बूढ़ा शेर , लालची यात्री

एक बार में वृन्दावन के घने जंगलों पर से उड़ा जा रहा था तो मैने एक वृक्ष पर बैठ थोड़ा आराम करने की बात सोची

उस वृक्ष के नीचे ही एक तालाब था । मैंने सोचा , गर्मी का मौसम है , इस तालाब के पानी से प्यास ही बुझा लूंगा ।

जैसे ही मैं वृक्ष पर बैठा तो क्या देखता हूं । एक बूढ़ा शेर तालाब में से नहा - धो कर बाहर निकला ।

उसने हाथ में चमकती हुई सुनहरी कुशा का गोल तिनका पकड़ा हुआ था , जो दूर से सोने की भांति चमक रहा था ।

शेर बूढ़ा था ।

वह अपना शिकार करने के योग्य नहीं रहा था , उसने अचानक ही तालाब के पास से जाते हुए कुछ लोगों को देखा ।

उसकी तीव्र बुद्धि ने अपना शिकार खेलने के लिए नया जाल फैलाया

। वह उन यात्रियों की ओर देखकर बोला : " अरे , भाइयो , यह अपना सोने का कंगन तो लेते जाओ ।

" आते - जाते सभी लोग शेर की आवाज़ सुनकर रुक गये ।

" सोने का कंगन और वह भी शेर के पास । " उन सबकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था ।

इसमें अवश्य ही कोई घोटाला है । शास्त्र कहते हैं

धोखेबाज़ और खूनी प्राणी के हाथों से बहुत लाभ होने की संभावना में भी कोई न कोई खतरा छुपा होता है ।

अमृत भले ही अमृत सही किन्तु जब यह अमृत ज़हर में मिलता है तो यह भी ज़हर बन जाता है ।

मगर धन कमाने में भी जोखिम तो उठाना ही पड़ता है ।

यदि इन्सान डरकर ही बैठ जाए तो वह कुछ भी नहीं कर सकता ।

उनमें से एक यात्री यही सोचकर आगे गढ़ा और शेर की ओर देखते हुए कहने लगा " जंगल के राजा ,

पहले यह तो दिखाओ कि यह कंगन सोने का है भी अथवा नहीं ।

" शेर बूढ़ा होते हुए भी बहुत चालाक था , उसे पता था यात्री सबसे पहले यही प्रश्न करेगा ।

इस प्रश्न के उत्तर की तैयारी उसने पहले से ही कर रखी थी ।

उसने झट से अपने हाथ में चमकते उस नकली कुशा के कंगन को दिखा दिया जो दूर से असली सोने से अधिक चमक

रहा था ।

" अरे जंगल के राजा , तुम तो एक खूनी जानवर हो , तुम्हारे ऊपर कोई विश्वास करे भी तो कैसे ?

" उस यात्री ने शेर की ओर देखकर

कहा ।

शेर हंसा और उस यात्री की ओर देखकर बोला : " वास्तव में तुम ठीक कहते हो मित्र ,

यदि तुम्हारे स्थान पर में होता तो मैं भी यही सोचता ।

शेर और मानव जाति की दुश्मनी बड़ी पुरानी चली आ रही है ।

मैंने अपनी जवानी में कितने ही लोगों की हत्या की है ।

उनके खून और मांस से अपना पेट भरा है ।

हज़ारों जंगली जानवरों की भी हत्या की है ।

मैं आज यह महसूस कर रहा हूं कि मैं बहुत बड़ा पापी हूं , मैं आज अपनी भूल पर पश्चात्ताप भी कर रहा हूं ।

मेरी यह भूल जवानी की भूल थी । अब तो मैं बूढ़ा हो गया हूं ।

इस बुढ़ापे में मैंने यह फैसला किया है कि अब मैं कोई पाप नहीं करूंगा ।

किसी भी प्राणी की हत्या नहीं करूंगा ।

बस , इस तालाब के किनारे बैठ राम नाम लेते हुए अपने पापों का प्रायश्चित्त करूंगा ।

अब मैं इस तालाब में रोज़ाना नहा - धोकर भगवान् का नाम लेता हूं ।

यदि कोई कीमती चीज़ मुझे कहीं से मिल जाती है तो मैं उसे दान - पुन कर अपने पापों का बोझ हल्का करता हूं ।

" तुम मुझ पर विश्वास करो मेरे भाई , अब तो मेरा नाम ही शेर रह गया है , वैसे तो भगवान् का सबसे बड़ा भक्त हूँ ।

बड़ा धर्म - कर्म

वाला हूं । "

:

