दो साधू

हितोपदेश की कहानियां - दो साधू

दूर देश में , एक साधु रहता था , वह दिन - भर भिक्षा मांग - मांगकर रात को उस भिक्षा में मिले

भोजन को खाकर भगवान् के नाम की पूजा करता रहता ।

जो भोजन बच जाता उसे एक कपड़े में बांधकर दीवार में लगे खूंटे से टांग देता ।

एक दिन उसका एक पुराना मित्र साधू उसके पास आया ।

वह उसे अपने बीते दिनों की कहानी सुना रहा था तो उसका मित्र साधू धरती पर डंडे मारता रहा ।

बाहर से आए साधू ने जब अपने मित्र की यह हालत देखी तो उसे बहुत बुरा लगा ।

उसने झट से पूछाः " अरे भई , यह क्या ?

मैं तुम्हारा दोस्त हूं , मेहमान हूं ।

मैं तुम्हें कहानी सुना रहा हूं ।

और तुम हो कि धरती पर डंडे मारे जा रहे डो ... ?

शास्त्रों में लिखा है :

पांच बातों से पता

" चेहरे पर खुशी प्रेम - भरी नजरें , बार्तो में मिठास , प्यार खुशी से गले लगना , छः लक्षण होते हैं प्रेमी सज्जनों के चलता है

कि दूसरे का ध्यान कहीं और हैः " आंख न मिलाना , एहसान भूल जाना ,

इज्जत से मुंह फेरना , इधर - उधर की हरकतें करना और बातचीत का विषय ही भूल

जाना ...। "

साधू बोला , " अरे भाई , तुम मेरे मेहमान हो , मेरा ध्यान तुम्हारी ओर ही है ,

मैं तो केवल उस चूहे की ओर देख रहा था , जो मुझे तंग करता रहता है ।

रोज मेरा खाना खा जाता है । " खूंटी की ओर इशारा करके साधू ने ऊंची खूंटी की ओर आश्चर्य से देखा और

सोचने लगा कि इस चूहे में इतनी ताकत कहां से आई ?

इसमें अवश्य कोई भेद है ।

वह कुछ सोचने लगा फिर बोला , “ अधिक धन ही चूहों के कूदने का कारण होता है ।

" कहते हैं इस संसार में अमीर लोग हर स्थान पर बड़े माने जाते हैं ।

राजा को भी धन के कारण प्रभूता प्राप्त होती है ।

" तभी उस मेहमान साधू ने उठकर मेरे बिल को खोदना आरम्भ किया ।

फिर क्या था , वह साधू उस बिल को खोदता खोदता मेरे खजाने तक पहुंच ही गया ।

उसने मेरा सारा खजाना निकाल लिया और मैं दुःखी मन से देखता रह गया ।

मेरे जीवन - भर की कमाई लुट गई थी ।

बस , मैं वहां से भाग फिर अपनी बिरादरी में आ गया ।

लोग सच कहते हैं , जेब खाली हो तो उसे बुद्धिहीन कहा जाता है , उसकी हालत वही होती है जो गर्मी के मौसम में सूखी नदी की ।

यह झूठ नहीं कि धन वाले को बड़ा और विद्वान् माना जाता है ।

कहने वाले यह भी कहते हैं किः पुत्र न हो तो घर सूना , मित्र न हो तो जीवन सूना , मूर्ख के लिए सभी दिशाएं सुनीं ,

धन पास न हो तो सब कुछ सूना ही सूना लगता है ।

मेरे मित्र , गरीबी और मौत , इन दोनों में से गरीबी अधिक दुःखदायक होती है ।

मरने का दुःख तो घड़ी - भर का है , मगर गरीबी का दुःख हर पल होता है ।

अपने को ही देख लो , वही इन्द्रियां होती हैं , जो जेब भरी होने पर अधिक तेजी से चलती हैं !

