नीतिशास्त्र का ज्ञान

गंगा नदी के किनारे बसे पाटलिपुत्र शहर का इतिहास में एक विशेष स्थान है ।

इस शहर को आजकल लोग पटना के नाम से जानते हैं ।

उस समय का पाटलिपुत्र एक विशाल राज्य की राजधानी था ,

जिस पर सुदर्शन नाम के राजा राज करते थे ।

राजा सुदर्शन स्वयं भी एक अच्छे विद्वान् थे बहादुर थे ।

उनके राजदरबार में देश भर के चुने हुए विद्वानों को एक विशेष स्थान प्राप्त था ।

राजा स्वयं ही इन विद्वानों की सेवा की देखभाल करते थे ।

साथ ही इन विद्वानों से ज्ञान प्राप्त करते थे ।

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एक बार एक विद्वान ने उनसे कहा था : 1. धर्म और राजनीति , समाज और इतिहास - संबंधी उलझनों की धुंध के पार केवल ज्ञान की आंखों से ही देखा जा सकता है ।

ज्ञान तो एक ऐसा प्रकाश है जो संसार के डर अंधेरे को मिटा सकता है ।

जहां तक ज्ञान का प्रकाश पहुंच सकता है वहां तक मानव की आंखें नहीं पहुंच सकतीं ।

इसका अर्थ है : जो नजर के सामने नहीं है , उसे देख सकने वाली ज्ञान की आंखें महान् हैं ।

जिनके पास ज्ञान की आंखें नहीं हैं वे आंखें रखते हुए भी अंधे होते हैं ।

2. जिस प्राणी को , जवानी धन - दौलत , राजपाट और महानता में से कोई एक चीज मिल जाए तो वह अहंकार में अंधा होकर बड़े से बड़ा पाप भी कर सकता है ।

हां , यदि किसी को यह सबके सब एक साथ ही मिल जाएं ! ' तो उस प्राणी का क्या हाल होगा ?

" यही सोचने की बात थी । राजा सुदर्शन ने जब से वे श्लोक सुने थे तब से उनकी चिंता और

बारे में अधिक चिंतित थे ।

भी बढ़ गई थी ।

वे अपनी औलाद के क्योंकि उन्हें यह भली भांति पता था कि उनके पुत्र , मगध के राजकुमार , ज्ञान की बातों से बहुत दूर जा रहे हैं ।

वह पंडितों की संगत को त्याग घटिया विचारों के लोगों के साथ रहते हुए ज्ञान सागर से बहुत दूर हो गए हैं ।

राजा सुदर्शन के पास इतना बड़ा घर का खजाना था कि उनकी सात पीढ़ियां भी आराम से बैठकर खा सकती थीं ।

किन्तु धन से इन्सान महान् नहीं बनता । ज्ञान के बिना तो इन्सान अधूरा है ।

फिर एक राजा जिसके ऊपर पूरी प्रजा का बोझ है , पूरे देश को चलाने का महान् कार्य करना है यदि वह राजा ही अज्ञानी है तो उस देश का क्या होगा ?

यही चिंता अंदर ही अंदर राजा सुदर्शन को घुन की भांति खाए जा रही थी ।

दिन - रात चिंता में खोए राजा जी सोचते रहते , ऐसी औलाद का क्या लाभ है ?

जो पढ़े नहीं लिखे नहीं , धर्म के बारे में न सोचे , ऐसी संतान तो कानी आंख की भांति दुःख ही देगी ।

ऐसी औलाद का होना न होना बराबर है ।

पुत्र पैदा हो न हो , पैदा होकर मर जाए अथवा बुद्धिमान् न निकले , इन तीनों में से पहली दो बातें तो ठीक हैं , यानी औलाद न हो या फिर पैदा होते ही मर जाए

, इसका दुःख तो किसी तरह से सहन कर लेगा , किन्तु जो औलाद इन्सान किसी न बुद्धिमान् न हो , ज्ञान से दूर हो , पढ़ी - लिखी न हो , ऐसी मूर्ख औलाद का दुःख बहुत बुरा है ।

ऐसी औलाद का तो रोज का ही दुःख है । उसे देखकर तो मा - बाप हर समय अंदर ही अंदर जलते रहते हैं और यही जलना उनके लिए भयंकर रोगों का कारण बन सकता है ।

ऐसी औलाद केवल बोझ ही होती है । जो औलाद , सुन्दर और जवान होकर भी अज्ञानी हो उसका गर्भ में मर जाना अच्छा है ।