" सुनो , शास्त्रों में आठ प्रकार के धर्म का वर्णन हुआ है " १. यज्ञ , २. वेदों का अध्ययन , ३. दान , ४ तप , ५. सत्य बोलना , ६. धैर्य , ७. क्षमादान , ८. लोभ का त्याग और इनमें से पहले चार ( यज्ञ , वेदज्ञान , दान , तप ) नाम कमाने के लिए भी किए जाते हैं ।

मगर बाकी चार के बारे में तो विद्वान् लोग भी यही कहते हैं ।

कि ये बहुत महान् कार्य हैं ।

" और मैं तो अब बिल्कुल ही त्यागी बन चुका हूं ।

लोभ नाम की कोई चीज़ मेरे निकट नहीं ।

यह तो मेरा दुर्भाग्य है कि मैं शेर हूं ।

भला कोई कैसे विश्वास करे कि एक शेर प्रभुभक्त बन गया ।

सबको यह पता है कि शेर आदमी को खा जाता है ।

इसलिए जिस किसी को भी मैं यह सोने का कंगन देना चाहता हूं वह डरकर दूर भाग जाता है ।

" दुनिया की यह आदत है कि सुन्दर व्यभिचारी नारी और गो - हत्यारे पौडेत की बातों पर कोई भी ध्यान नहीं देता ।

" मैंने धर्मशास्त्र भी पढ़े हैं मेरे भाई लो सुनो ।

" हे पांडुपुत्र ! जैसे बंजर धरती में वर्षा और भूखे को भोजन देना सार्थक होता है ।

उसी तरह दरिद्र को दान देना सार्थक है ।

“ मैं तो यह जानता हूं कि जैसे मुझे अपनी जान प्यारी है वैसे सभी को अपने प्राण प्यारे हैं ।

अच्छे लोग , सबको अपने जैसा ही जानकर उनके साथ प्रेमभाव से पेश आते हैं ।

“ देखो , अपमान में , दान में और भले - बुरे प्रसंग में जो सुख या दुःख स्वयं को होता है वैसा ही दूसरों को होता होगा ।

यही सोचकर अच्छे लोग जीवों पर दया करते हैं । “ शास्त्रों का कहना है कि पंडित वही है जो दूसरों की औरतों को मां जाने और दूसरे के धन को

मिट्टी समझे और सभी लोगों के साथ एक जैसा अच्छा व्यवहार करे ।

और रह गये तुम , मैंने अपने ज्ञान की शक्ति से यह जान लिया है कि तुम बहुत गरीब हो , गरीब इन्सान की मदद करना मेरा फर्ज है

क्योंकि मुझे यह ज्ञान मिला है कि निर्धन का सहारा बनने से पाप धुल जाते हैं ।

धनी को धन मत दो रोगी को दवा देने से ही उसका स्वास्थ्य ठीक होगा ; भले - चंगे आदमी को दवा देने का क्या लाभ है ।

" मेरी नज़रों में सच्चा दान वही है जो किसी निर्धन और ज़रूरतमंद को दिया जाए ।

जिसे देकर कुछ पाने की आशा न रखी जाए ।

जो उस धन का पूर्ण लाभ पा सके ।

" इसलिए मैं तुमसे प्रार्थना कर रहा हूं कि तुम इस तालाब में नहा - धोकर भगवान् का नाम लो ।

पूजा - पाठ करने के पश्चात् इस सोने के कीमती कंगन को दान के रूप में स्वीकार करते हुए मेरे पापों का बोझ कुछ कम कर दो ।

" बूढ़े शेर ने अपनी बातों का पूरा जाल फैला दिया था ।

यात्री का लालच और भी बढ़ गया था ।

सोने का कंगन और वह भी दान के रूप में वाह ! वाह ! उसके तो कितने ही अधूरे काम इस कंगन को पाकर पूरे हो जाएंगे ।

वह अंदर ही अंदर खुशी से पागल हुआ जा रहा था ।

उसने झट से अपने कपड़े उतार तालाब में छलांग लगा दी ।

हालांकि उसके साथियों ने उसे ऐसा करने से बहुत रोका , किन्तु वह तो धन के लोभ में अंधा हो चुका था ।

वह किसी की बात क्यों सुनता , उसके सामने तो सोने का कंगन नाच रहा था , जो कुछ क्षणों में उसे मिलने वाला था ।