वही नाम होता है , जो आदर से पुकारा जाता है ; वही बुद्धि होती है , जिसका सभी लोहा मानते हैं ; लेकिन जब धन पास नहीं रहता ,

उसी प्राणी से लोग घृणा करने लगते हैं , उसे पागल कहा जाता है ।

दोनों साधुओं की बातें सुन मैंने सोचा कि अब मेरा भी कोई जीवन नहीं रहा , मेरा सब कुछ समाप्त हो गया ।

गरीबी में मेरा कोई साथी नहीं होगा , कोई मित्र नहीं होगा ।

तुमने सुना होगा कि बुद्धिजीवी प्राणी मर जाना स्वीकार कर लेते हैं मगर गरीबी और दूसरे पर जीना पसंद नही करते ।

पानी में बुझ जाने पर भी आग ठंड तो नहीं अपनाती फूलों के गुच्छे और बुद्धिजीवी की एक ही प्रकार की गति होती है - या तो सबके सिर पर चढ़े रहते हैं ,

या फिर जंगल में पत्ती - पत्ती बनकर बिखर जाते है ।

धन नाश होने की बात दूसरों को बताना भी ठीक नहीं है ।

बुद्धिमान को पांच बातें किसी के आगे नहीं खोलनी चाहिएः

१. धन चले जाना , २. मन का दुःख , ३. परिवार की बुराईयां , ४. ठगे जाने की कहानी , ५ बेइज्जती होने की बात ।

यह भी बड़े दुःख की बात है कि जहां सुख के दिन काटे हों वहां आदमी भीख मांगकर जिए क्योंकि यदि धन और

शक्ति जाती रहे तो आग में कूदकर मरना अच्छा बजाए इसके कि धर्म से गिरे कंजूस आदमी के आगे पैसे पैसे के लिए हाथ फैलाए ।

लोग कहते हैं कि गरीबी में लोग शर्म के मारे सिर नहीं उठाते ,

उनकी बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है , यूं समझ लो कि सारी मुसीबत की जड़ यह गरीबी होती है ।

बड़े लोग कहते हैं , झूठ बोलने से तो चुप रहना अच्छा है ।

पराई स्त्रियों में रुचि लेने से तो नपुंसक रहना अच्छा ।

चुगल खोरी से मर जाना भला ।

पराए धन के आनन्द से भीख मांगना अधिक उचित है ।

गौशाला यदि सूनी रहे तो कोई बात नहीं किन्तु उसमें दुष्ट बैल का आना बुरी बात है ।

क्रूर पत्नी से कहीं अच्छा है वेश्या को पत्नी बना लो ।

बुरे लोगों की संगत से मौत अच्छी ।

मेरा तो यह भी मत है कि नौकर की जैसे इज्जत नहीं रहती , जैसे चांदनी अंधरे को निगल जाती है ,

बुढ़ापा जैसे जवानी को खा जाता है , वैसे ही भिक्षावृत्ति सैकड़ों गुणों को नाश कर देती है ।

तब मैं पराये अन्न पर क्यों पलता हूं ?

यह सब तो दुःखदायी है , पराए टुकड़ों पर पलना नरक का द्वार होता है ,

लोग यहां तक कहते हैं , रोगी , वर्षों से प्रवासी , भोजन के लिए दूसरे पर निर्भर और पराये घर रहने वाला ,

ऐसे लोग जीते जी मृत्यु प्राप्त करते हैं ।

यह सब जानते हुए भी मैं लालच में फंसा साधू का भोजन खाने की बात सोच रहा था ।

लोग तो कहते हैं , लालच में बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है ।

लालच से ही धन की प्यास बढ़ती है । धन का लालच दुःखों को पैदा करता है ।

उस दिन उस साधू

के

चल पड़ा और सोचता जा

डंडे से बुरी तरह पिट करके थका - हारा रहा था कि लालची लोग अपने हाथों से ही

अपना बेड़ा गर्क कर लेते हैं , लोग ठीक ही कहते हैं :

धन का भूखा , तृष्णा में फंसा , इन्द्रियों के जाल में फंसा ,

जिसका मन कभी भरने में नहीं आता ऐसे प्राणी पर चारों ओर से मुसीबतें टूट पड़ती हैं ।

इसके विपरीत जिसका मन संतुष्ट है , उसे किसी चीज की कमी महसूस ही नहीं होती ।

जिसके अपने पांव में जूते हों उसे सारा संसार चमड़ी में मढ़ा नजर आता

है ।

कहने वाले कहते हैं , संतोष का अमृत पीकर जो तृप्त है , उसका मन शांत रहता है और उसे दुःख ही सुख महसूस होता है ।