ऐसी औलाद यदि भूल से जन्म ले भी ले तो उसे पैदा होते ही मर जाना चाहिए ।

ऐसे एक मूर्ख पुत्र से तो सात बुद्धिमान लड़कियां भी अच्छी होती हैं ।

ऐसे मूर्ख बेटे की मां बनने से तो औरत का बिना औलाद रहना ही अच्छा होता है ।

अच्छी औलाद मां - बाप के लिए सुख लाती है , बुरी दुःख , तभी तो बुरी औलाद के बारे में कभी - कभी दुःखी मां - बाप यह कहते हैं कि इससे तो तुम पैदा होते ही मर जाते तो अच्छा था ।

होते हैं जिनकी संतान अपने कुल के लिए नेक काम करती है ।

जो लोग अपने वंश और मानवता की भलाई के लिए कुछ नहीं करते उनका जीना और मरना बराबर है ।

आदमी की पहचान उसकी जाति से नहीं बल्कि उसके गुणों और बुद्धि से होती है ।

इसमें वंश की ऊंच - नीच किसी काम नहीं आती ।

बांस चाहे कितना भी मजबूत क्यों न हो यदि वह निर्गुण है तो उसका क्या लाभ है ?

वह तो बेकार ही गिना जायेगा । बांस को रस्सी बांधकर धनुष बनता है और उससे तीर छोड़ा जाता है , उस लम्बे बांस से तो उसका छोटा सा टुकड़ा अधिक गुणकारी है

जो धनुष बनकर रक्षा का काम तो करता है ।

यही सोचते थे राजा सुदर्शन अपने पुत्रों के बारे में । वह सुबह - शाम इसी चिंता में डूबे रहते थे कि मैं अपने पुत्रों को कैसे बुद्धिमान् बनाऊं ?

बुद्धि बिना तो ये राजकुमार होते हुए भी पशुओं के समान हैं ।

ये राजपाट का काम कैसे चलाएंगे , प्रजा के दुःखों को कैसे दूर करेंगे ?

देश की रक्षा कैसे करेंगे ? धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष , इन पुरुषार्थों में से जो आदमी एक के लिए भी प्रयत्न नहीं करता उसका जीवन वैसे ही व्यर्थ है

जैसे बकरी के गले में लटका स्तन ( झालर की भांति गले के नीचे लटका मांस ) ।

१. उम्र , २. कर्म ( भाग्य ) , ३. धन , ४. विद्या , ५. मृत्यु , ये पांचों इन्सान के लिए उसी वक्त निर्धारित हो जाती हैं जब वह माता के गर्भ में आता है ।

चाहे कोई कितना ही बड़ा क्यों न हो , होनी को कोई टाल नहीं सकता , जैसे भगवान् होकर भी शिवजी का सदा नंगे रहना ,

विष्णु का सर्पशय्या पर लेटना दैवाधीन , भाग्य के खेलों की ही निशानी है ।

जो हो नहीं सकता , वह होगा ही नहीं , और जो होना है वह टल नहीं सकता ।

यह अटूट सत्य है , इस सत्य के ज्ञान को पाकर व्यर्थ की चिंताओं से छुटकारा क्यों नहीं पा लेते ?

ऐसी बातें उन बेकार और सुस्त लोगों की बकवास मात्र हैं जो हाथ - पांव हिलाने को तैयार

नहीं ।

( यह माना कि भाग्य बड़ा प्रबल है ) मगर जैसे एक पहिये से गाड़ी नहीं चल सकती ,

वैसे ही हिम्मत के बिना भाग्य के लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो सकती ।

पूर्वजन्म के कर्मों का फल ही तो भाग्य बनता है ।

इसलिए आदमी को सुस्ती छोड़ हिम्मत का दामन थामकर परिश्रम करना चाहिए ।

यह सोचकर कभी भी हिम्मत नहीं छोड़नी चाहिए कि जो होना है वह तो होकर रहेगा ; भाग्य में लिखे को कौन टाल सकता है !

अरे बिना हिम्मत किए तो तिलों में से तेल भी नहीं निकलता ।

धन सदा हिम्मत वाले , परिश्रमी , बुद्धिमान , साहसी लोगों को ही मिलता है ।

भाग्य की बात दिल से निकालकर पूरी हिम्मत और आत्मशक्ति से अपने काम में जुट जाएं , तो नसीब भी तुम्हारा साथ देगा , सफलता अवश्य मिलेगी ।

यदि परिश्रम करने पर भी सफलता न मिले तो समझ लेना कि कहीं न कहीं भूल हुई होगी अथवा परिश्रम में कमी रह गई होगी ।

जैसे मिट्टी के लौदे को कुम्हार मनचाहा रूप दे डालता है उसी तरह इन्सान भी अपने कर्मों और परिश्रम से अपने भाग्य को मनचाहा रूप दे सकता है ।