जैसे ही उसने तालाब में छलांग लगाई वह इसकी दलदल में फंस गया ।

उसके पांव जैसे वहीं पर जमकर रह गये हों ।

वह वहां से निकलने के लाख यत्न करने लगा था किन्तु निकल नहीं पा रहा था ।

" आ " हा तुम तो दलदल में फंस गये हो ।

" " हां , जंगल के शेर , देखो इस तालाब में बहुत कीचड़ है ।

मैं निकल नहीं पा रहा । अब करूं तो क्या करूं ? "

"

" जो कुछ अब करना बाकी है वह मैं करूंगा , मैं अभी तुम्हें इस कीचड़ से निकालता हूं और फिर " इतना कहते ही शेर ने बड़े

अंदाज से उस लोभी मनुष्य की ओर देखा जैसे कोई शिकारी अपने शिकार

की ओर देखता है । और फिर अपने स्थान से लम्बी छलांग लगा उसके

गले पर झपटा ।

" अरे अरे यह क्या ? तुम मुझे खाओगे ? यह क्या कर रहे हो ? तुम तो मुझे दान देने वाले भक्त थे

"

" मैं भक्त बाद में हूं और शेर पहले और भूखा शेर तो बड़ा भयंकर होता है ।

फिर मैं बूढ़ा भी हूं । यदि तुम्हारे जैसे लोगों को अपने जाल में न फांसूंगा तो खाऊँगा क्या ?

" इतना कहते हुए उस बूढ़े शेर ने उस लालची यात्री को दबोच लिया ।

यात्री सोचने लगा : पापी और अत्याचारी लोग धर्मपाठ , वेदज्ञान का कितना भी पाखंड करें वे कभी भी अपनी काली

करतूतों से बाज़ नहीं आ सकते क्योंकि यह सब तो उनकी आदत ही होती है ।

जैसे गाय का दूध अपने स्वभाव के अनुसार मीठा होता है वैसे बुरे प्राणी के खून में ही बुराई छुपी होती है ।

वह कभी अच्छा नहीं बन सकता ।

विद्वान् लोग ठीक कहते हैं कि जिन्हें अपनी इन्द्रियों और दिल पर काबू नहीं है उनके लिए ज्ञान , दान , विद्या सब व्यर्थ है ।

जैसे हाथी नहा - धोकर मिट्टी में लोटते हुए सुख महसूस करता है , ऐसे ही जीवों के लिए ज्ञान भी बोझ बन जाता है ।

ऐसे ही विधवा स्त्री के लिए गहने भी बोझ होते हैं ।

उसे शोभा नहीं देते ।

यात्री अंदर ही अंदर अपने पागलपन पर पछता रहा था ।

और बार - बार यह सोच रहा था कि उसने शेर के कहने पर क्यों विश्वास कर लिया ।

कहते हैं : नदियों , शस्त्रधारियों , सींग वाले पशुओं , स्त्रियों और राजवंशी ( सरकारी ) लोगों पर कभी विश्वास ही नहीं करना चाहिए ।

क्योंकि इनका मन बदलते देर नहीं लगती ।

मैं भूल ही गया कि सबकी परीक्षा उनकी जाति और खून के आधार पर की जाती है न कि उनकी सीखी - सिखाई बातों से ।

उस समय सारे गुण धरे रह जाते हैं जब पशु या मनुष्य अपनी असली

करतूत पर उतर आते हैं ।

शायद मेरे भाग्य में इसी तरह मरना लिखा था ।

जैसे चांद को ही ले लो ।

ऊँचे आकाश में होने पर भी , अंधकार मिटाने वाला होते हुए भी , हजारों लाखों सुनहरी रुपहली किरणों वाला होते हुए भी ,

सितारों से हर रात घिरा रहते हुए भी अपने भाग्य की विनाशकारी भूल के कारण राहू द्वारा ग्रप्स लिया जाता है ।

भाग्य ने जो लेख में लिख दिया उसे कोई मिटा नहीं सकता ।

आखिर थक - हारकर यात्री ने लम्बी सांस ली ।

मौत उसके सामने थी ।

शेर उसे अपने पंजों से नोच रहा था । वह अपनी भूल पर पछता

रहा था ।

देखते ही देखते शेर ने उस सीधे - सादे लालची यात्री को चीर - फाड़कर खा लिया ।

उसके साथी यह सब देख शेर के डर के मारे भाग खड़े हुए ।

कबूतरों के राजा ने यह कहानी सुना अपने साथियों से कहा , " इसलिए मैं कहता हूं कि बिना सोचे - समझे किसी लालच में मत फंसो ,

क्योंकि जैसे- अच्छी प्रकार से पके भोजन , पढ़े लिखे , गुणी पुत्र से कोई दुःख नहीं होता , पतिव्रता नारी अधर्म नहीं करती ,