शास्त्रों का यह अनमोल वचन है कि पढ़ना , सुनना और उस पर अमल करना उसी के लिए सत्य है

जिसने आशाओं को पीठ पीछे करके निराशा का सहारा ले लिया हो ।

जिसे दुनियावी ईश्वर ( अमीरों ) के आगे हाथ नहीं फैलाने पड़ते , जिसे अपने से बिछड़ने का दुःख नहीं उठाना पड़ता

और जिसे यह नहीं कहना पड़ता कि मैं बेसहारा हूं और मेरी मदद करो ।

यह सब इसीलिए कह रहा हूं , क्योंकि जिसकी तृष्णा नहीं मिटी वह सौ - सौ कोस तक मारा भटकता रहता है ,

जबकि संतोषी जीव मुंह में आई दौलत को भी बेकार समझता है ।

इसीलिए मैंने सोचा कि अपनी हालत को देखते हुए किसी काम में लग जाऊं ।

आखिर दुनिया में धर्म किसे कहते हैं ? प्राणी के ऊपर दया करने को , तो फिर सुख क्या है ?

सदा स्वस्थ बने रहना । प्यार का स्वरूप क्या है ?

सबके लिए शुभ कामना । पंडित किसे कहते हैं ?

भले - बुरे की पहचान करने वाले को सच तो यह है कि भले - बुरे की पहचान करने वाला पंडित बुद्धि वाला होता है ।

पंडित बुद्धि वाला हो तो मुसीबतों से बच सकता है ।

अब रही बात कि मैंने अपना घर क्यों छोड़ा , सो बात यह है कि कुल की मर्यादा बचाने के लिए यदि एक स्थान का त्याग करना पड़े तो छोड़ देना चाहिए ,

देश के लिए ग्राम , नगर का भी त्याग करना पड़े तो कर देना चाहिए ।

यदि आत्म - कल्याण में पृथ्वी ( खेत , गांव , शहर , देश या संसार ) का ही त्याग उचित जान पड़े तो इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए !

मैं तो यह जानता हूं कि बिना खून - पसीना बहाए प्राप्त होने वाला पानी या बाद में भय पैदा करने वाला स्वादिष्ट भोजन ,

दोनों में विचार करके जो निरापद हो उसे ही सुखदायी समझना चाहिए ।

यही सब सोचकर मैं उस स्थान से निकल आया हूं ।

बात यह है कि धन - धान्य से हीन होकर , बन्धु - बांधवों की दृष्टि में गिरकर जीने से अच्छा है कि शेर , हाथियों से भरे जंगल में रहो ,

पेड़ों के फल , पत्ते खाओ और ठंडा पानी पीकर सुख मनाओ , घास - फूस के बिस्तरों पर लेटो ,

बस यही सोचकर मैंने उस स्थान को छोड़ दिया ।

अब इस मित्र कौए से मिलकर मैं सारे दुःख भूल गया हूं ।

आज तुम्हारे जैसे मित्र से मिलकर मुझे और भी खुशी हुई ।

एक बात याद रखो दोस्त , यह सारा संसार विष के पेड़ की भांति हैं , जिसके दो ही रसीले फल हैं ,

कविता , कहानी एवं मीठे बोलों का आनन्द और अच्छे लोगों से मेल जोल ।

इस संसार में तीन ही काम की बातें हैं : १. अच्छे लोगों के साथ रहना , २. भगवान् के चरणों में बैठ पूजा करना ,

३. गंगा जल में नहाना । कछुए ने चूहे की बात सुनकर कहा , “ तुम ठीक कहते हो मित्र ।

यह धन दौलत तो रास्ते की धूल के समान है ।

जवानी पहाड़ी नदी के उफान की भांति है , पानी के बुलबुले की भांति समाप्त होने वाली है ।

इस संसार में रहते हुए यदि बुद्धिमान् धर्म - कर्म की कुंजी से स्वर्ग का ताला खोलने का प्रयत्न नहीं करता तो वह बुढ़ापे में अवश्य ही पछताता है ।

अब आप अपनी ही बात ले लो ।

" जो धन जोड़ - जोड़कर इकट्ठा करते रहे , यह सब उसी दोष का ही फल है ।

एक बात ध्यान रखो किः " जो कंजूस अपने धन को जमीन के नीचे इकट्ठा करता है वह समझ लो अपनी चिता सजा रहा है ।