जैसे रास्ते में पड़ा हुआ धन तुम्हें दिखाई दे जाए , हिम्मत और परिश्रम के बिना तो आप उसे भी पा नहीं सकेंगे ; उसे उठाकर संभाल रखने का कष्ट तो करना ही पड़ेगा ।

मन - ही - मन में लड्डू फोड़ने , ख्याली घोड़े दौड़ाने से कभी काम नहीं चलता , आखिर हिम्मत तो करनी ही पड़ेगी ।

सोये पड़े शेर के मुंह में हिरण अपने - आप शिकार बनने को नहीं घुस जाते ।

ऐसे मां - बाप अपनी औलाद के स्वयं शत्रु होते हैं जो उसे शिक्षा नहीं दिलवाते ।

अनपढ़ लोग सभा - समाज में ऐसे ही नफरत से देखे जाते हैं जैसे हंसों में बगुले सुन्दर हो , जवान हो या ऊंचे घराने में जन्म लिया हो फिर भी यदि वह अनपढ़ है

तो उसका हाल वही होता है जो गन्ध के बिना फूल का ।

राजा सुदर्शन अपने पुत्रों के बारे में यही सब कुछ सोच रहे थे ।

आखिर एक दिन उन्होंने अपने देश और दरवार के विद्वानों को अपने पास बुलाया और उनके आगे अपनी सारी चिंताओं की पुस्तक खोलकर रखते हुए कहा " मेरे आदरणीय , साथी विद्वानो , बुद्धिजीवियो , आज मैंने आप सबको इसलिए बुलाया है कि मैं अपने पुत्रों के पथभ्रष्ट होने से बहुत दुःखी हूं ,

आप लोगों के दिये ज्ञान के प्रकाश में मैं आगे बढ़कर इस नतीजे

पर पहुंचा हूं कि इस अंधेरे को दूर करने के लिए आपसे ही सलाह लूं ।

आपने ही बताया था कि बुद्धिमान् वही है जो संकट के समय किसी दूसरे बुद्धिमान् का सहारा ले , उसकी राय ले ।

अब आप लोग ही मुझे बताएं कि मैं अपने पुत्रों का सुधार कैसे करूं ?

" उन विद्वानों में से एक महापंडित , दार्शनिक , बुद्धिजीवी श्री विष्णु शर्मा ने उठकर कहा " महाराज , आप मेरे होते हुए क्यों चिंता करते हैं ?

मैं इन बालकों को अपने पास रखकर इन्हें अज्ञानता मूर्खता के अंधेरे से निकालकर नीतिशास्त्र की शक्ति से इनमें प्रकाश दिखाऊंगा ।

आप अपने राज - पाट के कामों की ओर ध्यान दें । यह कार्य मुझ पर छोड़ दें ।

यह बात ठीक है कि परिश्रम वहीं पर सफल है जहां पर इसकी जरूरत हो ।

विद्या का प्रभाव भी उसी पर पड़ता है जिसक पास बुद्धि हो - जैसे बगुले को सौ बार पढ़ाओ , वह तोते की भांति रट नहीं सकता ।

लेकिन आपके पुत्र तो राजकुमार हैं ।

राजघराने में कभी मूर्ख संतान नहीं हो सकती , फिर आप तो स्वयं बहुत बड़े ज्ञानी हैं ।

केवल अंतर यही रहा है कि इन बच्चों की शिक्षा सही ढंग से नहीं हुई ।

अब मैं इन बच्चों को अपने साथ ले जाता हूं ।

आपको यह वचन देता हूं कि छः मास के अंदर - अंदर इन्हें नीतिशास्त्र का ऐसा ज्ञान दूंगा कि ये बहुत बड़े विद्वान् बन जाएंगे ।

" महा पंडित विष्णुजी की बात सुन राजा सुदर्शन बड़े ही खुश हुए ।

उन्हें ऐसा एहसास हुआ जैसे उनकी आत्मा पर से बहुत बड़ा बोझ हट गया हो ।

यही तो वह चाहते थे ।

अपनी औलाद का सुधार और प्रजा का सुख जो राजा बुद्धिमान् है और नीतिशास्त्र जानता है उसे संसार की कोई शक्ति नीचा नहीं दिखा सकती ।

उसकी प्रजा भी सदा सुखी रहती है ।

फिर राजा सुदर्शन ने अपने दोनों पुत्रों को विष्णुजी के हवाले करते

हुए कहा

" पंडितजी , मेरे इन पुत्रों को नीतिशास्त्र का ज्ञान देने में आप ही योग्य हैं , आज से ये दोनों आपके पास ही रहेंगे आप ही इनके सब कुछ हैं । "

" धन्यवाद , महाराज , मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मैं अपने कर्तव्य का पूरा पालन करूंगा ।

" इतना कहकर विष्णु पंडित उन राजकुमारों को अपने साथ ले गये ।