सन्तुष्ट राजा या अधिकारी नुकसान नहीं पहुंचाते , सोची - समझी बात से बिगाड़ नहीं होती ।

वैसे ही , सोच - समझकर किए हुए काम से कभी नुकसान नहीं होता ।

राजा की बातें सुनकर एक कबूतर बोला : " यह क्या आप हमें उपदेश दे रहे हैं ।

सच पूछो तो ये सारे उपदेश बुढ़ापे में ही अच्छे लगते हैं ।

उस समय इन्सान और कुछ करने योग्य नहीं रहता ।

यदि हम हर बात को ही ऐसे सोचते रहे तो जल्दी ही भूखे मर जाएंगे ।

जीने के लिए तो पग - पग पर खतरे उठाने ही पड़ते हैं ।

यदि ऐसी शंकाओं से डरकर हम बैठ गये तो मरना दूर नहीं है ।

कहा भी है : ईर्ष्यालु , घृणा करने वाला , असंतुष्ट , क्रोधी , शंकालु और परजीवी , ये छः में छः दुःख देने वाले हैं ।

" यह सुनते ही सबके सब खाने के

धरती की ओर जाने लगे । देखते ही चावलों पर टूट पड़े ।

लालच में अंधे हो आकाश से देखते वे जाल के अंदर रखे बस , फिर क्या था !

शिकारी की चाल सफल हो गयी ।

वे सबके सब जाल में फंस गये । उन्होंने अपने राजा का कहना न मानकर सबसे बड़ी भूल की थी ।

उन्हें इस बात पर एहसास होने लगा कि बड़ों का कहना न मानना बहुत बड़ी मूर्खता होती है ।

लालच ऐसी ही बुरी चीज़ है कि बड़े - बड़े विद्वान् , महापुरुष , जिन्होंने सारे संसार के ज्ञान - भरे वचनों का अमृत पिया होता है ,

और जो दूसरों के दुःख दूर कर देते हैं , वे भी लालच में आकर दुःख उठाते हैं तब बेचारे कबूतरों की तो बात ही क्या थी ?

तभी तो कहते हैं कि क्रोध , काम , मोह और नाश का मूल लोभ ही है ।

लालच में आकर कोई रोके तो क्रोध चढ़ आता है ।

इसी लालच में आकर स्त्रियां फंस जाती हैं और स्त्रियों के कारण ही कामभाव पैदा होता है ।

लालच में ही तरह तरह के मोह पैदा होते हैं ।

लालच में ही आदमी अपना विनाश कर बैठता है , इसका सीधा अर्थ है कि लालच सब पापों का मूल रोग है ।

आप स्वयं ही सोचो कि कभी सोने का हिरण भी पैदा हुआ है ?

फिर क्यों भगवान् राम , इस सोने के हिरण के लालच में फंस गये ?

मुसीबत आनी हो तो बड़े - बड़े विद्वानों की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है ।

ऐसे ही सारे कबूतर जाल में फंस गये तो सबके सब उस कबूतर को गालियां

देने लगे जिसने अपने राजा का कहना न मानकर सब कबूतरों को बहकाया था ।

उसी की बातों में आकर ये सब मारे गये । तभी तो कहते हैं , किसी काम में आगे मत लगो ।

काम सही हो जाने पर तो हर कोई शाबाशी का अधिकारी बनना चाहता है । यदि भूल से काम बिगड़ जाए तो सारा दोष आगे लगने वाले पर ही आता

है ।

तभी कबूतरों का राजा बोला , “ अरे भाई इसमें उस बेचारे का क्या दोष ? "

दुःख के समय मित्र आदमी भी शत्रु बन जाता है ।

दूध दोहते समय गाय की टांग भी कभी - कभी बछड़े को बांधने के लिए खम्भे का काम दे जाती है ।

यह सत्य है कि मित्र वही है जो मुसीबत में काम आए ।

दुःख से बचाने की बजाए कोसना एवं बुरा - भला कहना उचित नहीं होता ।

दुःख में घबराना बुजदिलों का काम है ।

इसलिये धैर्य से काम लेकर , दुःख से बचने का उपाय सोचो ।

क्योंकि मुसीबत में धैर्य धारण , क्षमा , सभा - समाज में बातचीत का धनी होना

, युद्ध में पराक्रम , यश प्राप्ति में रुचि बनाए रखना और आंखों में अपनापन यह सब ही बड़े लोगों के गुणों वाले लक्षण माने जाते हैं ।