उसके लिए स्वर्ग में कोई स्थान नहीं , वह सीधा नर्क में पड़ेगा ।

" जो प्राणी , केवल सारी उम्र धन के लोभ में अंधा हो उसे जोड़ने के चक्र में लगा रहता है ,

उसकी हालत उस गधे की भांति होती है जो जीवन - भर बोझ ढोता रहता है ।

" कहा तो यह भी गया है किसी को दान न देकर और स्वयं धन का उपयोग न करके यदि लोग धनी बनते हैं

तो फिर हम ही दूसरे के धन के ऊपर धनवान् बनने का श्रेय प्राप्त करें ।

उस धन का क्या लाभ जो केवल माटी का ढेर बन ही पड़ा रहे , जिसका कोई उपयोग न हो जिससे किसी को भी लाभ न हो ।

ऐसा धन बेकार है , उसकी वही हालत होती है जैसे उन हथियारों की जो शुत्र के आने पर अपना बचाव भी न कर सकें ।

" कंजूस के धन के बारे में तो यह भी कहा जाता है कि उसमें और पराए धन में कोई अन्तर नहीं होता ।

ऐसा धन , जो न तो मित्रों के काम आया , न सगे - सम्बन्धियों के , न ही किसी भले काम में लगा ,

ऐसा धन या तो जल जाता है या फिर उसे चोर चोरी करके ले जाते हैं या फिर सरकार ही उसे जब्त कर लेती है ।

“ इसलिए बुद्धिमानों ने कहा है कि " दान करते रहना चाहिए , दूसरों की भलाई के लिए धन को खर्च करते रहना चाहिए ,

दुखी लोगों की सहायता करके इस दुनिया में नाम पैदा करके धन का पूरा लाभ उठाना चाहिए ।

एक बार एक गीदड़ ने ऐसी ही मूर्खता की थी , बस वह स्वयं ही धनुष की चपेट मे आ इस दुनिया से चलता बना ।

" " कौन - से गीदड़ ने ? कैसी मूर्खता ?

" चूहे और कौए ने कछुए के मुंह की ओर देखकर पूछा ।

" हां , भाई , यह भी एक लम्बी कहानी है ।

जिसे मैं तुम्हें सुनाकर उस भयंकर अंधेरे से निकाल दूंगा , जिस अज्ञानता में तुम भटक रहे हो ।

हो सकता है इस कहानी से तुम्हें कोई ज्ञान प्राप्त हो जाए ।

तुम्हें ही क्या तुम्हारे जैसे लाखों लोगों को भी इससे प्रकाश मिलेगा । "

लालची गीदड़

यह कहानी एक भूखे शिकारी से आरम्भ होती है ।

जो शिकार की तलाश में घने जंगल की ओर आ निकला था । जैसे ही वह जंगल में घुसा

तो उसे हिरण दिखाई दिया । बस फिर क्या था । पल - भर में हिरण धरती पर मरा हुआ था ।

शिकारी खुश था कि उसने आते ही हिरण का शिकार कर लिया ।

जैसे ही वह मरे हुए हिरण को कंधे पर उठाकर चलने लगता उसे एक सुअर नजर आया ।

पले हुए सुअर को देखते ही लालची शिकारी के मुंह में पानी भर आया , उसने सोचा , ' हिरण तो मैंने मार ही दिया है ,

फिर क्यों न लगे हाथों इस सुअर का भी शिकार कर लूं ?

इससे तो मुझे कई दिन के शिकार से आराम मिल जाएगा ।

साथ ही मेरे पास बहुत - सा मांस भी जमा हो जायेगा , मांस के मामले में मैं धनवान् बन जाऊंगा ।

यही सोच उसने मरे हुए हिरण को धरती पर लिटा दिया और सुअर के ऊपर तीर दे मारा ।

जंगली सुअर तीर लगते ही , क्रोध के मारे जैसे पागल हो गया हो ,

उसने अपने शुत्र को सामने खड़े देख उस पर पूरी ताकत से हमला बोल दिया ।

शिकारी का ख्याल था कि सुअर एक तीर लगते ही धरती पर गिरकर ढेर हो जाएगा ,

लेकिन उसका यह अन्दाजा बिल्कुल ही गलत निकला ।

पल - भर में ही सुअर ने उसे दबोच लिया , और शिकारी के पेट की अंतड़ियां बाहर निकाल उल्टा उसे ही अपना शिकार बना लिया ।

