एक दिन एक फ़कीर अकबर के महल में आया।
वह महल की चारदीवारी पर बैठकर प्रार्थना करने लगा।
सिपाहियों ने सोचा कि वह थोड़ी देर बाद स्वतः चला जाएगा, किन्तु वह वहीं
बैठा रहा। घंटों बीत गए।
फ़कीर की इस अनाधिकार चेष्टा से अकबर
खीझ उठा और फ़कीर से जाकर बोला,
“हे पवित्रात्मा! यह महल है, आश्रम या धर्मशाला नहीं। आप जहाँ चाहें वहाँ बैठकर इस प्रकार ध्यान नहीं लगा सकते।"
फ़कीर ने पूछा, “आपसे पहले इस महल में कौन रहता था?"
"पहले मेरे दादा जी, फिर मेरे पिता और अब मैं रहता हूँ।
मेरे बाद मेरा पुत्र और फिर मेरा पोता..." अकबर ने उत्तर दिया।
अर्थात् लोग आते और चले जाते हैं।
यहाँ कोई भी सदा नहीं रहता है।
तब क्या आपको लगता नहीं कि यह एक आश्रम है?
उसी प्रकार से यह संसार एक आश्रम है जहाँ हम कुछ समय तक रहते हैं
और फिर चले जाते हैं।" अकबर निरुत्तर हो गया था।
फ़कीर को लगा कि सम्राट् को बात समझ आ चुकी थी इसलिए उसने अपनी पगड़ी और दाढ़ी उतार दी।
अकबर यह देखकर हैरान रह गया कि फ़कीर और
कोई नहीं पर छद्म वेष में बीरबल ही था ।