गए और उसे सुरंग के रास्ते बाहर लाकर एक निर्जन स्थान पर ले आए। सिंहासन पूरी तरह सोने से निर्मित था । चोरों के मुखिया ने सोचा इतने बड़े सिंहासन को कौन खरीदेगा ।
इसे बेचने के लिए हम इसे उठाकर नगर-नगर भी नही घूम सकते । इसलिए बेहतर यही है कि इसके टुकड़े-टुकड़े करके बेचे जाएं । यह सोचकर मुखिया ने अपने साथियों से कहा - साथियों हम इस तरह हम इस सिंहासन को नही बेच सकते इसलिए तु ऎसा करो इस सिंहासन के टुकड़े-टुकड़े कर दो ।
मुखिया का आदेश पाते ही उसके साथी सिंहासन पर हथौड़े मारने लगे लेकिन जहां भी उनका हथौड़ा लगता वहीं से चिंगारियां निकलती और उनके हाथ जल जाते। काफी देर तक वे कोशिश करते रहे लेकिन सिंहासन को तोड़ने में कामयाब न हो सके।
आखिर थक हार कर वे एक जगह बैठ गए और सोचने लगे, जरूर यह सिंहासन भुतहा है, तभी तो राजा भोज ने इसे अपने उपयोग के लिए नहीं रखा।
महल में रखकर जरूर ही उन्हें कुछ परेशानी हुई होगी। तभी उन्होंने इस मूल्यवान सिंहासन को दोबारा जमीन में दबवा दिया।
यह विचार कर कि वे राजा भोज की तरह उसे त्यागने की सोच रहे थे कि तभी उनके मुखिया ने कहा-"मेरे पास एक युक्ति है। हम सब जौहरियों के वेश में श्रावस्ती चलें।
श्रावस्ती यहां से बहुत दूर है। आशा है वहां इस चमत्कारी सिंहासन की खबर न गई होगी। हम वहां के राजा को यह सिंहासन बेच सकते हैं।'
मुखिया की बात उसके बाकी साथियों को पसंद आई उन्होंने सिंहासन को अच्छी तरह कपड़े से लपेटा और श्रावस्ती की ओर चल पड़े।
करीब दो महीने की यात्रा के बाद वे श्रावस्ती पहुंचे और श्रावस्ती नरेश के दरबार में उपस्थित हो गए।
चोरों के मुखिया ने श्रद्धा और आदर के साथ कहा- "राजन्, हम जौहरियों ने मिलकर अत्यंत दुर्लभ रत्नों से जड़ित कई बर्षों की मेहनत के बाद यह सिंहासन बनाया है।
हमने सोचा यह सिंहासन आप जैसे ऎश्वर्यशील राजा के ही योग्य है।" श्रावस्ती नरेश को वह सिंहासन पसंद आया।
उन्होंने उसे पचास हजार स्वर्ण मुद्राओं में खरीद लिया और अपने राजदरबार में रखवा दिया। उस से सारा राजदरबार अलौकिक रोशनी से जगमगाने लगा।
अब राजा का मन भी सिंहासन पर बैठने को हुआ। राजा ने शुभ मुहूर्त निकलवाया और सिंहासन पर विराजमान हो गए।
सभी दरबारीजन उनकी जय-जयकार करने लगे।
धीरे-धीरे श्रावस्ती नरेश का सिंहासन चर्चा का विषय बन गया। दूर-दूर के राजा उस सिंहासन को देखने के लिए आने लगे। धीरे-धीरे यह बात राजा भोज के राज्य में भी पहुंची।
यह सुनकर उन्हें लगा, कहीं यह विक्रमादित्य का सिंहासन तो नहीं है। उन्होंने तत्काल उस जगह को खुदवाया जहां सिंहासन दबा था।
खुदाई के बाद उन्होंने देखा कि वहां से सिंहासन गायब है और वहां जमीन के नीचे एक लम्बी सुरंग है जिसे देखने पर उन्हें पता चल गया कि चोरों ने सिंहासन चुरा लिया है। अब उन्हें पूरा विश्वास हो गया। कि वह सिंहासन उनका ही है लेकिन यह सोचकर वे आश्चर्य में पड़ गए कि श्रावस्ती नरेश किस विधि से उस पर बैठ गए?
यह देखने के लिए राजा भोज अपने कुछ कर्मचारियों को लेकर श्रावस्ती राजा के राज्य में पहुंचे। श्रावस्ती नरेश ने उनका स्वागत-सत्कार किया और आने का प्रयोजन पूछा। राजा भोज ने उस सिंहासन के बारे में उन्हें सारी बात बता दी। यह सुनकर श्रावस्ती नरेश को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने ज्योतिषियों से पूछा-"तो वे बोले राजन्, चूंकि यह सिंहासन बिक चुका है। इसलिए धीरे-धीरे इसका सारा चमत्कार जाता रहा है। अब यह सिंहासन सोने के बजाय पीतल का हो गया है।
यह सुनकर श्रावस्ती नरेश चौंक पड़े। उन्होंने जौहरियों को बुलवाकर उसकी जांच करवाई तो जौहरियों ने भी उसे पीतल का बताया। श्रावस्ती नरेश इस चमत्कार पर हैरान रह गए। तब उनके ज्योतिषीयों ने उन्हें सलाह दी-'राजन! यह सिंहासन मुर्दा हो गया है। इसका सत्य चला गया है, यह अपवित्र हो गया है। अब इसे जल में प्रवाहित कर दिया जाना चाहिए।'
श्रावस्ती नरेश ने ज्योतिषियों की सलाह मानकर उस सिंहासन को कावेरी नदी में जल समाधि दिलवा दी।