बस उस शिकारी का अन्त हो गया ।

मौत का तो केवल एक बहाना होता है ।

कटकर मरे या बीमारी से अथवा डूबकर प्राणी का अन्त तो मृत्यु ही है ।

जख्मी सुअर भी शिकारी के साथ ही ढेर हो गया था ।

न रहा शिकारी और न रहा शिकार दोनों की मौत एक साथ , एक ही स्थान पर हुई लेकिन इन दोनों के नीचे आकर एक राह चलता सांप वैसे ही मारा गया ।

इसी बीच एक गीदड़ टहलता हुआ वहां पर आ निकला ।

उसने एक साथ चार - चार लाशों को देखा , हिरण , सांप , शिकारी और सुअर ।

वाह ... वाह ... आज तो लगता है , जैसे सुबह - सुबह किसी भले प्राणी की ही शक्ल देखी है जो आते ही चार शिकार खाने को मिल रहे हैं ,

रंग - बिरंगे , भोजन तो उसने पहली बार जीवन में एक साथ इकट्ठे देखे थे ।

एक ओर वे चारों प्राणी मृत्यु का दुःख दिखा रहे थे , दूसरी ओर गीदड़ खुशी के मारे पागल हुआ जा रहा था ।

इसी खुशी और गम का नाम तो दुनिया है ।

गीदड़ खुशी से पागल हुआ हिसाब लगा रहा था कि अब इन चारों के मांस से

उसे चार मास तक किसी शिकार की जरूरत ही नहीं पड़ेगी ।

वह बड़े आराम से अपने घर में बैठेगा और रोज इनमें से किसी का थोड़ा - सा मांस खाकर सो जाया करेगा ।

जीवन के इसी ताने - बाने में खोया गीदड़ अपने भविष्य का हिसाब लगा रहा था ।

उसने सोचा , आज तो पहला दिन है ।

आज इस बढ़िया मांस को खाना क्यों आरम्भ करूं ?

आज तो शिकारी की कमान के साथ लगे सूखे चमड़े को ही खाकर अपना काम चला लेता हूँ ।

यही सोचकर इस लालची गीदड़ ने शिकारी के धनुष के साथ बंधी चमड़े की डोरी पर दांत दे मारा ।

बस फिर क्या था ?

बिजली की सी तेजी के साथ कमान अपनी डोरी टूटते ही उछली और सीधी गीदड़ के सीने में जा धंसी देखते देखते ,

गीदड़ का जीवन उन चारों लाशों के साथ मिल गया ।

लालची गीदड़ जो चार महीने के भोजन का हिसाब लगा चुका था अब सब कुछ छोड़कर जा चुका था ।

मित्रो , यही होता है लालची का अन्त ।

धन इकट्ठा अवश्य करो किन्तु उसे या तो दान में लगाओ या खाने में जितना तुम खा - पी लोगे उतना ही तुम्हारा है ।

शेष सब बेकार है और दूसरों के लिए है ।

मैं तो यही कहूंगा कि समझदार लोग उस वस्तु की आशा ही नहीं करते जो उन्हें मिला ही नहीं ।

जो जा चुकी है उसके बारे में सोचते नहीं ।

संकट में चिंतित नहीं होते , घबराते नहीं सो मेरे दोस्तो , उत्साह से जीना सीखो , ज्ञान के हजारों शास्त्र पढ़ लो ।

यदि उन्हें पढ़कर तुम कुछ सीखे नहीं तो मूर्ख ही रहोगे ।

विद्वान् वही है जो पढ़ी - लिखी बातों पर अमल भी करे , दवाइयों के नाम याद रखने से रोगी ठीक नहीं होते ।

अन्धे की हथेली पर दीया रखने से उसे प्रकाश तो नजर नहीं आयेगा ।

बस मित्रो , मैं इससे अधिक तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा ।

मेरी तो यही इच्छा है कि तुम दोनों मेरे साथ ही रहो हम तीनों ही सच्चे मित्र बनकर इसी घर में रहें ।