धन पाकर जो अपने अतीत को नहीं भूलता ।

संकट में जो घबराता नहीं ।

युद्ध में जिसे डर नहीं ।

इन सब गुणों वाला कोई - कोई ही आदमी मिलेगा ।

जीवन के सुखों को प्राप्त करने के लिए इन्सान को इन दो बुराइयों से सदा दूर रहना चाहिए अधिक नींद ,

हाथ पर हाथ धरकर बैठना , शिथिलता , भय , क्रोध , सुस्ती , आज का काम कल पर छोड़ना ।

" हां , ये सब कबूतर जब जाल में फंसे अपने जीवन की अंतिम सांसें गिन रहे थे तो इनको भी दूर की सूझ रही थी ।

' मरता क्या न करता ' वाली बात थी ।

ये सोच रहे थे कि इस जाल को लेकर उड़ जाएं ।

अथवा

उन्हें कोई छोटी - छोटी वस्तुएं मिल जाएं जिनकी मदद से वे ऐसा रास्ता तैयार कर लें , जैसे तिनके जोड़ - जोड़कर बनाये रस्से से

मदमस्त हाथियों को बांध लिया जाता है ।

अपने परिवार के थोड़े से निर्बल लोगों के साथ मेल - जोल से रहने से भी एक विचित्र आनन्द मिलता है ।

फिर क्यों न हम सब हिम्मत से काम लें ।

इतना ज्ञान जिनके पास आ जाये तो उनमें ऐसी शक्ति प्राकृतिक रूप से ही आ जाती है ।

फिर अब उन कबूतरों का राजा भी बीच में आ गया था ।

उसी ने अपने सभी साथियों को यह सब ज्ञान सुना - सुनाकर उनमें एक नई शक्ति पैदा कर दी थी ।

मौत की घड़ियां गिनने वाले उसके सभी साथी अपने राजा से प्रेरणा पाकर एक नए उत्साह के साथ यह सोचने लगे

“ एकता में ही सबसे बड़ी शक्ति है । " " तिनका - तिनका मिलकर ढेर बनते हैं । " " बूंद बूंद मिल नदियां बनती हैं ।

" " ये नदियां जो बूंदों का रूप होती हैं सागर बनाती हैं ।

" " क्या हम सब कबूतर मिलकर इस छोटे जाल को नहीं उड़ा ले जा सकते ?

" " हां हां हां क्यों नहीं हममें इतनी हिम्मत है । "

यही सोच सभी के सभी कबूतरों ने मिलकर जोर लगाया और फिर क्या था ! वे जाल समेत ही आकाश की ओर उड़ते नजर आए ।

शिकारी बेचारा ठंडी आहें भरता , कबूतरों के साथ - साथ अपने जाल को जाते देख रहा था ।

वह थोड़ी दूर तक उस जाल के पीछे भागा भी , क्योंकि उसे यह आशा थी कि जाल में फंसे कबूतर उलझकर गिर पड़ेंगे ।

लेकिन नहीं , ऐसा नहीं हुआ वह थक - हार कर अपना सिर पीटता

वापस आ गया ।

उधर दूर आकाश पर जाल में फंसे हुए कबूतर चिंतित - से होकर अपने राजा से पूछने लगे : " महाराज ,

आपने हमें शिकारी से बचाकर तो बहुत कृपा की और यह सिद्ध कर दिया कि आप ही सच्चे राजा हैं जो संकट में भी अपनी प्रजा को नहीं छोड़ते ,

यदि आप चाहते तो हमें छोड़कर मृत्यु के मुंह से बच सकते थे ।

मगर आप तो स्वयं ही हमारे साथ आ गये ।

लेकिन अब आप ही बताएं कि इस जाल से पीछा कैसे छूटे ।

" " मेरे साथियो , दूसरे लोग तो अपने स्वार्थ के लिए एक - दूसरे के साथी बनते हैं किन्तु राजा , माता - पिता , मित्र , यह सब दुःख - सुख के साथी होते हैं ।

इसलिए इस समय मुझे अपने एक पुराने मित्र की याद आ गई है । हम सब उस हिरण्यक के पास चलते हैं जो मेरा बड़ा ही प्रिय मित्र है ।

वही ऐसे दुःख के समय में हमारी सहायता करेगा ।

क्योंकि वह हिरण्यक चूहों का राजा है , इस जाल को चूहों के बिना और कोई नहीं काट सकता ।

" अपने राजा की बात सुनते ही सभी कबूतरों ने उसी ओर उड़ना शुरू कर दिया जिस ओर उनके राजा का मित्र चूहों का राजा हिरण्यक

रहता था ।