देवकोट शहर में एक ब्राह्मण रहता था ।
एक बार उसे मलाई से भरा कसोरा मिल गया ।
वह उस कसोरे को पाकर अत्यंत खुशी से नाचता हुआ चलने लगा ।
उसने मलाई खाई ही नहीं थी , बस , नाम ही सुन रखा था ।
उस समय धूप कुछ अधिक थी , धूप से बचने के लिए बेचारा कुम्हारों के घर के पास जाकर एक वृक्ष के नीचे लेट गया ।
उसके चारों ओर बर्तनों के ढेर लगे हुए थे ।
वह लम्बा सफर करने के कारण काफी थका हुआ था ।
थकावट के कारण लेटते ही नींद आ गई ।
सोये सोये ही उसने देखा कि उसके हाथ में डंडा है और वह मलाई से भरे कसोरे की रक्षा कर रहा है ।
उसने सोचा कि क्यों न मैं इस मलाई से भरे कसोरे को बेच दूं इससे मुझे जो पैसे मिलेंगे उससे मैं सारे बर्तन और कसोरे ही खरीद लूंगा ।
उन्हें बेचकर कुछ नफा कमाऊंगा , फिर और खरीदूंगा ।
इस तरह मैं रोज ही कसोरे खरीदकर उन्हें बेचता - बेचता धनवान् बन जाऊंगा ।
धनवान् बनकर मैं चार शादियां करूंगा ।
उन चारों पत्नियों में से जो सबसे सुन्दर और जवान होगी उसे मैं अपनी पटरानी बनाऊंगा ।
यदि कोई पत्नी जलन के कारण पटरानी को बुरा - भला बोलेगी तो मैं डंडे से उसे मारूंगा - ताड़- ताड़ - ताड़ ! ब्राह्मण सोचते ही सोचते डंडे बरसाने लगा ।
वह सोच रहा था कि वह अपनी किसी पत्नी को पीट रहा है , लेकिन वह डंडे तो कुम्हारों के बर्तनों पर पड़ रहे थे , जिसके लगने से उसके सारे बर्तन टूट गए ।
उसका मलाई का भरा कसोरा भी टूट गया ।
कुम्हारों ने जैसे ही अपने बर्तन टूटते देखे तो ब्राह्मण को पीटना शुरू कर दिया ।
मार खाने के पश्चात् जब ब्राह्मण की आंख खुली तो उसे अपने पागलपन का पता चला कि मैं सपने में ही अपना सब कुछ नष्ट कर बैठा हूं ।
अब क्या था , उस बेचारे ने मार भी खायी और अपने ही हाथों से मलाई का कसोरा भी तोड़ डाला ।
राजा ने गिद्ध की बात सुनकर कुछ देर सोचने के पश्चात् कहा , " मंत्रीजी , अब आप ही बताओ कि मुझे क्या करना चाहिए ? "
" महाराज ! जैसे मदमस्त हाथी के पागलपन का सारा दोष महावत के ऊपर आता है , वैसे ही घमंडी राजा के बुरे कामों का सारा दोष मंत्री के ऊपर ही लगाया जाता है ।
आप स्वयं ही बताएं कि क्या शत्रु का किला हमने अपनी सेना की शक्ति से जीता है ? "
" नहीं मंत्रीजी , वह तो केवल हमने आपकी तीव्र बुद्धि से निकले हथकंडों से जीता है । "
“ महाराज , यदि आप मेरी बात मानते हैं तो सीधे अपने देश को वापस चलिए , नहीं तो वर्षा होते ही हमारे भागने के सारे रास्ते भी बंद हो जाएंगे ।
इस अवसर का लाभ उठाकर दुश्मन हम पर सीधा हमला करेगा ।
इस बार हम जीत नहीं सकेंगे ।
क्योंकि सीधे हमले में हम धोखा नहीं दे सकते ।
अब तो हमारी भलाई इसी में है कि हम इस हारे हुए शत्रु से दोस्ती कर लें ।
इस प्रकार हम यहां से पूरे सम्मान के साथ जा सकेंगे ।
हम जीत भी गए , और बच भी गए ।
और हमें इससे अधिक क्या चाहिए ?
हो सकता है आपको मेरी बात बुरी भी लगे , लेकिन सच्चा सेवक वही होता है ,
जो समय को देखते हुए ठीक राय दे , चाहे वह राजा को भली लगे या बुरी । “
आप ही सोचिए कि मित्रों - सैनिकों को युद्ध की आग में झोंककर कौन बुद्धिमान् खुश होगा ! "
" महाराज , लड़ाई में विजय कोई जरूरी नहीं होती , इसलिए बराबर के शत्रु के साथ मित्रता कर लेनी चाहिए ,
इसी में लाभ होता है ।
देवताओं का कहना है कि जिस कार्य के पूरा होने में संदेह हो ,
वह कभी भी नहीं करना चाहिए ।
" यह बात भी याद रखें कि युद्ध में दोनों पक्षों का खून बहता है ।
इसी प्रकार की भूल दो राजकुमारों ने की थी , उसका परिणाम आप स्वयं कहानी सुनकर देख लें । "