इससे बड़ा सुख इस संसार में और क्या हो

सकता है ! मित्रों के साथ ही सुख और आनन्द है , उन्ही के साथ दुःख भी कट जाते हैं ।

बड़े लोगों ने कहा है : जैसे मेंढक जल की ओर और पक्षी भरे हुए सरोवर की ओर खिंचे आते हैं ,

वैसे ही परिश्रमी आदमी की ओर धन - दौलत खिंचे आते

हैं ।

जो लोग हिम्मत वाले हैं , उत्साह से काम करते हैं , अपने काम जल्दी निपटा लेते हैं ,

जो बहादुर हैं , कभी हिम्मत नहीं हारते , हर काम पूरी लगन और तन - मन से करते हैं , उनके घरों में हर प्रकार के सुख रहते हैं ।

एक बात और याद रखो

जिस विधाता ने इतना कमाल कर रखा है कि हंसों को सफेद ,

तोतों को हरा मोरों को सतरंगों से सजा हर प्राणी की एक अलग पहचान बना रखी है वह तुम्हारी रोटी का प्रबंध अवश्य करेगा ।

इस धन के लिए लोग कितनी मारा मारी करते हैं ।

इसे प्राप्त करने के लिए कितनी डेरा फेरियां , बेईमानियां , गलत काम करते हैं मगर इसे प्राप्त करने से कहां सारे सुख मिल सकते हैं ?

पहले तो इस धन को पाने के लिए ही सौ उलटे - सीधे धंधे करने पड़ते हैं ,

फिर इसके संभालने के लिए भी प्राणी कितने यत्न करता है !

कभी चोरी का डर , खो जाने का भय , न जाने कितने डर चिपटे रहते हैं धनवान् को ।

दूसरी बात और भी है , यदि सौ पाप करने के पश्चात् तुमने यह धन जोड़ा भी तो किस काम का ?

इसे तो पाप ही कहा जाएगा , पाप की कमाई धर्म के नाम पर कलंक है ।

कीचड़ में पांव गंदे होते हैं , यदि उस पांव को बाद में धोना ही है तो पहले गंदे ही क्यों करते हो ?

जैसे जिंदगी को मौत आ घेरती है , वैसे ही धनवान् को भी कभी - कभी लुटेरे आ घेरते हैं ।

कुछ धन राजा व सरकार वसूल कर लेती है ।

कुछ बीमारियों ऊपर दवाइयां करने में लग जाता है और कुछ दोस्त , मित्र , रिश्तेदार अपनी चालाकियों से खा जाते हैं ।

अब तुम ही सोचो इस धन के बारे में , जोः

पहले तो बड़ी कठिनाई से जोड़ा जाता है ।

यदि यह धन हाथ से चला जाए तो फिर कितना दुःख होता है ।

मैं तो यही कहूंगा कि धन की चिन्ता ही मत करो ।

यदि तुम अपने लालच का गला घोंट दो तो किसी के आगे हाथ नहीं फैलाने पड़ेंगे ।

तब निर्धन और धनवान् में अन्तर ही क्या रहेगा ?

यदि तुम लालच में आकर किसी के आगे हाथ फैलाते हो तो समझ लो तुम्हारी मौत है ।

' मांगन गया सो मर गया । ' यह लालच तो ऐसी ही चीज़ है ।

इसकी कोई सीमा नहीं । यह हर पग पर बढ़ता है ।

तुम लोग उसी वस्तु की इच्छा करो जो तुम्हारे काम आ सके ।

बस , इससे अधिक में तुम्हें क्या कहूं ! मैं तो यही चाहता हूं कि हम तीनों मित्र कभी एक - दूसरे से जुदा न हों ।

मित्र कछुए , तुम बहुत ही भले और अच्छे विचारों के हो ।

तुम्हारे ज्ञान से तो हमारी आंखें खुल गई हैं ।

हमें तो ऐसा लग रहा है जैसे आज से पहले हम अंधेरों में भटक रहे थे ,

आज हमें सच्चा मित्र मिला है जिसने हमें सही रास्ता दिखाया है ।

चूहा खुश होकर बोला । इसके पश्चात् वे तीनों मित्र इकट्ठे रहने लगे ।

उनका समय बहुत अच्छा व्यतीत हो रहा था ।