एक बार सुदूर गाँव से एक विद्वान् अकबर के दरबार में आया।
उसने अपनी विद्वता की खूब तारीफ़ की।
उसने राजा से पूछा कि क्या उसके दरबारी विद्वान हैं और उसकी चुनौती को स्वीकार कर सकते हैं?" अकबर ने
चुनौती स्वीकार कर ली और उस विद्वान् को अगले दिन आने के लिए कहा।
अगले दिन दरबार सजा
हुआ था। बादशाह अपने दरबारियों के साथ बैठे थे।
तभी विद्वान आया।
उसने घोषणा की, “यह एक मटका है, जो कपड़े से ढंका हुआ है। यदि आप में
से कोई भी यह बता देगा कि इसके भीतर क्या है?
तो मैं अपनी हार स्वीकार कर लूँगा।"
किसी भी दरबारी का कुछ भी कहने का साहस नहीं हुआ।
मटके के भीतर क्या है यह उनकी कल्पना से परे था।
तब बीरबल उठा, आगे बढ़ा, मटके को खोलकर भीतर झाँका और बोला, “मटके में कुछ भी नहीं है।
वह खाली है।" विद्वान् चिल्लाया, “तुमने धोखा किया है, तुमने मटके को खोल दिया है।"
बीरबल ने कहा, "किन्तु श्रीमान्, आपने यह तो नहीं कहा था कि मटके को खोलना नहीं है।
" विद्वान् ने बीरबल की समझदारी का लोहा मान लिया।
उसने बादशाह के सामने सिर झुकाया और चला गया।