संधि

हितोपदेश की कहानियां I Hitopadesh Ki Kahaniyan | हितोपदेश कथाएँ

मेरे प्रिय राजकुमारो , संधि की इस कहानी को राजहंस से आरंभ करता हूं ।

इसका पहला प्रसंग इस प्रकार है कि : जैसे ही युद्ध में राजहंस की हार हुई तो

दोनों ओर से मंत्रियों ने बीच - बचाव करवाकर दोनों राजाओं में संधि करवा दी जिससे युद्ध बंद हो गया ।

राजहंस ने अपने किले के अन्दर जाकर अपने सैनिकों से सबसे पहला प्रश्न यही पुछा कि हमारे किले को आग किसने लगाई थी ?

ऐसा कोई प्राणी हमारी सेना का गद्दार था अथवा शत्रु का जासूस ?

चकवा उठकर बोला , “ महाराज , आपका प्रिय कौआ अपने परिवार सहित यहां से गायब हो चुका है ।

मुझे केवल संदेह नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि उसी कौए ने यह आग लगाई होगी ।

" " मुझे भी उसी पर संदेह है , मेरा यह दुर्भाग्य है कि मेरे देश का विनाश हुआ , इसमें सारा दोष मेरा है , मेरे मंत्रियों का दोष नहीं ।

मैं ही ऐसा पागल था जिसने बिना सोचे - समझे उस पर विश्वास कर लिया ।

" “ महाराज , बुद्धिमानों ने कहा है कि जब भी इन्सान पर मुसीबत पड़ती है तो वह सारा दोष नसीब के ऊपर डाल देता है ।

भाग्य की बजाय उसे अपनी त्रुटियों की ओर देखना चाहिए । "

महाराज , जो आदमी अपने मित्रों - सलाहकारों की बात को ठुकरा देता है वह उस पागल कछुए की भांति

आकाश से गिरकर नष्ट हो जाता है जो दोस्तों के सहारे लकड़ी पकड़कर उड़ा जा रहा था ।

प्राणी को चाहिए कि सदा मीठा बोल बोले , कड़वे बोलने वाले सदा धोखा खाते हैं जैसे कि उस मूर्ख कछुए के साथ भी हुआ ।

" इतना कहते हुए सारस ने कछुए की कहानी आरंभ की ।